Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार १६
निलीना
नान्यस्मिन, लौकिक क्षीरसागरगंगादितीर्थसमुद्भूते । ब्राह्मणा हि स्नानाचमनशौचपरायणा गंगादिमहातीर्थजलेषु भवंति 1 सर्वकालस्वस्वभावामृतजलनिलीनानां तत: सिद्धात्मनां ब्राह्मणोपचाररूपकालंकारविशेषणमस्मिन् व्याख्याने न दोषाय । पुनः किंविशिष्टं । नवं प्रतिक्षम यस्वभावोत्थानंवगुणामुतवमिति यावत् । अथवा अनवं न नवः अनवस्तं अनवं द्रव्यस्वभावापेक्षया पुरातनमनादिकालीनमित्यर्थः । तथा चास्मिन्नेव पदखंडनाये अन्यापि व्याख्या भवति, शोभनो रसो जल पानीयं विद्यते यस्मिन्निति सुरसो मानससरोवर: यतो लोके किलैषा सिद्धिः ।
अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरजमंडितं । रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना ॥
इति सुभाषितत्वात् । ततः सर्वेषु जलाशयेषु मानससरोवर एव सुरस इत्याख्यायते । अत्र तु स्वस्वभावोत्थपरमामृतरसपूरपरिपूर्णत्वात् सुरसो मोक्षाभिधानमानससरोवरो गृह्यते । किंविशिष्टं सिद्धं । द्विजं पक्षित्वात् द्विजग्रहणेन सामान्यत्वात्सर्वे पक्षिणो गृह्यंते । कुतः । हंसविशेषग्रहणविशेषणसामर्थ्येन । किंविशिष्टं द्विजं । अनवं पुरातनं पुरातनशब्दस्तु ज्येष्ठगरिष्ठोत्तमप्रधानार्थेषु प्रवर्तते । ततोऽनवामिति विशेषणेन सकलपक्षिज्येष्ठत्वाद्गरिष्ठत्वादुत्तमत्वात्प्रधानत्वाच्च द्विजो हंस एव लभ्यते ।
हैं। वा ब्राह्मण लोग गंगादि महातीर्थजल में स्नान आचमन करके अपने को पवित्र मानते हैं अतः ब्राह्मण यह रूपक अलंकार विशेषण इस व्याख्यान में दोषदायक नहीं है। क्योंकि इस दृष्टान्त से यह सिद्ध किया है कि स्व-स्वभावोत्थ जल में जो निरंतर लीन रहते हैं अतः शोभनीय रस स्वस्वभावोत्थ आत्मानुभव ही है । सर्वकाल उस जल में लीन रहने से निर्विकल्प समाधि वाले योगी ब्राह्मण कहलाते हैं अतः यह भाव नमस्कार है।
अथवा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा 'सुरसे नवं दियं नवं प्रतिसमय स्वभावोत्थ अनन्तगुणों का अनुभव होने से वह स्वभावोत्थानन्द का अनुभव नवीन कहलाता है। अथवा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मानुभव नवीन नहीं है, 'अनव' है पुरातन है, अनादिकालीन है। उस आत्मानुभव में निरंतर लीन रहते भी व्याख्या होती है। हैं तथा इस तीन प्रकार पद खण्डना से अन्य रूप
शोभन रस (जल) जिसमें होता है वह सुरस (मानसरोवर ) कहलाता है। क्योंकि लोक में भी यह सिद्धि है- यद्यपि सर्वत्र कमलों से मण्डित सरोवर हैं परन्तु हंसों का मन मानसरोवर को छोड़कर अन्यत्र रमण नहीं करता है। यह सुभाषित है । इसलिए सर्व जलाशयों में मानस सरोवर ही 'सुरस' कहलाता है।
I
अथवा यहाँ पर 'सुरसेनवंदितं' यह सिद्धों का विशेषण है अतः सिद्ध भगवान निरंतर अपने स्वभाव से उत्पन्न परमामृत रस के पूर से परिपूर्ण होने से सुरस मोक्ष नाम का मानस सरोवर ग्रहण किया जाता है जो उस मोक्ष नामक सरोवर में लीन है वह सुरसेनवंदिया कहलाते हैं। "सिद्ध कैसे कहलाते हैं ? । सिद्ध द्विज कहलाते हैं, द्विज ग्रहण से सामान्यतः सर्व पक्षियों का ग्रहण होता है। कैसे? हंस विशेष ग्रहण विशेषण के सामर्थ्य से 1
अतः