________________
वर्ष १४ परिण १
पुराने साहित्यकी खोज
[२७ जहर हुई है, जिसे गणधरकीर्ति आचार्यने प्रायः प्राकृत ही दे दिया है। साथ ही, कहीं-कहीं षट्म्खंडागमके भाषामें लिखा है और जिसका उल्लेख अभयचन्द्राचार्यकी सूत्र तथा कसायपाहुडके चूर्णिसूत्र भी दिये हए हैं और सस्कृर-टीकामें मिल रहा था । प्राकृटीकाका कोई उल्लेख कितने ही स्थलों पर समन्तभद्रके नामोल्लेखके साथ उनके भी अभी तक कहींस दबनेको नहीं मिल रहा था। गत ग्रन्थोंकी अनेक कारिकाए भी 'उक'च' रूपमें उद्धत सितम्बर मासमें अजमेर के उस बड़े भट्टारकीय भंडारसे की गई है। श्रादि अन्तके भाग त्रुटित होनेसे प्रयत्न करने तीन संस्कृत टिप्पणादिक अतिरिक्त एक प्राकृतटीका भी उप- पर भी टीकाकारका नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। लब्ध हुई है, यह बड़े हर्षकी बात है। यह टीका दोनों कांडों
इस प्राकृत टीकामें कहीं कहीं कोई वाक्य संस्कृतमें भी पर लिखी गई है, परन्तु उपलब्ध प्रतिका श्रादि और अन्तिम
पाये जाते हैं, जैसा कि धवलादिक-टीकाओं तथा इस ग्रन्थकी भाग खंडित होनेसे एक भी काण्डकी टीका पूरी नहीं है।
हा ह। पंजिकामें भी उपलब्ध होते हैं। इस टीकाके दो एक स्थलोंप्रारम्भके १.१ पत्र न होनसे जीवकांडकी टीका १ से १८०
का पजिकाके साथ मिलान करनेसे ऐसा मालूम होता है कि गाथायों तककी नहीं है शेष ५८१ (एयदवियम्मि०) से
पंजिकाकारक सामने यह टीका रही है, इसांस इसके कुछ ७३३ (अज्जज्जसण०) तक गाथाओंकी टीका उपलब्ध है।
वाक्योंका पंजिका अनुसरण पाया जाता है। पजिकाका रचनाऔर अन्तके १०-१२ पत्र न होनेसे कर्मकांडके अन्तिम भाग
काल शक मं० १०१६ (वि० सं० ११५१) है और (गाथा ११४ १९७२ तक) की टीका त्रुटित हो रही है।
इससे यह टीका उससे कोई ५० ६० वर्ष पूर्वकी होनी चाहिये। इस प्रतिमें कर्मकांडका प्रारम्भ पत्र नं. १२४ से होता है
ऐमी प्राचीन महन्यकी टीकाका इस प्रकारसे म्वडित होना और १६५वे पत्र तक एक रूपमें चला गया है। उसके बाद
बड़े ही दुर्भाग्यकी बात है। अतः इस टीकाकी दुसरे पत्र संख्या एकसे प्रारम्भ होकर १०१ तक चली है । हाशिये भंडारों में शीघ्र खोज होनी चाहिये और अजमेरके उक्त पर कहीं भी ग्रन्थका नाम नहीं दिया है और इमामे पत्रों
शास्त्रभडारको भी पूरी तौरसे टटोला जाना चाहिएका क्रम गड़बडमें होरहा था, जिसे परिश्रम-पूर्वक ठीक किया
खासकर उन खण्डित पत्रोंकी पूरी छानबीन होनी चाहिये गया है। और इस तरह ग्रंथकी पत्रसंग्ख्या २७५ के लगभग जान
जो अपने-अपने यूथसे बिछड़कर कृडे-कचरेक ढेर रूप पड़ती है। प्रतिपत्र ४० श्लोकोंके औसतसे ग्रंथकी कुल
बस्तोंमें बँधे पड़े हैं और बेकारीका जीवन बिता रहे हैं। संख्या ११००० श्लोकके करीब होनी चाहिये, जबकि
ऐमा होने पर दूसरे भी अनेक खंडिन अन्योंके पूर्ण हो जानेकी उक्त पंजिकाकी श्लोकसंख्या ५००० ही है । अस्तु।
पूरी सम्भावना है । इसके लिये अजमेरके भाइयोंको शीघ्र अथकी स्थितिको देखते हुए यह मालूम नहीं होता कि
ही प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करके वे अनेक ग्रन्थोंके आदि-अंतके पत्र यों ही टूट-टाट कर नष्ट भ्रष्ट होगये हों। बल्कि
उद्दारका श्रेय प्राप्त करेंगे। ऐसा जान पड़ता है कि वे पत्र कहीं बाहर चले गये, किमीअन्य प्रथके साथ बँध गये, रल मिल गये और या खंडित पड़े
५. वृषभनन्दीका जीतसारसमुच्चय हुए पत्रों में शामिल होगये हैं। ऐसे खंडित पत्र हजारोंकी गत सितम्बर अक्तूबर माममें सवा महीना संख्यामें वैप्टनोंमें बँधे हुए उक्त भंडारमें पड़े हुए हैं। यदि अजमेर ठहरकर साहित्यिक अनुमन्धानका जो कार्य उन खंडित पत्रोंकी छानबीन की जाये तो बहुत संभव है किया गया है और उसमें जिन अनेक अश्रुतपूर्व प्राचीन कि उक्त प्रतिके वटित अंशकी पूर्ति होजाय ।।
प्रन्थोंकी नई उपलब्धि हुई है उनमें वृपभनन्दीका ___इस प्राकृत-टीकावाली प्रतिमें उपलब्ध गोम्मटसारकी 'जीतसार-समुच्चय' भी एक खास ग्रन्थ है । ग्रन्थ कुछ गाथाए नहीं है, कुछ नवीन है और कुछ भिन्न क्रमको संस्कृत भापामें निबद्ध है, मुनियों तथा श्रावकांके लिए हुए आगे पीछे पाई जाती हैं।
अथवा चतुःसंघके प्रायश्चित्त-विपयसे सम्बन्ध टीकाकारने कुछ गाथानों पर तो विस्तृत-टीका लिखी रखता है लमें 'प्रमाणं पट शतानि' वाक्यके है, कुछ पर बिलकुल ही नहीं लिखी है उन्हें 'सुगम' द्वारा इसकी श्लोकसंख्या ६०. बतज्ञाई है । ग्रंथकह कर छोड़ दिया है । टीकामें कहीं कहीं मृल माथाओं को प्रति अति जीणे है, भुवनकाति-द्वारा लगभग ४.. पूरा लिखा है और कहीं कहीं गाथाके प्रारम्भिक चरणको वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है श्रीर इसकी पत्र संख्या