Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -३
संक्षेप से, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के भेद से आराधना के दो भेद हैं और विस्तार से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यञ्चारित्र और सम्यक् तप के भेद से चार भेद हैं।
“सरति, सर्वोत्कृष्टं प्राप्नोति इति सार"। जो सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त है वह सार कहलाता है। जो सम्यग्दर्शनादि सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हुए हैं वह आराधनासार कहलाता है।
आराधना के सार का फल है-स्त्रात्मोपलब्धि, शिवसौख्यसिद्धि। आराधना के सार के फल से फलित है आत्मा जिसकी उसे कहते हैं आराधनासार के फल से फलितात्मा।
यद्यपि आराधना के सार के फलसे फलित आत्मा वाले पाँच परमेष्ठी होते हैं, परन्तु वास्तव में तो सिद्ध भगवान हैं। इसलिए आराधनासार के फल से फलित आत्मा यह सिद्ध भगवान का विशेषण है।
सिद्ध शब्द ‘षिधुधातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है सि-सितं बद्ध अष्टप्रकारं कर्मेन्धनं प्ति शब्द का अर्थ है अनादि कालसे बँधे हुए आठ प्रकार के कर्म रूप ईंधन को, 'द्ध'-ध्यातं दाधं जाज्वल्यमान शुक्लध्यानानलेन येन जलादिया है, भस्म कर दिया है जाज्वल्यमान शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जिन्होंने। अर्थात् जिन्होंने शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा अनादिकालीन आठ कर्म रूपी ईंधन को जलाकर भस्म कर दिया है, उनको सिद्ध कहते हैं।
___ अथवा- 'पिधु गतौ सिद्ध धातु गमन अर्थ में है- जिससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जो शिवलोक में पहुँचकर स्थित हो गये हैं, वहाँ से लौटकर पुनः संसार में नहीं आयेंगे, उनको सिद्ध कहते हैं।
"जिन्होंने अनादि काल से आत्मा से बंधे हुए पुरातन कर्मों को शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वार! भस्म कर दिया है। जो परम निवृत्तिधाम को (मोक्ष महल को) प्राप्त हो गये हैं। वहाँ से पुनः लौटकर नहीं आयेंगे। भव्यों के द्वारा उपलब्ध गुणसंदोह से वे विख्यात हैं, जगत्प्रसिद्ध हैं, अनुशास्ता हैं, कृतकृत्य हैं. परिनिष्ठितार्थ हैं; ऐसे सिद्ध मेरे लिए मंगलकारी होवें ।'
शास्त्रारम्भ की आदि में 'स' वर्ण का प्रयोग करना सुखद होता है-इसलिए आचार्यदेव ने सर्व प्रथम स (सिद्ध) वर्ण का प्रयोग किया है।
इस प्रकार के सिद्धों का ध्यान करके में आराधनासार की व्याख्या रूपी (टीकारूपी) तीर्थ के द्वार! अपनी आत्मा को पवित्र करता हूँ।
५. ध्यात सित बेन पुराणक्रम, यो वा गती निवृतिसीधमूर्ध्नि ।
ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, य: सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगल मे| भगवती सू. १, १, १