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अनेकान्त
कैवल्यविभूति को भी प्राप्त हुआ है। चारों पुरुषार्थों मे ध्यान की रसायन बतला कर उनका भी संक्षेप में स्वरूप प्रधान पुरुषार्थ मोक्ष है और उस मोक्ष की प्राप्ति का दिखलाया गया है। उपाय है जान-श्रद्धान-चारित्ररूप रत्नत्रय । इसमे ग्रन्थकार ध्यान की सिद्धि के लिए योगी को, जिसने प्रासन ने प्रथमत: सम्यग्ज्ञान और सम्यकश्रद्धान-सम्यग्दर्शन- पर विजय प्राप्त कर ली है, अात्मस्थिति के हेतुभूत किसी का स्वरूप मात्र निर्दिष्ट करते हुए चारित्र का विस्तार से तीथस्थान अथवा अन्य किसी भी पवित्र स्थान का प्राश्रय वर्णन किया है । चारित्र के कथन मे प्रथमत. मुनिधर्म को लेना चाहिए। इसके लिए प्रकृत में पर्यक, वीर, वच, लक्ष्य करके अहिंसादि पाच व्रतों और उनकी पृथक् पृथक् कमल, भद्र, दण्ड, उत्कटिका (उत्कुटुक), गोदोहिका और भावनामों का वर्णन करते हुए पाच समितियों एव तीन कायोत्सर्ग; इन प्रासनविशेषो का निर्देश करके उनका गुप्तियो के स्वरूप का निर्देश किया गया है। पृथक पृथक् लक्षण भी दिखलाया गया है। ____ मुन जहा उपयुक्त हिमादि व्रतों का सर्वात्मना पाचवे प्रकाश में प्राणायाम की प्ररूपणा करते हुए परिपालन करते हैं वहा उस मुनिधर्म मे अनुरक्त गृहस्थ प्राणापानादि वायुभेदो के साथ पार्थिव, वारुण, वायव्य उक्त व्रतों का देशत: ही पालन करते है। इस गृहिधर्म और ग्राग्नेय नामक वायुमण्डलो तथा उनके प्रवेग-निगमन को प्ररूपणा करते हुए ग्रन्थकार ने प्रथमत: १० श्लोको मे को लक्ष्य मे रखकर उसमे मूचित फल की विस्तार से (४७-५६) यह बतलाया है कि कंसा गृहस्थ उस गृहियमं चर्चा की गई है। के परिपालन के योग्य होता है। ततश्चात् पाच अणु- छटे प्रकाश मे परपुर प्रवेश व प्रगाायाम को निरथक व्रतादिस्वरूप गृहस्थ के बारह व्रतो को सम्यक्त्वमूलक कष्ट द बतलाकर उसे मुक्ति प्राप्ति मे बाधक बतलाया बतला कर यहा उस सम्यक्त्व व उसके विषयभूत देव, है। साथ ही धमध्यान के लिए मन को इन्द्रियविषयो की गृह और धर्म का भी वर्णन करते हुए उन बारह व्रता का ओर से खीचकर उसे नाभि प्रादि विविध ध्यानस्थानो विस्तार से कथन किया गया है। यह सब वर्णन प्रारम्भ मे से जिस किसी भी स्थान में स्थापित करने की प्रेरणा के तीन प्रकाशो मे पूर्ण हुआ है।
की गई है। चतुर्थ प्रकाश में कषायजय, इन्द्रियजय, मनःशुद्धि
मातवे प्रकाश के प्रारम्भ मे कहा गया है कि ध्यान पौर राग-द्वेषजय को विधि का विवेचन करते हुए समता
के इच्छुक जीव को ध्याता, ध्येय और उसके फल को जान भाव को उद्दीप्त करने वाली बारह भावनामो का वर्णन
लेना चाहिए, क्योकि, सामग्री के बिना कभी काय सिद्ध किया गया है। साथ ही वहा यह कहा गया है कि मोक्ष
नही होते है। तदनुसार यहा ध्याता के विषय में कहा जिस कर्मक्षय से संभव है वह कर्मक्षय पात्मज्ञान से होता
गया है कि जो मयम की धुरा को धारण करके प्राणो का है, और वह मात्मज्ञान सिद्ध किया जाता है ध्यान से ।
नाश होने पर भी कभी उसे नहीं छोड़ता है, शीत-उष्ण साम्यभाव के विना ध्यान नहीं और ध्यान के विना वह
आदिकी बाधासे कभी व्यग्र नहीं होता है, क्रोधादि कपाया स्थिर साम्यभाव भी सम्भव नही है। इसीलिए दोनों
से जिसका हृदय कभी कलुपित नही होता है, जो कामपरस्पर एक दूसरे के कारण है। इस प्रकार ध्यान की
भोगो से विरक्त होकर शरीर मे भी नि.स्पृह रहता है, भूमिका बाधते हुए भागे ध्यान का स्वरूप व उसके धम्यं
तथा जो सुमेरु के गमान निश्चल रहता है, वही याता पोर शुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा धर्म्यध्यान
प्रशसनीय है। को सस्कृत करने के लिए मैत्री आदि भावनाप्रो को
ध्येय (ध्यान का विषय) के पिण्यस्थ, पदस्थ, रूपस्थ १. यो. शा. १, १८४६
और रूपातीत; इर चार भेदो का निर्देश करके पिण्डस्थ २. सागारधर्मामृत के अन्तर्गत 'न्यायोपात्तधनो यजन् मे सम्भव पार्थिवी, प्राग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्रभू
गुणगुरून-' इत्यादि श्लोक (१,११) इन इलोको इन पाच धारणामो का पृथक पृथक् विवेचन किया गया स पूर्णतया प्रभावित है।
है । साथ ही उस पिण्डस्थ ध्येय के पाश्रय मे जो योगी