Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -७
विमलयरगुणसमिद्धं, सिद्धं सुरसेणवंदियं सिरसा। णमिऊण महावीरं वोच्छं आराहणासारं ॥१॥
विमलतरगुणसमृद्ध सिद्धं सुरसेनवंदितं शिरसा।
नत्वा महावीरं वक्ष्ये आराधनासारम् ॥१।। वोच्छं वक्ष्ये। कोसी। अहं देवसेनाचार्यः। कं। आराहणासारं आराधनासारं मुमुक्षुभिराराध्यते या सा आराधना, आराधनायाः सार: आराधनासार: तं आराधनासारं सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयरूपेण सारीभूतं । किं कृत्या। णमिऊण नत्वा नमस्कृत्य । कं। सिद्धं सिद्धं केवलज्ञानाद्यनंतगुणप्रादुर्भावलक्षणं परमात्मानं । किंविशिष्टं। विमलयरगुणसमिद्धं निर्मलतर-शुद्धचैतन्यगुणसंपूर्ण। पुनः किं विशिष्टं। सुरसेणवंदियं सुरसे नवंदितं सौधर्मेन्द्रप्रमुगर पिकायामर कीर नारडत । पुनरपि हिं विशिष्ट ? महावीर अन्येषामप्याराधकपुरुषाणां ध्यानरणरंगभूमावनादिलग्नकर्माष्टकविपक्षचक्रविनाशनैकसुभटं ? केन। सिरसा
निर्मलतर गुणों से परिपूर्ण, सुरसेन के द्वारा वंदनीय महान् वीर सिद्धों को सिर से नमस्कार करके मैं देवसेनाचार्य आराधनासार ग्रन्थ कहूँगा ॥१॥
श्री रत्नकीर्ति आचार्य इन शब्दों का विशेष अर्थ करते हैं।
कर्मों से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्षुओं के द्वारा जो क्रिया करने योग्य है, उसे आराधना कहते हैं। सम्पूर्ण आराधनाओं में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये सार (श्रेष्ठ) हैं। अत: ये आराधना सार कहलाते हैं। विमलयरगुणसमिद्ध= अत्यन्त निर्भल गुणों से युक्त हैं अर्थात् निर्मलतर शुद्ध चैतन्य गुण से परिपूर्ण हैं। चारों निकाय के देवों के समूहों द्वारा वंदनीय हैं. पूजनीय हैं। अत: सुरसेनवंदनीय हैं। महावीर अन्य आराधक पुरुषों के ध्यान रूपी रणांगण में अनादिकाल से लगे हुए आठ कर्म रूपी शत्रुओं के चक्र को विनाश करने में सुभट हैं। जो इन सिद्धों का ध्यान करते हैं उनके कर्म रूपी शत्रु नष्ट हो जाते हैं। इसलिए महावीर सिद्धों का विशेषण है। ऐसे सिद्ध केवलज्ञानादि अनन्तगुण जिनके प्रगट हो गये हैं ऐसे विकल परमात्मारूप सिद्ध भगवान को सिर झुकाकर, नमस्कार करके मैं देवसेनाचार्य आराधनासार कहूँगा।
अथवा, महावीर आदि शब्दों की दूसरे रूप से व्याख्या करते हैं। विमलयरगुणसमिद्ध-प्रसिद्ध चार घातिया कर्म रूप अन्धकार के नाश होने से एक साथ उत्पन्न हुए प्रताप और प्रकाश की अभिव्यक्ति रूप सूर्य के दृष्टान्त के स्थानीय भूत, भविष्यत् वर्तमान रूप त्रिकालगोचर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप तीन लक्षणों से लक्षित, तीन लोक के भीतर रहने वाले शुद्ध चैतन्य गुण से विलसित (शोभित) परमात्मा जीवनामा पदार्थ को आदि लेकर सारे (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) पदार्थों को एक समय में सामान्य विशेष रूप से ग्रहण करने में समर्थ ऐसे निर्मलतर केवलदर्शन और केवलज्ञान से परिपूर्ण, प्रसिद्ध 'सुरसेनवंदित' गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक महोत्सव में माता-पिता के साथ सम्पूर्ण चार निकाय के देवों के द्वारा वन्दनीय, महावीरं 'ई' चतुर्थ स्वरूप, एकाक्षर नाम प्रसिद्ध कोश में लिखित लक्ष्मी