Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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(५) उपसर्ग सहन तिर्यंचकृत, देवकृत, मनुष्यकृत और अचेतनकृत के भेद से उपसर्ग चार प्रकार के हैं। सल्लेखना में स्थित मानव को कदाचित् दुःखद उपरिकथित चार प्रकार का उपसर्ग आ जाये तो समता भाव से उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए। आत्मस्वरूप में स्थिर होकर उपसर्गों को सहन करने वाले पुरुषों के चरित्र का चिंतन करके अपने मनको स्थिर करना चाहिए। इस सन्दर्भ में ग्रन्थकर्त्ता ने शिव भूति, गजकुमार, श्रीदत्त, सुवर्णभद्र, सुकुमाल आदि मुनियों के दृष्टान्त देकर क्षपक को उपसर्ग सहन करने का मार्मिक उपदेश दिया है। संस्कृत टीकाकार ने इन सबकी कथाएँ देकर इस प्रकरण को अत्यन्त रोचक बना दिया है । उपसर्गसहन भी संन्यास में कारण है।
(६) इन्द्रिय विजयी बनना आचार्यदेव ने इस ग्रन्थ में पाँच गाथाओं के द्वारा रूपक अलंकार में इन्द्रियों को शिकारी, काम को बाण, विषयों को वन और मनुष्यों को हरिण की उपमा दी है। उन्होंने लिखा है कि - इन्द्रिय रूपी शिकारियों से पीड़ित मनमथजन्य पीड़ा रूपी बाण से घायल चंचल चित्त वाले मानव रूपी मृग स्वतत्त्व, परतत्त्व, हेयोपादेय कथन करने वाले जिनवचनश्रवण, देवपूजा आदि शुभ 'कार्यों में प्रीति नहीं करते क्योंकि अनादिकालीन कर्मबंध के कारण आत्मसुख के रस का आस्वादन करके विषयसुख की अभिलाषा से विषयाटवी में भ्रमण करते हैं, वे मानव संन्यास को धारण नहीं कर सकते अतः इन्द्रिय-विजयी होने का उपदेश दिया है।
(७) मनोविजयी होना - जिन पुरुषों ने विषयों में दौड़ते हुए हाथी को सुदृढ़ ज्ञानरूपी रस्सी से नहीं बाँधा वे पुरुष शारीरिक मानसिक दुःखों से पीड़ित होकर संसाराटवी में भटकते रहते हैं। आचार्यदेव ने क्षपक को सम्बोधित करते हुए कहा है- हे क्षपकराज ! देखो तन्दुलमत्स्य मन के द्वारा किये गए पाप के कारण नरक को प्राप्त होता है, मन से प्रेरित होकर इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती है जिससे राग-द्वेष की श्रृंखला मजबूत होती है अतः तू मन को रोक ।
मन के स्थिर हो जाने पर मन की दास इन्द्रियाँ, वचन, काय, राग-द्वेषादि सारे विभाव भाव नष्ट हो जाते हैं। नूतन कर्मों का आस्रव रुक जाता है अर्थात् संवर तत्त्व की उत्पत्ति होती है और असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। अतः हे क्षपक ! तू अपने मन को स्थिर करने का प्रयत्न कर।
इसके आगे आचार्यदेव ने इस ग्रन्थ में मन को खाली निर्विकल्प बनाने का उपदेश दिया है। क्योंकि मन के निर्विकल्प हो जाने पर शुद्धात्मा का अनुभव या दर्शन होता है ।
निर्विकल्प मन में ध्यान, ध्याता, ध्येय के विकल्पों से शून्य ध्यान की उत्पत्ति होती है, वहीं रत्नत्रय है वहीं आत्मस्थिरता है, वहीं साक्षात् मोक्षमार्ग है ।
जिस प्रकार जल के संयोग से नमक विलीन हो जाता है, उसी प्रकार शून्य ध्यान आत्मा आत्मा में लीन हो जाती है।
माहात्म्य से