Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १०
द्रव्यनमस्कारः। इति द्रत्र्यनमस्कारलक्षणं । त्रिगुप्तिगुप्तमुनिनायकेनारभ्यमाणो दुःकर्मोदयसंपादितनानासंकल्पविकल्पजालेप्याधिविरहितस्य शुद्धपरमात्मनः सकलचराचरमिदं जगत्सुमं लोष्टनिष्पन्न वेति प्रतिभासकारणेन निर्विकल्पसमाधिनानुभवनं भावनमस्कार इति भावनमस्कारलक्षणं ।
द्रन्यनमस्कारसूचितो भावनमस्कारः कथं घटिष्यते इत्याशंका भवता चेतसि वर्तते तदुत्तरं शृण्वंतु भवंतः। रसा शृंगारादयो लोके प्रसिद्धास्तेषां मध्ये चरमः शांतरस: अनादिकाल प्रज्वलिलावाका संसारदु:खमहादावानलविध्यापन-समर्थत्वात् परमानंदोत्पादकत्वाच्च शोभनविशेषणविशिष्टो भवति। ततः संसारशरीरभोगेषु परमनिर्वेदमापन्नः परमयोगीश्वरैः सुरसेन सकलाध्यात्मकलाविलासास्पदीभूतेन शांतरसेन निर्विकल्पसमाधिना वंदितमनुभूतं सुरसेनवंदितं । वंदितमनुभूतमित्येतस्मिन्नर्थे कथमिति चेत्। सत्यं । बदि अभिवादनस्तुत्योः, वदि इत्ययं धातुरभिवादने नमस्कारे स्तुतौ स्तवने चेत्यर्थट्टये वर्तते। स्तुतिस्तु वचसा मनसा च कृत्वा द्विविधा। यत्र केवलेन वस्तुतत्वैकनिष्ठेन मनसा योगेन स्तुतिर्विधीयते तत्र तस्या अनुभूतिपर्याय: केन निषिध्यते ततो वंदितमनुभूतमित्यर्थः कथं न घटते। समाध्यवस्थास्वीकृतशांतरसेन मनसानुभूतमिति ताडितार्थः।
त्रिगुप्ति से गुप्त (युक्त) मुनिनायक के द्वारा आरभ्यमाण, दुष्कर्मों के उदयसे सम्पादित नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प जाल होने पर भी मानसिक चिंता (विकल्पजालों) से रहित, शुद्ध परमात्मा के यह सकल चर अचर जगत् सुप्त वा प्रस्तरनिष्पन्न की भाँति प्रतिभासित होता है; ऐसी निर्विकल्प समाधि के द्वारा परमात्मा का अनुभव करना भाव नमस्कार है।
द्रव्य नमस्कार से सूचित सूत्र से भाव नमस्कार कैसे घटित होगा? ऐसी शंका आपके मनमें है, उसका उत्तर सुनो । रस्यते आस्वाद्यते असौ रस:, जिसका स्वाद लिया जाता है, अनुभव किया जाता है, उसे रस कहते हैं। जिस प्रकार लवण, मधुर आदि रसों का जिह्वा इन्द्रिय के द्वारा स्वाद लिया जाता है, आनन्द का अनुभव किया जाता है, दुःख का अनुभव किया जाता है उसी प्रकार शृंगार आदि रसों के द्वारा आनन्द का अनुभव किया जाता है।
प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के भेद से बंध चार प्रकार का है। उनमें रस वा सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला अनुभाग बंध है। उस अनुभाग बन्ध के बिना प्रकृति, स्थिति और प्रदेश बंध कुछ भी नहीं कर सकते। उसी प्रकार कान्य की रचना में शृंगार आदि रस के बिना उनके पठन, पाठन, वाचन, श्रवण आदि में आनन्द का अनुभव नहीं होता इसीलिए मनीषियों ने, कवियों ने.
शृंगार-वीर-करुणा-हास्याद्धत-भयानका । रौद्र-बीभत्स-शान्ताश्च नवैते निश्चिताः बुधैः ॥