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वर्ष १४ ] पुराने साहित्यकी खोज
[२६ इस सब कथनसे गुरुदासाचार्यका विशिष्ट जान पड़ते हैं और 'छंदपिण्ड ग्रन्थ वही मालूम महत्व ख्यापित होता है और यह जान पड़ता है होता है जो इन्द्रनन्दी आचार्यकी कृति है और कि वे एक महान विद्वान् हुए हैं। उनका बनाया माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो चुका है। हुआ चूलिकासहित 'प्रायश्चित्तसमुच्चय' ग्रन्थ एक इस उल्लेखसे उसके समयादि-सम्बन्धमें अच्छा बड़ी ही श्रेष्ठ और अपूर्व रचना है। बहुत वर्ष हुए प्रकाश पड़ता है और वह उन इन्द्रनन्दी आचार्यको जब वह मुझे पहलीबार मिली थी तभी मैंने स्वयं कृति जान पड़ता है जिनका उल्लेख ज्वालामलिनीअपने हाथसे उसकी प्रतिलिपि अपने अध्ययनार्थ, कल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने अपने गुरु बप्पनन्दीके टीका परसे टिप्पणी करते हुए, उतारी थी,जो अभी दादागुरुके रूपमें किया है-अर्थात् बासवनन्दी तक मेरे संग्रहमें सुरक्षित है।
जिनके शिष्य और बप्पनन्दी प्रशिष्य थे-और वृषभनन्दीने उक्त ५वें पद्यमें गुरुदासका परि- इसलिये जिनका समय विक्रमकी हवीं शताब्दीका चय देनेके अनन्तर, 'तद्ववृपभनन्दीति' इस छठे प्रायः मध्यवर्ती होना चाहिए, क्योंकि ज्वालामालिनी पद्यके द्वारा अपनेको गुरुदासकी तरह नन्दनन्दीका कल्पकी रचना शक सं. ८६१ (वि.६६६) में हुई वत्स और श्रीनन्दीके चरणकमलका भ्रमर सचित है और नन्दनन्दा के शिष्य श्रीनन्दी, गुरुदास तथा किया है। साथही, यह भी व्यक्त किया है कि वह वृषभनन्दी ये सब हवींशताब्दीके उत्तरार्धके विद्वानहैं। स्वल्पश्र त होते हुए भी दोनों गुरुओंको भक्तिपूर्वक अब मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता नमस्कार करके उनके उपदेशको प्रकाशित करने में हूँ कि मूल में ग्रन्थकी श्लोकसंख्या यद्यपि ६०० बतप्रवृत्त हुआ है, और प्रशस्ति पद्य ३६,) में यह प्रकट लाई है परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रतिमें वह ७०० से ऊपर किया है कि वह श्रीकोंडकुदीय जोतार्थको सम्यक पाई जाती हैं, और इससे ऐसा मालूम होता है कि प्रकार अवधारण करके 'जीतसाराम्बुपायी' ( जीत- ग्रन्थ-प्रतिमें कुछ पद्य बाहरसे शामिल होरहे हैं। साररूप अमृतका पान करनेवाला ) बना है। इससे अनेक स्थानों पर 'उक्त च' रूपसे कुछ प्राकृत-गाथासाफ मालूम होता है कि वृपभनन्दीको श्रीकोंड- ए तथा संस्कृतक पद्य दिए हुए हैं। और उन पर कुन्दाचार्यकी उस मंजूषास्थित अतीव शीर्ण-क्षीर्ण- क्रमांक डाले गए हैं। साथ ही, ऐसे भी कुछ पद्य हो पुस्तिकासे प्रायश्चित्त-विषयक ग्रन्थों के अध्ययनादिकी सकते हैं जिन पर उक्त च' न लिखा गया हो और खास ग्रेरणा मिली है और इस ग्रन्थमें श्रीकोण्ड- वे वैसे ही लेखकोंकी कृपासे ग्रन्थ में प्रविष्ट हो गए कुन्दाचार्यके प्रायश्चित्त-विपयको प्रमुखतासे अप- हों। ऐसे सब पद्योंकी ठीक जांच विशेष अध्ययन नाया गया है। दूसरे जिन ग्रन्थादिका आधार इस तथा दूसरी ग्रन्थ-प्रतियोंके सामने होनेसे सम्बन्ध ग्रन्थमें लिया गया है उनके नामकी सचना निम्नः रखती है। इसके लिए दूसरी ग्रन्थ-प्रतियांकी खोज प्रकारसे की गई हैं :
होनी चाहिये। द्वात्रिंशदद्वितयाचारे चाप्टोतयां प्रकीर्णके,
हाँ, ग्रन्थ-प्रतिके २८वें पत्रसे चलकर ३१वें छेदपिंडे यदुक च तत्किंचिन्मात्रमुच्यते ॥६॥ पत्रकी दूसरी पंक्ति तक 'हेमनाभ नामका एक जीतादिभ्यः समुच्चिन्य सारं सूरिमतादपि
प्रकरण भी इस प्रतिमें, द्वितीय चलिकाकी समाप्तित्रयोदशाधिकारोक्त जीतसारसमुच्चयं ॥१०॥ के अनन्तर, पाया जाता है, जिसमें संज्ञिव्रतोंके अति
इस रचनामें १ द्वात्रिंशद्वितयाचार २ अष्टोत्तरी चारोंकी शुद्धिका विषय है और उसका पूर्व सम्बन्ध ३ प्रकीर्णक, ४ छेदपिण्ड और ५ जीत नामक ग्रन्थों- 'हेमनाभ' (नाभैयऋषभदेव) से जोड़ कर-दोनों का उल्लेख तो स्पष्ट है, शेपमेंसे कुछको 'आदि' के प्रश्नोत्तर-वाक्योंको साथमें देते हुए यह कहा शब्दके द्वारा ग्रहण किया गया है और साथही अपने गया है कि भरतचक्रीने प्रश्नका जो उत्तर अपने
आचार्यके मतको भी समाविष्ट करनेकी बात कही पिता (हेमनाभ)से सुना वही उत्तर श्रेणिकने 'वीर' गई है। सूचित ग्रन्थों में पहले दो नाम अश्र तपूर्व भगवानके मुखसे सुना और उसीको गौतम (गणधर)