Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१५
तथा च द्वितीयपक्षे रसशब्दः स्वादेपि वर्तते। ये किल पंचेंद्रियविषयामिषस्वादास्ते जीवस्य जलौकाज तुविशेषस्य दुष्टरुधिरपानवदतृप्तिजनकत्वाच्च न शोभनाः। अयं तु वीतरागनिर्विकल्पसमाधिनानुभृत्यमानः स्वस्वभावोत्थः परमातींद्रियसुखरसास्वादः संसारतृष्णास्फेटकत्वाद्वैरस्याभावात् प्रतिसमय साररसस्य संपादकत्वाच्य विशेषत: शोभनविशेषणेन विशेष्यते। ततः सुरसेन निर्विकल्पसमाधिजन्यमानपरमानंदातींद्रियसुखस्वादेन वंदितमनुभूतमित्यर्थद्वयाश्लिष्टभावनमस्कारप्रतिपादको द्वितीयश्छायार्थः।।
तृतीयपक्षे सुरसेण वंदियमित्येकविभक्त्यंतस्य खंडनत्रयं विभज्य व्याख्या विधीयते कथं । सुरसेणवंदियं सुरसे णवं दियं सुरसे नवं द्विजमिति । कथंभूतं सिद्धं । द्विज द्विजमिव द्विजं ब्राह्मण। क्व । सुरसे स्वस्वभावामृतजले। रसशब्दो जलेप्यस्ति जलं तु स्नानपानशौचकारणं स्यात्। ततः सिद्धात्मनां स्नानपानशौचकारणगुणोपचारात् स्वस्त्रभावोत्थममृतजलं शोभनविशेषणविशिष्टमभिधीयते तस्मिन्,
दूसरे पक्ष में रस शब्द स्वाद में भी आता है। जो पंचेन्द्रिय विषयरूपी आमिष का स्वाद लेते हैं वे जोक (जन्तु विशेष) के दुष्ट खून पीने के समान अतृप्तिजनक होने से श्रेष्ठ नहीं हैं अर्थात् पंचेन्द्रिय विषयसुख भी अतृप्ति का कारण हैं इसलिए शोभनीय नहीं हैं। परन्तु वीतराग निर्विकल्प समाधि के द्वारा अनुभूयमान स्व-स्वभाव से उत्पन्न परम अतीन्द्रिय सुख रस का स्वाद ही संसार की तृष्णा का उच्छेदक है (नाशक है)। परस्पर वैर-विरोध का घातक है और प्रतिक्षण सार (आत्मानुभव) रस का सम्पादक है इसलिए आत्मानुभव रस ही शोभनीय विशेषण से विशिष्ट होने से सुरस है और इन्द्रियजन्य रस कुरस है। अतः 'सुरसेनवंदित' इस शब्द से निर्विकल्प समाधि जन्य परमानन्द अतीन्द्रिय सुख स्वाद से वंदित अनुभूत इन दोनों अर्थों से आश्लिष्ट भाव नमस्कार का प्रतिपादक है अर्थात् वास्तव में निर्विकल्पसमाधि के द्वारा आत्मा का अनुभव करना ही भाव नमस्कार है।
तीसरे पक्ष में 'सुरसेणचंदियं' इस पद को तीन प्रकार से विभाजित करके व्याख्या की जा रही है। 'सुरसे णवं दिय' सुरस में नवीन द्विज (ब्राह्मण)। प्रश्न - यह सिद्ध कैसे होता है? ।
उत्तर - द्विज के समान द्विज होता है अर्थात् जिसका जन्म दो बार होता है उसको द्विज कहते हैं एक बार माता-पिता से जन्म होता है, दूसरा गुरु-संस्कार से जन्म होता है। अत: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज (ब्राह्मण) कहते हैं।
अथवा, रस का अर्थ जल है और जल स्नान, पान और शुचि का कारण है। उस जल में स्नान करके अपने को शुचि मानते हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं।
___ 'सुरस' शोभनीय रस (आत्मानुभव रूप) सुरस (शोभनीय सर्वोत्कृष्ट जल) उसमें अवगाहन करके अपने आप को पवित्र करते हैं, उसका पान कर संसार सम्बन्धी विषयाभिलाषारूप तृष्णा का उच्छेद करते हैं वे 'सुरसे णवं दियं वे ब्रह्म (निर्विकल्प समाधि) में लीन योगीश्वर रूप ब्राह्मण के द्वारा बंदित अर्हत्प्रभु