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कहलाती है। 'मैं तन्मयाकार हो गया', ऐसी जो शंका होती है, वह भी एक प्रकार की ज्ञानजागृति ही है। अंतिम ज्ञानजागृति में तो 'तन्मयाकार होना ही नहीं है' ऐसा भान रहता ही है।
ज्ञानीपुरुष की दशा में सारा व्यवहार पुद्गल करता है और खुद वीतराग रहते हैं। प्रति पल व्यवहार में होने के बावजूद भी किसी चीज़ की नोंध (अत्यंग राग अथवा द्वेष सहित लंबे समय तक याद रखना) नहीं। नोंध हो जाए तो दृष्टि मलिन हो जाती है। ज्ञानीपुरुष की आँखों में निरंतर वीतरागता ही दिखाई देती है।
जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ नोंध नहीं है। जहाँ नोंध नहीं, वहाँ टेन्शन रहित दशा!
जगत् का प्रेम नोंध वाला प्रेम है। उसे आसक्ति कहते हैं। जो प्रेम बढ़ता-घटता है, उसे आसक्ति कहते हैं। _ 'उस दिन आपने मुझसे ऐसा कहा था' अंदर ऐसा होते ही उसे नोंध हो गई कहते हैं और परिणामस्वरूप वहाँ प्रेम समाप्त हो जाता है। जो अपनी मानी जाती है, ऐसी पत्नी के लिए भी नोंध रखी, उसी कारण से प्रेममय जीवन विषमय बन जाता है।
‘नोंध रखना गलत है' सब से पहले तो वह उसकी प्रतीति में आता है। उसके बाद वह अनुभव में आएगा, फिर आचरण में आएगा। आचरण में लाने का यह साइन्टिफिक तरीका है।
नोंध हो तो वहाँ पर मन में बैर रहता है। नोंध नहीं रखेंगे तो आधा दुःख खत्म हो जाएगा। ज्ञानीपुरुष को तो कभी भी नोंध नहीं रहती। यदि हम नोंध रखेंगे तो सामने वाला भी नोंध रखेगा ही।
प्रथम तो नोंध लेने की शुरुआत होती है। उससे मानसिक युद्ध शुरू हो जाता है, फिर वाचिक युद्ध और अंत में कायिक युद्ध तक जा सकता है इसलिए जड़ को ही उखाड़ देना चाहिए। वही उत्तम है!
मोक्ष जानेवाले को तो नोंधपोथी ही निकाल देनी पड़ेगी। जिसका नोंध लेना रुक गया, उसका संसार रुक गया।
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