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आँखों देखा भी जहाँ गलत निकलता है, ऐसे जगत् में शंका क्यों करनी?
शंका का एक ही बीज पूरा जंगल खड़ा कर देता है! शंका को तो बीजगणित की तरह खत्म कर देना चाहिए। आखिर में ज्ञानपूर्वक खुद अपने आपसे ही अलग रहकर, शंका करनेवाले को धमकाकर, लड़कर भी शंका को खत्म कर देना चाहिए।
शंका करने से तुरंत ही भोगवटा आता है और साथ में नया बीज डलता है जो अगले जन्म में भी भोगवटा लाता है!
यथार्थ प्रतिक्रमण से शंका दूर हो जाती है। शंका होने पर प्रतिक्रमण करने हैं। बेफिक्र नहीं हो जाना है। जिसने शंका की है, जो अतिक्रमण करता है, उसी से प्रतिक्रमण करवाना है।
पुरुष हो जाने के बाद अंदर से मन टेढ़ा-मेढ़ा दिखाए तो उसकी क्यों सुनें? लेपायमान भाव, वे सभी पुद्गल भाव हैं, जड़ भाव हैं, प्राकृत भाव हैं। वे आत्मभाव हैं ही नहीं। खुद अनंत शक्ति का धनी, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है? इस प्रकार शूरवीरता ही निःशंकता में परिणामित होती है!
शंका के सामने जागृति बढ़ाने की ही ज़रूरत है और जागृति रहे तभी ज्ञाता-दृष्टा रहा जा सकता है और तब फिर शंका भी निर्मूल हो जाती है।
हम पर कोई शंका करे, तो वह कोई गप्प नहीं है। इसमें अपना ही कोई दोष है। भले ही अभी का नहीं होगा तो पिछले जन्म का होगा, तभी ऐसा हो सकता है। दुनिया एक सेकन्ड के लिए भी नियम से बाहर नहीं गई है।
मिथ्याज्ञान पर सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही वहम करवा सकते हैं और जिस ज्ञान पर शंका हुई, वह ज्ञान खत्म हो जाता है। सच्चे ज्ञान पर कभी भी शंका नहीं होती।
'खुद कौन है?' खुद के नामधारी स्वरूप के लिए तो जन्मोजन्म
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