Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार १७
क्व । सुरसे। मोक्षमानससरोवरे । यथा मानससरोवरे हंसास्तिष्ठति तथा मोक्ष- मानससरोवरे सिद्धहंसास्तिष्ठति इत्यभिप्रायः । इति पदखंडनत्रयसमुद्भूतार्थ- द्वयगर्भस्तृतीयश्छायार्थः । तथा च चतुर्थपक्षे रसशब्देन वीर्यं ततः सुष्ठु अतिशयवान् कर्मारिचक्रशातनत्वात् रसो वीर्यं बलं यस्य स सुरसः अर्थ - सामर्थ्यान्मुनिसमुदयः तस्यैव तत्र प्रधानत्वात् नान्ये रणशूरा सुभटाः रौद्रध्यानाधीनतया नारकगतिसाधकत्वात्, सुरसेन मुनिसमुदायेन वंदितं निर्विकल्पसमाधिनानुभूतं सुरसेन वंदितमिति चतुर्थश्छायार्थः ।
पंचमं पक्ष रसशब्द रागपि वर्तते। शोभनः संवेगास्तिक्यानुकंपादिगुणविशिष्टलक्षणो रसो रागो यस्य स सुरसः अर्थाच्चतुर्थगुणस्थानादिवर्ती सरागसम्यग्दृष्टिजीववृंद तस्यैव तत्र प्रवर्तनत्वात् । न तु
द्विज किस विशेषण से विशिष्ट है ? अनव= अनव है- पुरातन है । पुरातन शब्द ज्येष्ठ, गरिष्ठ, उत्तम और प्रधान अर्थ में आता है। इसलिए अनव यह विशेषण सकल पक्षियों में ज्येष्ठ, गरिष्ठ, उत्तम और प्रधान होने से (द्विज शब्द से) हंस पक्षी का ग्रहण होता है। जिस प्रकार मानसरोवर में हंस लीन होता है, रमण करता है; उसी प्रकार 'सुरस' मोक्षरूपी मानसरोवर में लीन रहने से सिद्ध भगवान हंस कहलाते हैं। इस प्रकार पदखण्डन तीन से उत्पन्न दो अर्थ होते हैं।
अब चतुर्थ प्रकार से इस गाथा का अर्थ कहते हैं। रस शब्द का अर्थ वीर्य भी होता है इसलिए 'सुष्ठु ' अतिशयवान कर्म रूपी शत्रु के चक्र का नाशक होने से रस वीर्य कहलाता है । सुष्ठु वीर्य बल जिसके होता है, वह सुरस कहलाता है। अतः सुरसशब्द से मुनिगण का ग्रहण होता है। अर्थात् सुरस का अर्थ मुनिराज है। क्योंकि यहाँ पर मुनिराज की मुख्यता है, वे ही शूरवीर भट हैं।
मुनिराज को छोड़कर जो अन्य रण (युद्ध) में शूर हैं वे शूरवीर नहीं हैं। क्योंकि रण में शूर, भट नरक गति के कारणभूत रौद्र ध्यान के आधीन है। अतः 'सुरसेन' मुनि समुदाय से वंदित वा निर्विकल्प समाधि के द्वारा अनुभूत सुरसेनवंदित कहलाते हैं ।
अथवा रस शब्द का प्रयोग राग में भी होता है। अतः शोभनीय संवेग (संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति), आस्तिक्य ( जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर दृढ़ विश्वास), अनुकम्पा आदि गुणविशिष्ट राग जिसके होता है वह 'सुरस' कहलाता है। अर्थात् चतुर्थं गुणस्थानवतीं आदि सराग सम्यग्दृष्टि सुरस कहलाते हैं। क्योंकि सराग सम्यग्दृष्टियों के वीतरागता के प्रति जो राग होता है वह शुभ राग है अर्थात् सराग सम्यग्दृष्टि की ही प्रशम, संवेग, जिनेन्द्रभक्ति आदि शुभ राग में प्रवृत्ति होती है । परन्तु संसार-समुद्र में गिरने का कारण होने से माला, चन्दन, वनिता, आदि पंचेन्द्रिय विषयसुख के रागरस के लम्पट महामिध्यादृष्टि का राग सुरस ( शोभनराग ) नहीं है, शुभ राग नहीं है, अपितु कुरस (कुराग ) ही है। क्योंकि पंचेन्द्रिय विषयों का राग अनन्त संसार के परिभ्रमण का कारण है। इसलिए सराग सम्यग्दृष्टि के द्वारा वंदित, नमस्कृत, स्तुत,