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२६ ] अनेकान्त
[ वर्ष १४ में मुझे एक दृसरी गाथा इसी विषयकी और मिली है। मूलसंघके मुख्य भेद चार हैं-१ नंदि, २देव, ३सेन और उममें भी समन्तभद्रको भावी तीर्थंकरोंमें परिगणित किया ४ सिंह । नंदिसंघमें 'सरस्वती' और 'पारिजात' नामके दो है। वह गाया इस प्रकार है
गच्छ रहे हैं और गणका नाम 'बलात्कार' है । इस गणमें अट्टहरी तह पडिहरि चउकी पमंजरणो सेणी। नंदि, चन्द्र, कीर्ति और भूषण नामके अथवा नामान्त मुनि हलिणो समन्तमझो होइसी भन्यं (?) तित्थयरा॥ जन हुए हैं। देवसंघमें 'पुस्तक' गच्छ और 'देशी' गण रहे
यह गाथा साहित्यिक भेदको छोड़कर पूर्वगाथाके साथ हैं और इस गणमें होने वाले मुनि देव, दत्त, नाग और दो खास भेदांको लिय हए हैं। इसमें प्रथम तो नौ प्रतिहरिके तुग नामक या नामान्त हुए हैं। सेनसंघके गच्छका नाम स्थान पर 'सह' पदके द्वारा पाठ प्रतिहरियोंकी सूचना की गई 'पुष्कर' और गणका नाम 'सूरस्थ' है और इस गणमें सेन
भद्र, राज और धीर नामधारी या नामान्त मुनि हुए हैं। पुरुषकी भी नई सूचना की गई है। प्रस्तु, इस नई उपलब्ध
सिंहगंधके 'चन्द्रकपाट' गच्छमें 'कारपूर' नामका एक गण गाथास भी समन्तभद्रक भावी तीर्थकरत्वका समर्थन होता है हुश्रा है, जिसमें सिंह, कुम्भ, प्रास्त्रव और सागर नामके या और ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन समयमें इस विषयकी नामान्त मुनि हुए हैं। अनेक गाथाएँ रही हैं, उन्हीं परस संस्कृ ादिक ग्रन्यों में इस प्रमाणरूपसे उद्धन की हई गाथायों में प्रत्येक सघमें विषयको चर्चित किया गया है। यह गाथा जिस गुटकमें मिली होनेवाले चार-चार प्रकारके नामोंका तो उल्लेख है परन्तु है वह वि० सं० १६७२ का लिखा हुआ है।
गण गच्छक नामोंका साथमें कोई उल्लेख नहीं है, और ३. मूलसंवके भेद
इससे रोमा जान पड़ता है कि चारों शाखा-मघों में अजमेरक भट्टारकीय प्राचीन शास्त्र भण्डारकी दान बीन गण गच्छाका कल्पना बादका हुइ ह । अस्तु, उक्त दाना करते समय गत वर्ष एक अतीव जीर्ण-शीर्ण पुराना गुटका गाथाएँ अन्यत्र कहींसे उपलब्ध नहीं है, वे प्रमाणवाक्यके मिला है, जिसमें मूलसंधक भेदोंका निम्न प्रकारसे उल्लेख अनुपार स्वामी समन्तभद्के शिप्य शिवकोटि प्राचार्यकी होनेसे
बहुत प्रचीन-विक्रमकी दूसरी शताब्दीकी-होनी चाहिये । "श्रीमलमंघम्य भेदाः ॥ नदिएंघे सरस्वतीगच्छे बला- प्रमाणवाक्यका थानाम अश(स
प्रमाणवाक्यका अन्तिम अंश(मुच्यत)गद्यपि कुछ अशुद्ध होरहा कारगणं नामानि ४ नंदि १ चन्द्र २ कीर्ति ३ भृपण ।
है फिर भी उनके पूर्ववर्ती श्रशसे यह मा. सूचना मिलती है तथा नंदिसंधे पारिजानगच्छो द्वितीयः॥छ॥ देवमंघे पुस्तकगच्छे
कि उन दोनों गाथाएँ 'वोधिदुर्लभ' प्रकरणकी है और दसीगण नाम ४ दंग । दत्त २ नाग ३ तुग ॥छ॥ सनसंधे
शिवकोटिक द्वारा प्राकृत-भाषामें इस नामका कोई प्रकरण पुष्करगाछे सूरथगणे नाम ४ सन १ भद्र राज ३ वीर॥४ ।
लिखा गया है हो सकता है कि अणुपेक्षा (अनुप्रता)छ॥ सिहासंघे कपाटगच्छे कारगुरगणे नाम १ सिह जसे उनके किसी अन्य विशेषका वह एक प्रकरण हो। कुभ २ पाश्रव ३ सागर ॥॥"
कुछ भी हो, इस उल्लेखसे स्वामी समन्तभद्रके शिष्य शिव उन गद्य के पश्चात् दो गाथाएँ भी प्रमाणरूपमें दी हैं, कोटि द्वारा एक अज्ञात अथके लिखे जानेका पना ज़रूर चलता जो इस प्रकार है :--
है और वह भी प्राकन-मापा । शास्त्र-भण्डारोंमें 'गंदी चंदा वित्ती भूमणरणहि दिसंघास ।
न मालम किननी ऐसी महन्धकी सूचनाएँ दबी-छुपी पडी हैं । सेणो रज्जो वीरो भदो तह सेगसंघस्त । १॥
साहित्यका प्रामाणिक इतिहास तय्यार करनेके लिए सारे सिंघा हंगी पासव सायरणमा हु सिंहसंघाल।
उपलब्ध साहिल्गकी परी छान-बीन होनी चाहिये। देवो दत्तो जागो तुंगो तह देवरांघम्स ।।२।।"
४. गोम्मटसारकी प्राकृत-टीका और इन दोनों गावाबोके अनन्तर इनके प्रमाण स्थान- 'गोम्मटसार' जैन समाजका एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ है, जो की सूचनारूपमें निम्न वाक्य दिया है:
जीवकांड और कर्मकांडके भेदसे दो भागोंमें विभक्त है। “इति श्रीसमन्तभद्दम्बामिशिष्यशिवकाव्याचार्यविरचित इन दोनों भागों पर संस्कृतादि-भाषानोंके अनेक टीका टि पण योधिभन्दमुच्यने ।”
पाये जाते हैं। परन्तु प्राकृतकी कोई टीका अभी तक उपलब्ध इस सब उल्लेम्बक द्वारा यह सूचित किया गया है कि नहीं थी। हां, कुछ समय पहले एक पंजिकाकी उपलब्धि