Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार १३
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सब रसों का रस चखें, अनुभव रस के माँहि । ता अनुभव सारखो और पदारथ नाहिं ||
सब रसों के रस का आस्वादन एक अनुभव रस में होता है। इसलिए अनुभव रस के समान कोई दूसरा रस नहीं है।
बनारसीदास जी ने कहा है
नृत्य कुतूहल तत्त्व का मरिपचि देखो धाय । निजानन्द रस को चखो आन सबै छिटकाय ।।
जब यह आत्मा ज्ञेय - ज्ञायक एवं भाव्य-भावक भाव के स्वरूप को जानकर तथा विभाव भावों को त्यागकर निज (शांत) रस में लीन होता है, उस समय उसे जो आनन्द होता है, उसका कथन करना शक्य नहीं है, वह वचन के अगोचर है।
अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में लिखा है
सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् । नास्ति नास्ति मम कञ्चन मोहः, शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि ॥ ३० ॥
मैं निरन्तर सर्वतः स्वरस से पूरित स्वकीय ज्ञानमय अपनी आत्मा का ही अनुभव करूँ अपने स्वरूप में लीन रहूँ, किसी के साथ मेरा ममत्व नहीं है, मैं एक चिदानन्द शुद्ध चैतन्यमय ज्ञानघन निधि हूँ। निज शांत रस के स्वाद के सिवाय मेरा कुछ भी स्वभाव नहीं है। मेरे असंख्येय प्रदेशों में भरा हुआ ज्ञान रस है, शांत रस है, उसी का मैं रसिक बनूँ ।
अमृतचन्द्राचार्य ने शांत रस का अनुभव करने के लिए प्रेरणा दी है
त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं, रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
इह कथमपि नात्माऽनात्मना साकमेकः, किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिं ॥
यद्यपि आत्मा अनादिकाल से पुद्गल (शरीर ) के साथ रह रहा है परन्तु किसी भी काल में वा किसी भी क्षेत्र में किसी भी प्रकार से यह आत्मा अनात्मा (शरीर ) के साथ तादात्म्य वृत्ति (एकपने ) को प्राप्त नहीं हुआ है। इसलिए हे संसारी प्राणियो ! अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए इस मोह भाव को छोड़ो, मोह का परित्याग करो। शृंगार आदि रसों में लीन इस मोह का विनाश करो और शांत रस के रसिक जनों को रुचिकर उदित हुए इस ज्ञान रस (शांत रस) का आस्वादन करो। इस श्लोक में शांत रस