Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-८
मस्तकेन । यदि च महावीरमिति विशेष्यपदपक्षं ऋक्षीकृत्य व्याख्यायते तदा । नत्वा । कं। महावीरं, ई इति चतुर्थस्वररूपमेकाक्षराभिधानं प्रसिद्धं लक्ष्मीनामा 'रा ला इति धातुद्वयं, आदाने ग्रहणे इत्यस्मिन्नर्थे वर्तते । विशिष्टां बाह्यचतुस्त्रिंशदतिशय प्रादुर्भूति- विराजमानसमवशरणपरमविभूत्यभ्यं तरसहजवस्तुस्वभावी भूतानंतचतुष्टयव्यक्तिलक्षणामी लक्ष्मीं रात्यादत्ते गृह्णातीति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तं महावीरं चरमतीर्थंकरपरमदेवं अर्हद्भट्टारकं श्रीवर्धमानस्वामिनामानं । किंविशिष्टं । विमलतरगुणसमृद्धं प्रसिद्धवातिकचतुष्टयरूपसंतमसविनाशप्रादुर्भूत युगपत्प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिसूर्योदयदृष्टांतास्पदीभूतातीतानागत वर्तमानत्रिकालगोचरोत्पादव्ययध्रौव्यलक्ष्मत्रितयालिंगित त्रिभुवनो दरविवरवर्तिशुद्ध वैतन्यविलासप्रवर्तमानपरमात्मपदार्थादिसमस्तवस्तुस्वभावबोभूयमानकालकलानिदर्शनाश्लिष्टेक समयग्रहणसमर्थसामान्यविशेषरूपवर्तमाननिर्मलतरज्ञानदर्शनाभिधान सर्वज्ञगुणसंपूर्णं । पुनः किंविशिष्टं ? सिद्धं प्रसिद्धं ।
पुनरपि किं विशिष्टं ? सुरसेनवंदितं गर्भादिमहाकल्याणमहोत्सवेषु पितृभ्यां सह सकलगीर्वाणचक्रनमस्कृतं । केन शिरसा मस्तकेनेति योजनिकाद्वारः । विभलतरगुणसमृद्धं सुरसेन वंदितं महावीरं सिद्धं, पक्षे विमलतर गुणसमृद्धं सिद्धं सुरसेनवदितं महावारं शिरसा नत्था आराधना वक्ष्य इति संक्षेपान्वयद्वारः । सुरसेनवंदितमित्यत्र सिद्धविशेषणपदे अभिधानसामर्थ्यात् केचन छायार्था अपि निष्पाद्यते । कथं ? सुराणां देवानां ग्रहणेन यद्यप्यूर्ध्वलोकस्वामित्वमालिनः पंचविधाः ज्योतिष्काः, सौधर्मेन्द्रप्रमुखाः कल्पवासिनो भावनां कुर्वाणाः कल्पातीता अपि, अधोलोकस्वामित्वमालिनो भवनवासिदेवनिकायत्वाद्धरणेंद्रप्रमुखाश्व केचन त्र्यंतराधिपतयोऽपि तथा व्यंतरास्तिर्यग्लोकनिवासिनोपि सर्वे त्रिभुवनोदरविवरवर्तिनो देवा गृह्यंते मध्यलोकस्वामित्वमालिनः चक्रवर्तिप्रमुखा नराः, तिरश्चां स्वामित्वमाली सिंहः तन्मुखा अन्येपि पशवो गृहीताः ।
का वाचक है । 'रा' 'ला' ये दो धातु आदान ( ग्रहण) अर्थ में जाते हैं। 'वि' विशिष्ट बाह्य चौबीस अतिशयों की प्रादुर्भूति से विराजमान समवसरण की परम विभूति से युक्त और अभ्यन्तर सहज स्वभावभूत अनन्त चतुष्टय की व्यक्ति रूप लक्ष्मी को धारण कर रहे हैं, ग्रहण कर रहे हैं उसे वीर कहते हैं। महान् वीर को महावीर कहते हैं। ऐसे विशेषणों से युक्त अन्तिम तीर्थंकर परम देव अर्हन्त भट्टारक श्री वर्द्धमान भगवान को नमस्कार करके आराधनासार कहने की प्रतिज्ञा की है ।
अथवा, सुरदेव शब्द के ग्रहण से ऊर्ध्व लोक के स्वामी पाँच प्रकार के ( सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णकतारा ) ज्योतिषीदेव; सौधर्म इन्द्र प्रमुख (इन्द्र सामानिक, त्रयस्त्रिंश, पारिषद् आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, आभियोग्य, प्रकीर्णक, किल्विष) तथा इन्द्रादि कल्पना से अतीत कल्पातीत हैं। अधोलोक के स्वामी धरणेन्द्र प्रमुख दस प्रकार के ( असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार अभिकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिग्कुमार) भवनवासी देव, तथा किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच, व्यंतर हैं। तिर्यग्लोक में रहने वाले व्यंतरदेव मध्य लोक के स्वामी हैं; इस प्रकार तीन लोक के स्वामी देवों के द्वारा वंदनीय सुरसेन वंदनीय कहलाते हैं। अथवा मध्यलोक का स्वामी चक्रवर्ती प्रमुख मानव और तिर्यंचोंका स्वामी सिंह प्रमुख पशु भी सुरसेन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं।