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तब तक नि:शंक रहा जा सकता हैं लेकिन क्या उससे पहले वैसा नहीं था? वह क्या रातोंरात खड़ा हो गया? नहीं। इसलिए जहाँ पर शंका हो रही हो वहाँ पर तो ऐसा समझ जाना कि यह तो पहले से ऐसा ही था। जगत् तो घोटाला ही है। आत्मा की वाइफ भी नहीं होती और बेटी भी नहीं होती। मोक्षमार्ग में प्रयाण करने के बाद जिन्हें चूकना नहीं है, उनके लिए तो आत्मा के अलावा और कहीं भी गहरे उतरने जैसा है ही नहीं।
कलियुग के प्रभाव में पति-पत्नी के बीच मॉरेलिटी टूट गई, सिन्सियारिटी टूट गई, वहाँ क्या सुख भोगना? कलियुग में वाइफ अपनी हो नहीं सकती। इसमें सिर्फ कपट और दगाखोर वृत्तियाँ ही चलती रहती हैं! तो फिर शंका रखने जैसा रहा ही कहाँ? एक पतिव्रत और एक पत्नीव्रत ही श्रेष्ठ चारित्र है, वर्ना फिर संडास ही कहलाएगा न? जहाँ सभी जाते हैं ! सिर्फ विषय का लालच ही शंका को जन्म देता है न? विषय से मुक्त हुए तो शंका से भी मुक्त हो जाएँगे। वर्ना यह जन्म तो बिगड़ेगा लेकिन अनंत जन्म बिगाड़ देगा! मोक्ष में जानेवालों को शंका का निषेध करना चाहिए।
शंका होते ही सामनेवाले से भेद पड़ जाता है। शंका के स्पंदन सामनेवाले पर पड़े बिना नहीं रहते इसलिए शंका नहीं रखनी चाहिए और शंका होने लगे तो वहाँ पर जागृत रहकर उसे उखाड़ देना चाहिए।
बेटियाँ कॉलेज में जाएँ और माँ-बाप को उनके चारित्र पर शंका हो तो क्या होगा? दुःख का ही उपार्जन होगा फिर। घर में प्रेम नहीं मिलता इसलिए बच्चे बाहरवालों के पास प्रेम ढूँढते हुए फिसल पड़ते हैं। मित्र की तरह प्रेमपूर्वक रहेंगे तो यह परिणाम टल सकता है। फिर भी बेटी का पैर यदि गलत रास्ते पर जाने लगे तो क्या उसे घर में से निकाल सकते हैं? प्रेमपूर्वक सहारा देकर नुकसान समेट ही लेना चाहिए। पहले से ही सावधानी स्वागत योग्य है लेकिन शंका तो कभी भी नहीं!
जहाँ पर शंका नहीं है, वहाँ किसी भी प्रकार के दु:ख नहीं रहते।
शंका होना उदयकर्म है लेकिन शंका रखना वह उदयकर्म नहीं है। उस शंका से तो खुद का भव ही बिगड़ता है।
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