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अनेकान्त
कुछ लोगो ने शिवतत्त्व, गरुडतत्त्व और कामतत्त्व को किया गया है२ (पृ० ३०७-१६) । कल्पना की है। ये तत्व परमात्मस्वरूप ही है, उससे जिसने निज के स्वरूप को नहीं समझा है वह परभिन्न नहीं है। यह प्रगट करते हुए प्रकृत ग्रन्थ मे गद्य मात्मा को नहीं जान सकता । प्रतएव यदि उस परमात्मा सन्दर्भ के द्वारा उक्त तीन तत्त्वो को उमी रूप से प्ररूपणा को जानना है तो सर्वप्रथम प्रत्मस्वरूप का निश्चय की गई है (पृ० २२१-२६)।
करना चाहिए। इसी तत्त्व को लक्ष्य में रखकर यहा अन्यत्र किन्ही ऋषियो के द्वारा यम, नियम, प्रामन,
आचार्य शुभचन्द्र ने समस्त प्राणियों में विद्यमान उस प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि; ये पाठ मात्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन अग१ तथा किन्ही के द्वारा यम-नियमके विना शेष छह ही भेदो का निर्देश करते हुए उस पात्मस्वरूप को विस्तार से ध्यान के स्थान माने गये है। उनके विषय में प्राचार्य समझाया है३ (. ३१६-३५) । शुभचन्द्र कहते है कि उक्त योग के पाठ प्रग चित्त की
खत योग के माठ प्रग चित्त की अनादि काल से पडे हुए सस्कार के कारण अन्य की प्रसन्नता के द्वारा मुक्ति के कारण हो सकते है । मो जिस ताब
तो बात क्या, किन्तु जिस योगी ने उस पात्मतत्त्व को जान ने उस चित्त को वश में कर लिया है उसके वश में सब
लिया है वह भी मोहादि के वशीभूत होकर उसमे भ्रष्ट
हो जाता है, इसीलिए यथावस्थित समस्त लोक का कुछ हो चुका है। इस प्रकार उन्होने मन के नियन्त्रण पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मन की शुद्धि से राग-द्वेषादि का
माक्षात्कार करने के लिए तथा प्रात्मविशुद्धि को प्राप्त भी निरोध हो जाता है और जहा राग-द्वेषादि का निरोध
करने के लिए निरन्तर वस्तुस्वरूप में स्थिर रहते हुए हुमा कि योगी समताभाव पर प्रारूढ़ हो जाता है।
अलक्ष्यभूत तत्त्व से लक्ष्यभूत तत्त्व का, स्थूल तत्व से
मुक्ष्म तत्त्व का पोर पालम्बन सहित तत्त्व से पालम्बन ध्यान के मामान्यतया दो भेद निर्दिष्ट किये गये है
विहीन तत्त्व का चिन्तन करना चाहिए । इस प्रकार उस दुर्ध्यान और प्रशस्त ध्यान । इनमे प्रातं और रौद्र के भेद
निरालम्बन-निर्विकल्प समाधि-की प्राप्ति के उपायभूत से दुनि दो प्रकारका है तथा धर्म और शुक्ल के भेद से. .प्रशस्त ध्यान भी दो ही प्रकारका है। अपने-अपने भेद- २ मम शक्या गुरणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन । प्रभेदोंके साथ इन चारों ध्यानों का यहा यथास्थान विस्तार
एतावानावयो दः शक्ति-व्यक्तिस्वभावतः ।। मे वर्णन किया गया है। प्रसगवश यहा प्राणायाम (पृ०
पृ. ३०६ श्लोक १० २८४-३०३), प्रत्याहार और धारणा का भी निरूपण ३. बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा से सम्बद्ध यह किया गया है।
पूग प्रकरण प्राचार्य पूज्यपाद के समाधितंत्र से प्रतिसवीर्य ध्यान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि
शय प्रभावित है-समस्त प्रकरण समाधितत्र को अपने ही विलास से उत्पन्न राग-देषादि से बद्ध होकर मैं
सामने रखकर रचा गया है। इसका निर्णय सख्या
कमसे उक्त दोनों ग्रन्थों के निम्न श्लोकों का मिलान इस दुर्गम संसार में परिभ्रमण करता रहा हूँ। आज मेरा
करने से होता हैवह रागभाव विनष्ट हुमा है तथा मोह-निद्रा भी दूर
___ ममाधितत्र-८-६, १०, १३, १८-२६, २७. २८ हुई है, इसीलिए अब मैं ध्यानरूप खड्ग के द्वारा कर्मरूप
मे ३७, ३६-५३, ६३-६६, ६७.६६, ७,७१, ७२ से शत्रु को नष्ट कर देता हूँ । सम्यग्दर्शनादि गुणो का समु
७५, ७७, ७६.८४. दाय शक्तिरूप से मुझमे है, और व्यक्तिरूप से परमेष्ठी के है, यही तो शक्ति और व्यक्तिरूप स्वभाव से दोनो मे भेद
ज्ञानार्णव (३२वा प्रकरण)-१३-१४, १५, २०,
२५-३३, ३६, ४२.५१, ५२.६६,७० (समाधितत्र के है। इत्यादि रूप से यहा प्रात्मा-परमात्मा का विचार
६३.६६ श्लोकों का भाव ज्ञानार्णव के ७२वें श्लोक १. यम-नियमासन-प्राणायाम - प्रत्याहार-धारणा-ध्यान
मे सगृहीत है), ७३-७५, ७७, ७६, ७८.८१. ८२, समाधयोऽष्टावङ्गानि । योगसूत्र २-२६.
८३.८८.