Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 18
________________ भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप-रेंगने वाले जीव आदि सभी की भाषा में परिणत हो जाती है; उनके लिए हितकर, कल्याणकर तथा सुखकर होती है। आचारांगचूर्णि में भी इसी आशय का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि स्त्री, बालक, वृद्ध, अनपढ-सभी पर कृपा कर सब प्राणियों के प्रति समदर्शी महापुरूषों ने अर्द्धमागधी भाषा में सिद्धान्तों का उपदेश किया। _अर्द्धमागधी प्राकृत का एक भेद है। दशवैकालिक वृत्ति में भगवान् के उपदेश का प्राकृत में होने का उल्लेख करते हुए पूर्वोक्त जैसा ही भाव व्यक्त किया गया है "चारित्र की कामना करने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख-अनपढ़-सभी लोगों पर अनुग्रह करने के लिाये तत्वद्रष्टाओं ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की।"२ अर्द्धमागधी __ भगवान महावीर का युग एक ऐसा समय था जब धार्मिक जगत् में अनेक प्रकार के आग्रह बद्धमूल थे। उनमें भाषा का आग्रह भी एक था। संस्कृत धर्म निरूपण की भाषा मानी जाती थी। संस्कृत का जन-साधारण में प्रचलन नही था। सामान्य जन उसे समझ नहीं सकते थे। साधारण समय बोलचाल में प्राकृतों का प्रचलन था। देश भेद से उनके कई प्रकार थे, जिनमें मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची तथा महाराष्ट्री प्रमुख थी। पूर्व भारत में अर्द्धमागधी और मागधी तथा पश्चिम में शौरसेनी का प्रचलन था। उत्तर पश्चिम पैशाची का क्षेत्र था। मध्य देश में महाराष्ट्री का प्रयोग हाता था। शौरसेनी और मागधी के बीच के क्षेत्र में अर्द्धमागधी का प्रचलन था। यों अद्धमागधी, मागधी और शौरसेनी क बीच की भाषा सिद्ध होती है। अर्थात् इसका कुछ रूप मागधी जैसा और कुछ शौरसेनी जैसा है, अर्द्धमागधी ऐसा नाम पड़ने में सम्भवतः यही कारण रहा हो। मागधी के तीन मुख्य लक्षण है। वहाँ श, ष, स-तीनों के लिए केवल तालव्य श का प्रयोग होता है । र के स्थान पर ल आता है। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन में ए विभक्ति का उपयोग होता है। अर्द्धमागधी में इन तीन में लगभग आधे लक्षण मिलते हैं। तालव्य श का वहाँ बिलकुल प्रयोग नहीं होता। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन मेंए का प्रयोग अधिकांश होता है। र के स्थान पर ल का प्रयोग कहीं-कहीं होता है। अर्द्धमागधी की विभक्ति-रचना में एक विशेषता और है, वहाँ सप्तमी विभक्ति में ए और म्मि के साथ-साथ अंसि प्रत्यय का भी प्रयोग होता है जैसे-नयरे नयरम्मि, नयरंसि। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव सुहयभासत्ताए परिणमइ। -समवायांगसूत्र ३४. २२. २३ । २. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम्। अनुग्रहार्थ तत्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥ -दशवैकालिक वृत्ति पृष्ठ २२३ । [१५]

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