Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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जिस प्रकार पत्थर में पत्थर की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है और सबको भस्म कर देती है वैसे ही आत्मा में आत्मा की स्थिरता से निर्विकल्प ध्यानरूपी अग्नि प्रगट होती है और अनादिकालीन कर्मों को भस्मकर आत्मा को शुद्ध एवं निर्मल बना देती है ।
आचार्यदेव ने कहा है कि इस निर्विकल्प ध्यान के द्वारा यह शरीर एवं कर्म से मुक्त होकर अतीन्द्रिय सुख का भोक्ता बनता है।
अन्त में, ग्रन्थ कर्त्ता ने क्षपक को सावधान करते हुए मार्मिक देशना दी है। उन्होंने कहा है
हे क्षपक ! तू धन्य है, तेरा यश चिर काल तक विस्तरित रहेगा क्योंकि तूने मनुष्यभव पाकर संयम धारण किया है और उत्तम संन्यासमरण का संकल्प किया है। यदि संन्यासमरण की साधना में तुझे भूख, प्यास आदि से कष्ट होता है तो उसको समभाव से सहन कर। क्योंकि पराधीनता से तूने अनन्त दुःखों को सहन किया है। अब तू स्वाधीन होकर सहन करेगा तो कर्मों की निर्जरा करेगा।
हे क्षपक ! जब तक यह जीव रूपी सुवर्ण शरीर रूपी मूषा के अन्दर ज्ञान रूपी पवन से प्रज्वलित होता हुआ तप रूपी अग्नि से संतप्त नहीं होता तब तक निष्कलंक नहीं बन सकता ।
हे क्षपक ! तू निरन्तर शरीर से भिन्न आत्मा का ध्यान कर। जिस प्रकार म्यान से तलवार भिन्न है उसी प्रकार शरीर से आत्मा भिन्न है, ऐसा ध्यान कर । आत्मस्वरूप का दृढ़ निश्चय करने वाला कभी आत्मस्वरूप से च्युत नहीं होता।
अन्त में, आचार्यदेव ने उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार से आराधना का कथन करके तथा उनके फल का वर्णन कर ग्रन्थ को समाप्त किया है।
गणिनी आर्यिका १०५ सुपार्श्वमती माताजी की संघस्था बालब्रह्मचारिणी डॉ. प्रमिला जैन
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