Book Title: Samvegrati
Author(s): Prashamrativijay, Kamleshkumar Jain
Publisher: Kashi Hindu Vishwavidyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंवेगरतिः श्री रचना तपागच्छाधिराजपूज्यपादाचार्यवर्य श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वराणां शिष्यः मुनिः प्रशमरतिविजयः सम्पादकी डॉ० कमलेशकुमार जैन बनारस प्रो० हिन्दी अनुवाद कुसुम पटोडिया नागपुर प्रकाशक Kashi Hindu University Banaaras 221005 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम रचना प्रकाशक आवृत्ति मूल्य O बनारस पूना अहमदाबाद अक्षरांकन श्रीसंवेगरतिः : मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 40 : : : रु.२५०-०० : प्रथमा Kashi Hindu University 2009 : प्राप्तिस्थान डॉ० कमलेशकुमार जैन जैन-बौद्धदर्शन विभाग संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी : प्रवचन प्रकाशन २२१००५ फोन : ०५४२-२३०७४०८ ४८८, रविवार पेठ, पूना - ४११००२ फोन : ०२०-६६२०८३४३, मो. ९८९००५५३१० Email : pravachanprakashan@gmail.com website: www.pravachanprakashan.org O सरस्वती पुस्तक भंडार हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद - ३८०००१ फोन : २५३५६६९२ विरति ग्राफिक्स, अहमदाबाद फोन : ०७९-२२६८४०३२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भारतीय वाङ्मय अत्यन्त विशाल है। इसमें सरस्वती के आराधको ने अनेक ग्रन्थरत्नो का समावेश कर माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध किया है। इसके अन्तर्गत जैन वाङ्मय भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं विशाल है । तीर्थङ्कर भगवान् महावीरस्वामी की दिव्यध्वनि के आधार पर उनके प्रथम गणधर श्रीगौतमस्वामी ने द्वादशानी का सृजन किया था, जिसके आलोक में आज भी जीवमात्र को सुख-शान्ति की प्राप्ति हो रही है। पुनः द्वादशाङ्गी को आधार बनाकर अनेक परम्पराचार्यो एवं अन्य प्रबुद्ध आचार्यो-मुनिओं ने परवर्तीकाल में विभिन्न ग्रन्थों का सृजन किया है, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप हैं । साहित्यसृजन की यह परम्परा अद्यापि ईसा की इक्कीसवीं सदी में विद्यमान है, फलस्वरूप अन्य अनेक आचार्यो-सन्तो के साथ ही पूज्य मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी महाराज साहेब भी निरन्तर काव्यरचना में संलग्न हैं। पूज्य मुनिश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं गुजराती आदि विविध भारतीय भाषाओं के तलस्पर्शी विशिष्ट अध्येता हैं । संस्कृत भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार है और छन्दोरचना में उनकी गति अबाध है, फलस्वरूप उन्होंने संस्कृत भाषा में अनेक रचनाएँ प्रस्तुत कर माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध किया है । सम्प्रति मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी महाराज ने श्रीसंवेगरति नामक संस्कृत काव्य की संरचना करके जहाँ उन्होंने अपने अगाध वैदुष्य का परिचय दिया है, वहीं उन्होंने जब सामान्यजन के लिए यह निर्देश दिया है की जीव पापपुण्यरूप अपने कर्मों के फल कि प्राप्ति अवश्य करता है । अतः प्रत्येक जीव को पापरूप कर्मो से निवृत्त होकर पुण्यरूप कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए तथा अन्त में पाप और पुण्यरूप कर्मों से भी निवृत्त होकर शाश्वत सुख के धाम मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये । श्रीसंवेगरति नामक प्रस्तुत काव्य में अनेक सूक्तियों किंवा नीतिवाक्यो का भी समावेश किया गया है, जिससे काव्य की गहराई और बढ़ गई है। प्रस्तुत श्रीसंवेगरति नामक संस्कृत काव्य के सम्पादन का कार्य सम्पन्न कर मैं अत्यन्त Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। इस कार्य के लिए पूज्य मुनिश्री ने मुझे अवसर प्रदान किया उसके लिए में उनका हृदय से आभारी हूँ। ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद श्रीमती डॉ० कुसुमलता पटोरिया (नागपुर) ने किया है अतः इस पुनीत कार्य को सम्पन्न करने हेतु उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ। पूज्य मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी महाराज के प्रस्तुत ग्रन्थ श्रीसंवेगरति का प्रकाशन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अन्तर्गत संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय के जैन-बौद्ध दर्शन विभाग द्वारा किया जा रहा है । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग पूज्य मुनिश्री के भक्तजन का रहा है। अतः मैं उन सभी लोगों के प्रति हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोग रहा है। निर्वाण भवन - डॉ० कमलेशकुमार जैन बी २/२४९, लेन नं. १४, आचार्य एवं अध्यक्ष रवीन्द्रपुरी, वाराणसी जैन बौद्ध-दर्शन विभाग महावीरजयन्ती काशी हिन्दू विश्वविद्यालय चैत्र सुद १३ वाराणसी वि. सं. २०६५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन संवेग, वैराग्य, प्रशमादि सम्यग्दृष्टि के लक्षण हैं । इनमें संवेग संसारभीरूता है। संवेग में रति के लिए संसार का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है। आत्मा का कर्म से संयोग ही संसार । शेष इसी का विस्तार है । विचारों से कर्म तथा कर्म से विचार उत्पन्न होते I दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। जैन दर्शन के ग्रन्थों में इसे द्रव्यकर्म और भावकर्म कहा गया है । मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी इसके लिए क्रमशः कर्म और संस्कार शब्द का प्रयोग करते हैं दर्शनशास्त्र का ज्वलन्त प्रश्न है कि जड़ और चेतन का परस्पर संयोग कैसे होता है और यह संयोग किस प्रकार कहा ? इसका उत्तर जैनों ने द्रव्यकर्म और भावकर्म के रूप में निमित्त कारणतावाद कर उपस्थित किया है । इस सुन्दर ग्रन्थ की विषयवस्तु भी यही है, अतः ग्रन्थ पर विचार करने के पूर्व इस प्रश्न का विचार समीचीन है। T पाश्चात्य दर्शन में इस सम्बन्ध को मनोदेह सम्बन्ध के रूप में देखा गया है, क्योंकि उनके अनुसार चेतना का सम्बन्ध मन से है और अचेतन का सम्बन्ध शरीर से है । वहाँ मन और देह के सम्बन्ध में जो विचारधाराएँ प्रचलित हैं उनमें मुख्य हैं अन्त क्रियावाद और समानान्तरवाद । अन्तक्रियावाद के अनुसार शरीर और मन परस्पर शक्ति का विनिमय करते हुए एक दूसरे में रूपान्तरित होते रहते हैं । समानान्तरवाद के अनुसार दोनों सर्वथा स्वतन्त्र तत्त्व हैं । दोनों समानान्तर प्रक्रिया करते हैं, परन्तु परस्पर प्रतिक्रिया नहीं करते । अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर निर्भर भी नहीं है। साथ ही दोनों इतने सम्बद्ध भी है कि एक दूसरे के बिना नहीं रहते । इसप्रकार अन्तक्रियावाद दोनों के परस्पर रूपान्तर को स्वीकार करता है, परन्तु परस्पर रूपान्तर से दोनों पृथक् तत्त्व नहीं कहे जा सकते क्योंकि वस्तु का वस्तुत्व तभी तक है, जब तक उसके गुणधर्म निरन्तर परिणमित होकर भी उसके नित्य धर्म रहें, दूसरे के गुणधर्म न हों । अन्यथा वस्तुएँ भिन्न नहीं रहती । समानान्तरवाद में दोनों का कोई भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है । वस्तुतः ये दोनों ही इस समस्या का कोई उत्तर नहीं देते कि मन और शरीर संयुक्त कैसे होते हैं ? दूसरे प्रश्न सम्बन्ध के स्वरूप के विषय में उत्तर देने की कोशिश करते हैं जो पहले प्रश्न के उत्तर के बिना सम्भव नहीं है । मानव ही नहीं, ५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी समनस्क प्राणियों की प्रत्येक क्रिया मन और देह की संयुक्त क्रिया है । भारतीय दर्शनों के अनुसार मन या अन्तःकरण जड़ है, अतः यहाँ चेतन और अचेतन के सम्बन्ध का विचार आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का विचार है। यहाँ भी चार्वाक और अद्वैत वेदान्त एक ही तत्त्व मानते हैं, अतः यह प्रश्न उनसे भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रखता । चार्वाक के अनुसार चेतना अचेतना का ही एक विशिष्ट आगन्तुक गुण है। अद्वैत वेदान्त चेतन पर अचेतन का आरोप मानता है। मूल में एक ही तत्त्व हो और जगत में अनुभूयमान चेतन और अचेतन के विकार हों तो मूल तत्त्व चेतन हो या अचेतन कोई तात्त्विक अन्तर नहीं पड़ता । अद्वैत पर यह भी प्रश्न है यदि केवल चेतन का अस्तित्व है, तो वह अचेतन के रूप में अपने विरोधी की सर्जना क्यों व किस प्रकार करता है ? विद्वान दार्शनिकों के अनुसार विश्व के निर्माण का एक मूल तत्त्व मान लेने पर अनेक सामंजस्य निर्मित होते हैं। चेतन और अवचेतन में से किसी को भ्रम नहीं कहा जा सकता । साथ ही द्वैत के बिना अद्वैत तक नहीं पहुँचा जा सकता । अस्तु, चेतन और अचेतन के सम्बन्ध की व्याख्या का दायित्व द्वैतवादी दर्शनों पर है। इनमें न्यायवैशेषिक चेतना को आत्मा का इन्द्रियादि के संयोग से उत्पन्न आगन्तुक गुण ही मानते हैं, जो मुक्तावस्था में नष्ट हो जाता है । अतः चार्वाक से इनका अन्तर मात्र यही है कि वे चेतना का आधार आत्मा नामक एक अभौतिक तत्त्व मानते हैं। द्वैतवादी सांख्य के अनुसार निष्क्रिय चेतन पुरुष और सक्रिय अचेतन प्रकृति दोनों पूर्णतया स्वतन्त्र और भिन्न द्रव्य है । इन दोनों का संयोग अन्धपंगुवत् है । पुरुष निष्क्रिय सचेतन होने से पंगु, प्रकृति सक्रिय अचेतन होने से अन्धी है। दोनों को सप्रयोजन संयोग की अपेक्षा है । परन्तु पुरुष की पूर्ण निष्क्रियता से अनेक कठिनाईयाँ उपस्थित हुई है। पूर्ण निष्क्रियता अनस्तित्व की तरह हो जाती है। अतः यहाँ भी दोनों के सम्बन्ध का कोई समीचीन उत्तर नहीं मिलता ।। जैनदर्शन द्वैतवादी और अनेकान्तवादी दर्शन है । इसका केन्द्रीय सिद्धान्त है कि वस्तुओं में ही विविधता नहीं है, अपितु प्रत्येक वस्तु में भी धर्मों का वैविध्य है । यह वैविध्य विरोधी धर्मों के साथ विद्यमान है । संसार के षड़ द्रव्यों में भिन्नता के साथ कदाचित् अभिन्नता है । सभी लोकाकाश में स्थित होने से परस्पर सम्बन्ध भी है । पूर्ण विरोध या पूर्ण भेद तभी सम्भव है, जब एक वस्तु अस्तित्ववान हो और दूसरी अस्तित्वहीन हो । अस्तित्वहीन कोई वस्तु नहीं होती । जैनों की अनेकान्त दृष्टि ने सम्बन्ध की समस्या का उचित समाधान दिया है कि सम्बन्ध न तो सर्वथा अभिन्न वस्तुओं में सम्भव है और न सर्वथा भिन्न वस्तु में । सम्बन्ध के लिए भेदाभेद दोनों आवश्यक है। इस अनेकान्त दृष्टि से ही जैन, आत्मा और पुद्गल की Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्रिया में सहयोग को स्वीकार करते हैं। जैनों के अनुसार मन दो प्रकार है । एक द्रव्यमन जो भौतिक है । दूसरा भावमन या चित्त जो चेतन की पर्याय (अवस्था) है । द्रव्यमन ज्ञानात्मक मन (चित्त) का सहयोगी होता है । उसके बिना भावमन अपना कार्य नहीं कर सकता। दोनों के योग से मानसिक क्रियाएँ होती है । द्रव्यमन का कार्य, स्नायुमण्डल, मस्तिष्क व चिन्तन योग्य पुद्गलो की सहायता से होता है । भावमन या चित्त चेतना से सक्रिय होता है । चित्त ज्ञाता है, मन उसका उपकारी है । द्रव्यमन और भावमन परस्पर उपकारी है । द्रव्यमन, भावमन या चित्त के परिणमन में निमित्त बनता है, किन्तु चित्त का परिणमन अपनी ही पर्यायों में होता है । चेतना की सुख, दुःख, राग-द्वेष आदि पर्याय अचेतन शरीरपर्याय के निमित्त से विकसित होते हैं । इस प्रकार द्रव्यमन और भावमन में गहन सम्बन्ध । इस मन के द्वारा ही जड़चेतन के मध्य सम्बन्ध होता है । जैन दर्शन का जड़चेतन के संयोग का सिद्धान्त निमित्तकारणतावाद है । यह निमित्तकारणतावाद न तो अन्तर्क्रियावाद है और समानान्तरवाद है । निमित्तकारणतावाद के अनुसार जीव और अजीव द्रव्य अपने अपने में परिणमन करते हैं। एक दूसरे में परिणमन नहीं करते । चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता । दो स्वतन्त्र द्रव्यों का उनके असाधारण धर्मों के साथ एक दूसरे में परिणमन (रूपान्तरण) सम्भव नहीं है । निमित्तकारणतावाद के अनुसार दोनों द्रव्य अपना पृथक् वैशिष्ट्य सुरक्षित रखते हुए एक दूसरे के कार्य में सहायता करते हैं । कारण दो प्रकार के हैं। एक निमित्तकारण । दूसरा उपादान कारण । स्वयं कार्यरूप में परिणत होने वाला उपादान कारण होता है, उसमें सहायता देनेवाला निमित्तकारण होता है । प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायधारा में प्रवहमान रहकर सदृश या विसदृश परिणाम धारण करता है । निमित्त के अनुसार उपादान में परिवर्तन होता है । वह द्रव्य अपने ही पर्यायों में बदलता है । एक चेतन दूसरे चेतन में या अचेतन में नहीं बदलता है । इतनी स्पष्ट और असंदिग्ध स्थिति होने पर पुद्गलों का जीव पर और पुद्गल का एवं संसारी जीवों का परस्पर प्रभाव डालने वाला निमित्त - नैमेत्तिक सम्बन्ध भी है । जीव जब रागादि द्वेषादि भाव में परिणमन करता है, तो उन भावकर्मों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मभाव से परिणत होता है। जीव के रागादि परिणमन में भी ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म निमित्त होते हैं । इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म होता है । जो पुद्गल परमाणु आत्मा से सम्बद्ध होते हैं, वे द्रव्यकर्म हैं । उन द्रव्यकर्मों के कारण आत्मा में जो रागादि मनोविकार होते हैं वे भावकर्म हैं । द्रव्यकर्म भावकर्म के कारण है । भावकर्म पुनः नवीन द्रव्यकर्म के कारण होते हैं । I आत्मा और कर्म में तादात्म्य नहीं हो सकता । संयोग सम्बन्ध हो सकता है । कर्म ७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल चेतना में या चेतना कर्मपुद्गलों में कोई परिवर्तन नहीं करती । संयोगकृत परिवर्तन अवश्य दोनों में होता है। उपादान में परकृत कोई परिवर्तन नहीं होता । कर्म के निमित्त से आत्मा मूर्त रूप में व्यवहार करने लगता है क्योंकि संसारी जीव किसी न किसी शरीर से बद्ध रहता है। सम्बन्ध कर्मपिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में स्थित रहता है । वस्तुतः द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों में ही जड़चेतन दोनों तत्त्वों का मिश्रण रहता है । भावकर्म में चेतन तत्त्व की और द्रव्यकर्म में पुद्गल तत्त्व की प्रधानता है । द्रव्यकर्म भावकर्म का शारीरिक आकार है। यह भावकर्म का संवादी कार्य करता है। भावकर्म और द्रव्यकर्म में पूर्णतया संवादिता, सहयोग व संतुलन है। जीव के सूक्ष्म भावों का ज्ञान जड़कर्म को कैसे हो सकता है और ज्ञान हुए बिना वे पुण्यपाप रूप कैसे परिणमित हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भावों में ऐसी शक्ति है कि उनका निमित्त पाकर ही पुद्गल अनेक अवस्थाएँ धारण करता है। जैनों का यह निमित्तकारणवाद परस्पर रूपान्तरण न होने से अन्तक्रियावाद नहीं है। सर्वथा अप्रभावित न होने से समान्तरवाद भी नहीं है। दोनों इतने संपृक्त हैं कि एक दूसरे के उपकार को ग्रहण करते हैं । वस्तु के अनेकान्त स्वरूप के अनुसार ही यह निमित्तकारणतावाद आत्मा और शरीर दोनों को भिन्न मानते हुए भी इतना भिन्न नहीं मानता कि वे एक दूसरे से सर्वथा अप्रभावित रह सकें। श्रीसंवेगरति ग्रन्थ में भी त्रिविधयोग में मनोयोग की चर्चा ही मुख्य है क्योंकि कर्मबन्ध का सम्बन्ध मुख्यतः मनोयोग से ही है, वचनयोग और काययोग उनकी ही प्रतिक्रिया है। मनुष्य के व्यवहार का उत्तर कर्मसिद्धान्त में है और कर्मसिद्धान्त का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है। मन की निर्मलता ही मुक्ति है । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी म० ने कषायमुक्ति को ही मुक्ति कहा है। श्रीसंवेगरति ग्रन्थ लगभग चार सौ अनुष्टुप् छन्दों में रचित वा पाँच प्रस्तावों में विभक्त है। प्रथम प्रस्ताव में संसार के कारण भूत मनोयोग का एवं मनोयोग की संस्कारों की अधीनता का उल्लेख है। इससे बचने का उपाय धर्म है। धर्म वही है, जो कर्मबन्ध को शिथिल करते हुए उसे सर्वथा नष्ट करता है। यह भी धर्म की एक उत्तम परिभाषा है । इसके लिए पहले अशुभ से शुभ की ओर प्रयास करना चाहिए । मन को शुभ की ओर सन्मुख करने के लिए उसकी धर्मसंस्कारों के द्वारा सुरक्षा करनी चाहिए । मनोयोग ही संस्कार है। मन का निमित्तों के अधीन होना दु:ख का कारण है । संस्कारों को जितने से कर्म की निर्जरा होती है । कर्मोदय की शरणागति के कारण मनुष्य शक्तिहीन हो रहा है । अपनी इस शक्तिहीनता को धर्म से दूर करनी चाहिए । दूसरे प्रस्ताव में दु:ख के तीन नियम (स्तर या सोपान) बताए हैं। प्रतिक्षण निमित्तों Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उपस्थिति, जीव का निमित्तों से अभिभूत होना (भाव्यमानता) और जीव का प्रतिभाव और प्रतिक्रिया देना । सुन्दर वस्तु का सामने आना निमित्त है। चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा उसका अनुभव करते हुए उनमें अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन करना भाव्यमानता है । भाव्यमानता के अनुसार उठने वाली विचारतरंगे प्रतिभाव हैं । वाणी और शरीर की क्रिया प्रतिक्रिया है । प्रतिभाव मानसिक क्रिया होने से अव्यक्त है। प्रतिक्रिया वाणी और शरीर द्वारा अभिव्यक्त है। इन तीनों में भाव्यमानता मुख्य है । भाव्यमानता से प्रतिभाव अर्थात् संस्कार उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होकर संस्कार इसी भाव्यमानता को पुष्ट करते हैं । इस भाव्यमानता की ही सफल चिकित्सा करनी है। तीसरे प्रस्ताव में दु:ख के तीन सोपानों में से भाव्यमानता का विवेचन किया गया है। भाव्यमानता का लक्षण भी त्रिविध स्वरूपवाला है । विषयों का ग्रहण, उनमें स्वाभिप्राय की योजना और अर्थघटन। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है । मोहनीय कर्म से अनुकूलता-प्रतिकूलता के भाव उत्पन्न होते हैं। यह स्वाभिप्राय की योजना है। नवीन भोगों की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा और उनके भोगादि की चिन्ता के भाव अर्थघटन चतुर्थ प्रस्ताव में प्रतिभावों की चर्चा है। तीन कारणों से अशुभ प्रतिभाव उत्पन्न होते हैं। कर्म के उदय से, पूर्वसंस्कार से और बूरे निमित्तों से । इसके विपरीत कर्म की मन्दता, उत्तम प्रयत्न और अच्छे निमित्तों से प्रतिभाव शुभ होते हैं । स्वाध्याय, सदाचार और सत्संग से भावशुद्धि सम्भव है। धर्मसंस्कार के निर्माण में प्रयत्नशील होना चाहिए । अच्छे कार्य करने की इच्छा, अपनी शक्ति का परीक्षण, कार्य करने का निर्णय, कार्य करने में हर्ष ओर कार्य की सतत स्मृति ये प्रत्येक करणीय कार्य के पाँच सोपान है। अपनी शक्ति से सम्बन्धित ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की शुभ क्रिया सदाचार है। जिनबिम्ब की पूजा, कल्याणको से पवित्र तीर्थों की यात्रा, पापशमनकारी श्रमणों की आज्ञा का पालन व विनयादि सदाचार है। धार्मिकों की संगति सत्संगति है। पाँचवें प्रस्ताव में सुख और दुःख को मुख्यतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न बताया है । आत्मा की परवशता का उल्लेख कर बताया है कि कर्मों को समभाव से सहन करके ही उन पर विजय पाई जा सकती है । वस्तुतः कर्म तथाकथित ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान नहीं है। मन को शक्तिशाली बनाकर दुःखों को आर्त-रौद्र परिणाम के बिना सहन करने से कर्मों पर विजय मीलता है। तीर्थंकर आदि के उपसर्गों का चिन्तन करना चाहिए । आत्मा का शुद्धस्वरूप स्वभाव अथवा मोक्ष है । कर्मजनित सांसारिक स्थिति विभाव है। मुनिराज प्रशमरतिविजयजी महाराज ने प्रतिभाव शब्द का नया प्रयोग किया है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त से प्रभावित होने पर जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे प्रतिभाव है। जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, उसी प्रकार भाव से प्रतिभाव उत्पन्न होते हैं । भावों के सदृश विसदृश अन्यान्य भावों की उत्पत्ति प्रतिभाव है । उन भावों से उत्पन्न शरीर और वाणी का व्यापार प्रतिक्रिया है । मनोयोग प्रतिभाव, वचनयोग व काययोग प्रतिक्रिया है । इसी प्रकार एक अन्य शब्द है भाव्यमानता। इसे मुनिश्री ने प्रतिभाव उत्पत्ति की पूर्व अवस्था कहा है। निमित्तो का संग होने पर आत्मा का उसमें भावित होना भाव्यमानता है। भावित या वासित शब्द का प्रयोग दर्शनशास्त्र और साहित्यशास्त्र दोनों में है । किसी दूसरी वस्तु की गन्ध से किसी वस्तु का गन्धयुक्त होना वासित या भावित अवस्था है। उदाहरणार्थ उनकी चमेली के पुष्पों में रखा हुआ वस्त्र या कमलों में रखा हुआ चांवल क्रमशः सुगन्ध से व्याप्त हो जाता है । उसी प्रकार आत्मा का भी निमित्तों के संग से भावित होना भाव्यमानता है । निमित्त के उपस्थित होने पर, मुझे आनन्द हुआ या मुझ पर अनिष्ट आ पड़ा इस प्रकार विचार भाव्यमानता है। उसके पश्चात् मनमें उठनेवाली विचार तरंगे प्रतिभाव है। 1 ग्रन्थ में अनेक सुभाषित भी है । जैसे कि जीवन में किसी कार्य की सफलता के लिए आवश्यक तीन सोपान है। प्रथम इष्ट कार्य की मन में कल्पना करे दो, इस कार्य की आत्मविश्वास के साथ स्पष्ट योजना बनाए। तीन अपनी क्षमता के अनुसार प्रयत्न करे । यह प्रयत्न सतत होना चाहिए । वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में रचित अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त और मनोविज्ञान का त्रिवेणी संगम है । उसकी रचना अध्यात्मपथ के पथिक मुनि द्वारा हुई है। इसलिये इसकी प्रभविष्णुता और बढ़ जाती है। १० प्रॉ. कुसुम पटोडिया MA, Phd, Dit. नागपुर विश्वविद्यालय नागपुर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगतम् तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबंधे देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रंथसंदर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ श्री योगबिन्दु शास्त्र में संवेग शब्द की यह व्याख्या की गई है। सुदेव, सुगुरु, सुधर्म में समर्पित राग को संवेग कहते है। तत्त्वार्थभाष्य अनुसार 'संवेगो नाम संसारभीरुत्वं, आरंभपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिः, धर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च ।' संसार से डर लगे, दोषबहुल आरंभपरिग्रह में आकर्षण न रहे, धर्म और धर्मी के प्रति आदर बहुमान की भावना हो यह संवेग के लक्षण है। संवेग एक मनोदशा है । धर्म की अनुभूति का प्रधान आलम्बन, सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के पाँच लक्षण है । शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और अनुकम्पा । पाँचो लक्षण प्रसिद्ध है। दूसरा लक्षण संवेग - इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है। अप्रशस्त आलम्बन को अप्रशस्त मानकर उनका परिहार करने की भावना रखना और अप्रशस्त आलम्बन के अप्रशस्य प्रभाव का परिमार्जन करने के लिये जागृत होना यह संवेग है। प्रशस्त आलम्बन को प्रशस्त मानकर उनका स्वीकार एवं आदर करने की भावना को Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेग कहते है। प्रशस्त आलम्बन के प्रशस्य प्रभाव को जीवन्त रखने की भावना को भी संवेग कहते हैं। श्री संवेगरति ग्रन्थ में इस विषय को अनेक आयाम से सोचने का प्रयत्न किया है। आत्मा का मूल स्वभाव निर्लेप अवस्था है । आज आत्मा संस्कार और कर्मो से अवलिप्त है। आत्मवर्ती संस्कार एवं कर्म का संसारवर्ती निमित्तो के द्वारा सञ्चनल और संक्षोभ होता है। जब तक संचलन है, संसारवर्ती निमित्त प्रभावी रहते है। संचलन होना क्या है और संचलन मीटाने के लिये क्या करना चाहिए इस विषय पर हमारे धर्मशास्त्र से जो भी मार्गदर्शन मीलता है उसका यहाँ संकलन किया है । भाव्यमानता, प्रतिभाव, प्रतिक्रिया, अर्थघटन जैसे कुछ शब्द मनोविज्ञान आधारित है । मेरे पितामुनिभगवन्त पूज्यश्री संवेगरतिविजयजी म. के नाम से यह ग्रन्थ निर्मित हुआ है। आपके उपकार अनन्त है। आपको इस ग्रन्थ का समर्पण करने का लाभ मीला यह मेरा सौभाग्य है। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी - प्रशमरतिविजय वि० सं० २०६५ अमरावती Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिभद्रमहाकाव्यम् : कुछ प्रतिभाव (1) તમારામાં કાવ્યશક્તિ ઘણી છે. તમોએ માણિભદ્રજીના ઇતિહાસને ગ્રંથમાં ગૂંથીને ઉત્તમ કાર્ય કર્યું છે. ભવિષ્યમાં તે અતિશય ઉપયોગી બની રહેશે. આચાર્ય શ્રી શાંતિસૂરિજી મહારાજાએ ચૈત્યવંદનમહાભાષ્યમાં કહ્યું છે કે ‘સૂરિપરંપરાથી ચાલી આવેલો અર્થ જ્યાં સુધી શાસ્ત્રમાં ગૂંથવામાં ન આવે ત્યાં સુધી મંદબુદ્ધિવાળા જીવો તે અર્થને ગ્રહણ કરવા કે બીજાને આપવા માટે સમર્થ બનતા નથી. (૨૫૭)” આ કથનાનુસાર ભવિષ્યના મંદબુદ્ધિ જીવોને આ ગ્રંથ ઉપકારક બની રહેશે એમ નિઃશંકપણે કહી શકાય. જો તમે પોતે આ ગ્રંથ ઉપર સંસ્કૃતટીકાની રચના કરો તો સોનામાં સુગંધ ભળે. મારું જે અપેક્ષિત છે તે આ ગ્રંથમાં હશે જ એવી શ્રદ્ધા સાથે જોવાનો પ્રયત્ન કર્યો તો નવમા સર્ગમાં ૩૬ વગેરે શ્લોકમાં મળી આવ્યું તેથી આનંદ થયો. વિજય રાજશેખરસૂરિ (2) સંસ્કૃતમાં પઠનપાઠન, સંસ્કૃતમાં પાછું કાવ્યસર્જન, કાવ્યસર્જનના વિષય તરીકે પુનઃ માણિભદ્ર યક્ષરાજના વ્યક્તિત્વની પસંદગી. આ બધું એક એકથી વધુ અઘરું ગણાય. અઘરાની આરાધનાને સરળ-સહજ સાધનામાં ફેરવી નાંખવાની સિદ્ધિનું - માણિભદ્ર મહાકાવ્ય-ના માધ્યમે દર્શન થતાં અત્યાનંદ અનુભવ્યો. સાહિત્યસૃષ્ટિમાં આ કૃતિ માણિભદ્ર યક્ષરાજ આધારિત સર્વપ્રથમ સંસ્કૃત કાવ્ય તરીકે સ્થાન પામ્યા વિના નહિ જ રહે તેવો વિશ્વાસ છે. પૂર્ણચન્દ્રસૂરિ (3) આવું નવલું નજરાણું સકલ શ્રી સંઘનાં ચરણે ધરવા બદલ તમને અંતરનાં અભિનંદન છે. રત્નસુંદરસૂરિ (4) તમારી પ્રતિભા અદૂભુત છે. મને આ રચના બહુ જ સારી લાગી છે. તમે ખૂબ આગળ વધશો. સોમસુંદરસૂરિ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) રચનાનું કામ ખૂબ જ સુંદર અને આદરણીય બન્યું છે. પ્રસંગ સારા ઉપસાવ્યા છે. શ્રીમાણિભદ્રયક્ષરાજનાં પૂર્વજીવનનો અને તત્કાલીન શ્રમણસંઘની વિકટ પરિસ્થિતિનો ચિતાર રોમાંચક છે. અલંકારોની ઝમક પણ સારી છે. ઘણી ઉજળી બાબતો આ કાવ્યમાં છે. દા.ત. અંતમાં સૂરિજીએ શ્રીમાણિભદ્રજીને આપેલી શીખામણોના શ્લોકો સારા અને માર્મિક છે. સાથે, થોડાક સૂચનો જણાવ્યા છે તે ધ્યાનમાં લેશો. એક સારી સ્વોપજ્ઞ ટીકા બને તે વધુ ઇચ્છનીય છે. વિજયકીર્તિયશસૂરિ (6) તમારા દ્વારા રચાયેલ રમ્ય પદાવલિમય, કાવ્યગુણોથી અલંકૃત અને અધિષ્ઠાયક દેવના વાસ્તવિક જીવનઇતિહાસને નિરૂપતું ‘શ્રીમાણિભદ્રમહાકાવ્યમ્' વાંચ્યું. આ યુગમાં પણ પૂર્વ સૂરિઓની કાવ્યશૈલીને અનુસરતાં નવ્ય સર્જનો કરનાર મુનિવરો મળે એ કલ્પનાય રોમહર્ષક છે, જ્યારે તમે તો એને વાસ્તવિકતામાં રૂપાંતરિત કરી બતાવી છે. ખૂબ ખૂબ ધન્યવાદ અને ખૂબ ખૂબ અનુમોદના. તમારી આ સર્જનસફર અણઅટકી બનીને નવાં નવાં શિખરો સર કરે એ જ હાર્દિક કામના. સૂર્યોદયસૂરિ રાજરત્નસૂરિ (7) મનઃ પ્રસન્નતામેતિ. સુંદર મધુર પ્રાંજલ રચના. કલ્પનાસૌન્દર્ય મનોહારિ. વિષયપસંદગી નૂતના. પંડિતવર્યશ્રી રજનીભાઈ હોત તો અવશ્ય આનંદિત થાત. આવા નવાં કાવ્યો જિનશાસનને આપતાં જ રહેજો. આ. યશોવર્મસૂરિ પં. અજિતયશવિજય (8) प्राप्तं माणिभद्रमहाकाव्यम् । कर्णमणिकुण्डलतुल्यम् । नवनवभणितिपुरस्सरम् । संप्रीतोऽस्मि भवतामभिनवप्रयासेन । छन्दोबद्धकाव्यरचनातो गद्यकाव्ये भवतां गतिर्नवनवोन्मेषशालिनी अपूर्वरसमालिनी भविष्यति इति मे मतिः । गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति । महाकाव्यानि बहूनि सन्ति । गद्यकाव्यमल्पतरम् । भवतां गद्यमत्यन्तं मधुरमाकर्षकं च भविष्यतीति मे विश्वासः । शिवराजविजयतोऽपि सुंदरतमं गद्यं ददातु भवानिति मे प्रार्थनाः । छन्दोबद्धकाव्यानि विरचय्य गद्ये यशोऽर्जनं कुरू । नवलकथां लिख । धुरन्धरविजय १५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) પ્રાચીન શૈલીમાં નૂતન મહાકાવ્ય આજે રચવું - એ એક આહ્વાન છે. તમે એ શૈલી સહજપણે નિભાવી છે. ટીકાના બદલે સરળ સુગમ અનુવાદ આપ્યો એ નિર્ણય પણ પ્રશસ્ય છે. સંસ્કૃત સર્જકોની શ્રેણીમાં તમે સ્વગુણોપાર્જીત સ્થાન મેળવી શક્યા છો. અનુમોદના અને સ્વાગત. (10) તમારી કાવ્યનિર્માણશક્તિને લક્ષશઃ સલામ. પ્રભુનો અનુગ્રહ, સદ્ગુરુભગવંતોની કૃપા, પુણ્યની સહાય આવા કાર્યમાં મદદગાર બને છે તે હકીકત છે. તમારા હાથે આવાં સર્જનો થયા જ કરે તેવી મહેચ્છા. પં. હર્ષતિલકવિજય ઉપાધ્યાય ભુવનચંદ્રજી (11) આઠ પ્રભાવકોમાં જે કવિ નામના આઠમા પ્રભાવક છે તે પ્રભાવક પદને દીપાવવાનું પુણ્ય આપે મેળવ્યું છે. સા. જ્યોતિપ્રભાશ્રીજી (12) काव्य की भाषा और भावाभिव्यक्ति, लालित्यपूर्ण - निर्दोष और सुन्दर है । पाठको के मन में भावोद्रेक जगानेवाली है। अलंकारयोजना भी उत्तम है। इस युग में संस्कृतभाषा में ऐसी रचनाए निश्चय पूर्वकाल का स्मरण करा देती है। और यह विश्वास जगाती है कि आज भी भवभूति, कालिदास आदि के समान श्रेष्ठ कवि इस भूतल पर जीवित है । सागरमल जैन १६ M Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम् श्रीसंवेगरतिप्रबोधनकरः श्रीरामचन्द्रप्रभुः श्रीसंवेगरतिप्रभावनपटुः श्रीरामचन्द्रप्रभुः I श्रीसंवेगरतिस्त्रगस्तु करयोः श्रीरामचन्द्रप्रभोः श्रीसंवेगरतेः पितुश्च सततं मच्चेतनाऽध्यासिनः ॥ १७ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकारस्मृति + + + + + तपागच्छाधिराज पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा सुविशालगच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यभगवन्त श्रीमद्विजयमहोदयसूरीश्वरजी महाराजा + परम श्रद्धेय गच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यभगवन्त श्रीमद्विजयहेमभूषणसूरीश्वरजी महाराजा परम गीतार्थ पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयकीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा अनन्त उपकारी पितागुरुभगवन्त पू० मुनिराज श्रीसंवेगरतिविजयजी महाराज + प्रबुद्ध प्रवचनकार बन्धुमुनिभगवन्त पू० मुनिराज श्रीवैराग्यरतिविजयजी महाराज + पण्डितवर्य श्रीरजनीकान्तभाई परीख ग्रन्थानुवाद एवं भाषाशुद्धिविमर्श से सहयोगी बने श्रीमती कुसुमजी पटोडिया । १८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमः प्रथमः प्रस्तावः २-२५ २६-४१ श्लोक-६९ श्लोक-४६ श्लोक-१०३ श्लोक-७७ श्लोक-७२ ४२-७७ द्वितीयः प्रस्तावः तृतीयः प्रस्तावः प्रस्तावः चतुर्थः पञ्चमः प्रस्तावः प्रशस्तिः श्लोकानामकारादिक्रमसूचिः ७८-१०३ १०४-१२७ श्लोक-१० १२८-१३१ १३२-१३७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ प्रथमः प्रस्तावः आत्मनः कर्मणा योगः संसारो वास्तवो मतः । एतद्योगविनाशाय धर्मो दिष्टो जिनेश्वरैः ॥१॥ आत्माऽयं वर्ततेऽनादिः कर्मयोगोऽप्यनादिमान् । आत्माऽनन्तो कर्मयोगेऽनन्तता वाऽपि सान्तता ॥२॥ अधर्मापन्नवृत्तीनां कर्मयोगो निरन्तकः । सान्तस्तु कर्मसंयोगो धर्मसंपन्नचेतसाम् ॥३॥ कर्मयोगो दृढो येन तमधर्मं प्रचक्षते । कर्मयोगः श्लथो येन तं सद्धर्मं जगुर्जिनाः ॥४॥ कर्मणामुदयावस्था संसार: सांप्रतो मतः । कर्मणामात्मनि-स्थत्वं तस्याः कारणमुच्यते ॥५॥ आत्मना बध्यमानत्वं कर्मणां चास्य कारणम् । तद्बन्धस्यावरोधाय मुख्यो धर्मो विधीयते ॥६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रस्ताव आत्मा का कर्म के साथ योग ही वास्तविक संसार कहा गया है। तीर्थंकरों ने इस योग के विनाश के लिए धर्म का उपदेश दिया है। (१) यह आत्मा अनादि है । इसका कर्म से योग भी अनादिकाल से है, किन्तु आत्मा अनन्त है । कर्म से इसका योग अनन्त भी हो सकता है, और सांत भी हो सकता है। (२) जिनकी मनोवृत्तियाँ या चित्त के परिणाम अधर्म से ग्रस्त है, उन आत्माओं का कर्म से संयोग अनन्त रहता है, और जिनका चित्त धर्म से सम्पन्न अर्थात् धर्मयुक्त हैं, उनका कर्म से संयोग सांत है। (३) T जिससे आत्मा का कर्म से योग दृढ़ हो, उसे अधर्म कहते हैं । जिससे कर्म का योग शिथिल हो, उसे जिनेन्द्र देवों ने सच्चा धर्म कहा है । (४) कर्मों की उदयावस्था वर्तमानकालीन संसार है । इस उदयावस्था का कारण आत्मा में कर्मों का विद्यमान होना है। (५) कर्मों का आत्मा से बन्धना ही कर्मों की आत्मा में स्थिति का कारण है। मुख्यतया उस बन्ध को रोकने के लिए धर्म का उपदेश दिया गया है । (६) प्रथम प्रस्ताव ३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पूर्वबद्धापहारोऽपि धर्मस्यास्ति प्रयोजनम् । नैर्बल्यं बध्यमानानां कर्मणां धर्मतो भवेत् ॥७॥ कर्मणामनुबन्धाख्यां पारम्पर्यविधायिनीम् । शक्तिं च धर्मसातत्यात् करोति शिथिलां कृती ॥८॥ काययोगो वचोयोगः कर्मणा योऽपि जायते । तत्र धर्मप्रभावेण शुभत्वस्थापना भवेत् ॥९॥ केवलं यो मनोयोगस्तीव्रकर्मवशंवदः । तत्र सद्धर्मसंस्कारैः कर्तव्या प्रतिपालना ॥१०॥ श्रीसंवेगरतिग्रन्थः शुद्धभावविधायकः । मनोयोगामलीकार - कारणं तन्निरुच्यते ॥११॥ विचाराणामसंख्याना-मुत्थानं मोहनीयतः । निर्विवेकं यथाच्छन्दं भवेत् संसारवर्धकम् ॥१२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले से बन्धे हुए कर्मों को नष्ट करना भी धर्म का प्रयोजन है। धर्म से ही वर्तमान समय में बन्धने वाले कर्म भी निर्बल हो जाते हैं । (७) कर्म की अनुबन्ध नामक शक्ति है, जिसके कारण कर्मों की परम्परा (निरन्तरता) बनी रहती है । उस शक्ति को कृतार्थ व्यक्ति धर्म के सतत अनुपालन से शिथिल करता रहता है । (८) कर्मों के कारण काययोग, वचोयोग और मनोयोग बनते है । इनमें से धर्म के प्रभाव से काययोग और वचनयोग शुभ की ओर सन्मुख हो जाते हैं। (९) शेष जो मनोयोग है, वह तीव्र कर्मों से प्रभावित होता है । उस मनोयोग को उत्तम धर्म के संस्कारों के द्वारा वश में करना चाहिए । (१०) यह श्रीसंवेगरति नामक ग्रन्थ शुद्ध भावों का प्रतिपादक है । यहाँ मनोयोग को निर्मल करने के कारण बताए गए हैं । (११) मोहनीय कर्म के कारण असंख्य विचार मन में उठते रहते हैं । विचारों की यह विवेकरहित व स्वच्छन्द उड़ान संसार को बढ़ाने में कारण साबित होती है । (१२) प्रथम प्रस्ताव Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारैः कर्मणां बन्धो बर्द्धस्तैश्च विचारणा । अन्योऽन्याश्रयसम्बन्धा-देवं भूयो भवभ्रमः ॥१३॥ अपूर्वकरणादाद्या-दात्माऽयं कर्मबाधिकाम् । उत्तमां भावनां चित्ते धारयत्यात्मशोधिकाम् ॥१४॥ रागद्वेषौ कथं मे स्तः तदारम्भः कुतोऽभवत् । ततोऽनर्थाः कियन्तः स्युः तन्नाशश्च कथं भवेत् ? ॥१५॥ रागद्वेषवशीभूताऽवस्था किं सौख्यकारणम् । अथवा तद्विसर्गेण वास्तवस्स्यात्सुखोद्गम: ? ॥१६॥ रागद्वेषस्वरूपोऽहं ताभ्यां भिन्नोऽस्मि वा किमु । दुःखानामागमस्सर्वो मय्ययं किन्निबन्धनः ? ॥१७॥ तद्भिन्नोऽस्मि ततः किं तौ लग्नौ मां भूतचारिणौ । नूनं रागादितोऽन्योऽस्ति कश्चिन् मार्गः सुखावहः ॥१८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये विचार (मानसिक संकल्पनाएँ) कर्म के बन्ध का कारण होते हैं। बन्धे हुए कर्म इन विचारों को जन्म देते हैं। इन दोनों के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध के कारण ही संसारचक्र चलता रहता है । अन्योन्याश्रय सम्बन्ध का अर्थ है दोनों एक दूसरे के प्रति कारण हैं। विचारों से कर्म का बन्ध होता है और पूर्वबद्ध कर्मों से विचार उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार यह दुष्टचक्र चलता रहता है । (१३) अपूर्वकरण से यह आत्मा कर्म को नष्ट करने वाली, आत्मा का शोधन करने वाली उत्तम भावना को चित्त में धारण करने लगता है । (१४) राग-द्वेष मुझे क्यों होते हैं ? उनका आरम्भ कहाँ से हुआ है ? उनसे कितने अनर्थ होते हैं ? उनका नाश कैसे सम्भव है ? (१५) क्या राग-द्वेष के वशीभूत हुई वर्तमान अवस्था मेरे सुख का कारण है या फिर इनको त्यागने से ही वास्तविक सुख का उदय होगा ? (१६) क्या मैं राग-द्वेष स्वरूप हूँ अथवा उनसे भिन्न हूँ? मेरे उपर इन समस्त दुःखों का आगमन किस कारण है ? (१७) यदि मैं उनसे भिन्न हूँ, तो वे रागद्वेष भूत की तरह मेरे पीछे क्यों लगे हुए हैं ? क्या राग द्वेष आदि से भिन्न कोई सुख देने वाला मार्ग है ? (१८) प्रथम प्रस्ताव Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यहं तमवाप्नोमि तन्मे जन्मकृतार्थता । तन्मार्गस्यावबोधाय जागर्तु पात्रता मयि ॥१९॥ रोगे रोगत्वधीर्यद्वद् भवेद् भैषज्यकारणम् । एवं दोषत्वधीर्दोषे तन्निवारणकारणम् ॥२०॥ मिथ्यात्वमोहनीयजो विचारश्चारुचित्तजः । लभ्यते विशदानन्दो येन सद्भाग्यवानसौ ॥२१॥ कर्मानुवर्तितो जीव-परिणामो विसंगतः । धर्मानुवर्तिताज्जीव-परिणामाद्धि बाध्यते ॥२२॥ तत्कर्मोदयवैफल्य-साधनं तत्त्वचिन्तनम् । यथा येन च कर्तव्यं तथा तेन प्रदर्श्यते ॥२३॥ क्षायोपशमिको धर्मा-भ्यासजन्यो निरन्तरः । क्रियानिष्ठो विचारस्स्याद् दोषहृद् गुणनिर्मितिः ॥२४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मैं उसे प्राप्त कर लेता हूँ, तो मेरा जन्म कृतार्थ हो जाएगा । उस मार्ग को जान लेने की योग्यता मुझ में जागृत हो । (१९) रोग को रोग समझ लेने पर जैसे उसके निवारण के लिए उपचार हो सकता है, उसी प्रकार इन रागद्वेष रूपी दोषों को दोष मान लेने पर उनके निवारण का प्रयत्न सम्भव है । (२०) (मोहनीय कर्म के मिथ्यात्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय दो भेद हैं उनमें प्रथम मूल) मिथ्यात्व मोहनीय का नाशक सद्विचार, चित्त में ही उत्पन्न होता है, जिस विचार से ही सौभाग्यशाली प्राणी निर्मल आनन्द को प्राप्त करता है । (२१) जीव के परिणाम कर्म के अनुवर्ती होने से विसंगत बनते हैं, अर्थात् विभाव होते हैं। इन विभावों का नाश धर्म के अनुवर्ती भावों से होता है । (२२) तत्त्वों का अनवरत चिन्तन, उदय में आते हुए कर्मों को विफल कर देने का एकमात्र साधन है । चिन्तन जिसप्रकार करना चाहिए, उसे प्रतिपादित करते हैं । (२३) सद्विचार, निरन्तर धर्म के अभ्यास से उत्पन्न होता है, आचरण में अवतरित होता है, मोहनीय के क्षयोपशम से निर्मित होता है, दोषों का नाश करता है और गुणों को उत्पन्न करता है । (२४) प्रथम प्रस्ताव Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्राबल्यनाशाय यदा यच्चिन्तयेन्मनः । स्वभूमिकानुसारेण सद्विचार: स कीर्तितः ॥२५॥ मिथ्यात्वे यद्यपि सम्यग्-विचाराणां न हेतुता । मन्दत्वनिष्ठहेतुत्वा-वच्छिन्ने न विरुध्यते ॥२६॥ अकषायवशित्वेन विषयासक्तिमान्द्यतः । अज्ञानोपरमात् कार्यं मनोयोगप्रवर्तनम् ॥२७॥ दु:खं द्वेषश्च चित्तस्य प्रवाहद्वयमुद्धतम् । आर्तं रौद्रं च तद्ध्यानं ध्रुवं जीवविडम्बनम् ॥२८॥ अनिच्छाविषयं स्वास्थ्य-हारकं द्वेषकारकम् । दुःखमेव हि संसार-मूलं मोहनिबन्धनम् ॥२९॥ दुःखं चित्तस्य वैक्लव्यं दुःखं चित्तस्य भग्नता । दःखं चित्तस्य विद्धत्वं दुःखं चित्तस्य बाधनम् ॥३०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की प्रबलता का नाश करने के लिए मन अपनी भूमिका के अनुसार जिस समय जो सोचता है, वह सद्विचार कहा गया है । (२५) यद्यपि मिथ्यात्व की उपस्थिति में सम्यक् विचार नही आ सकते, लेकिन मिथ्यात्व अगर मंद है तो सम्यक् विचार आ सकते हैं । (२६) कषाय के वशीभूत मत बनो, विषयों की आसक्ति को कम कर दो तथा अज्ञान को दूर करो । इस तरह मनोयोग में प्रवर्तित होना चाहिए । (२७) दु:ख और द्वेष ये दोनों चित्त के उद्धत प्रवाह है । दुःख से आर्त तथा द्वेष से रौद्र ध्यान होता है । निश्चित ही ये दोनों ध्यान प्राणी के कष्टों का कारण होते हैं । (२८) दुःख को कोई नहीं चाहता । दुःख इच्छा का विषय नहीं है । दुःख स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला है । (शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य दुःख से नष्ट होते हैं) दुःख द्वेष का कारण है । इसप्रकार मोहनीय कर्म के बन्ध का प्रधान निमित्त दुःख है। दुःख संसार का मूल कारण है। (२९) चित्त की व्याकुलता दुःख है । चित्त का तूटना दुःख है । चित्त की चुभन दुःख है । दुःख चित्त का नाशक है । (३०) प्रथम प्रस्ताव Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अपेक्षाभंगतो दुःखं दुःखं चाशाविनाशनात् । लाभस्याभावतो दुःखं दुःखं लब्धस्य हानित: ॥३१॥ दुःखं कार्येषु नैष्फल्यं दुःखं चाक्षमता कृतौ । कार्याणां यशसश्चौर्ये दुःखं दुःखं च दुर्यशः ॥३२॥ परेण वंचनाद् दुःखं दुःखं स्पर्धापराभवः । स्वमानहानतो दुःखं दुःखं केनापि तर्जनाद् ॥३३॥ रोगस्योत्पादनाद् दुःखं दुःखं देहबलक्षयात् । क्षुत्तृषाऽपूरणाद् दुःखं दुःखं श्रान्तिर्निरन्तरम् ॥३४॥ दुःखं परैः कृतोपेक्षा दुःखं दैन्यं दरिद्रता । पारतंत्र्यं परं दुःखं दुःखं क्लेशः परस्परम् ॥३५॥ दुःखमात्मीयलोकानां वियोगः शठता क्षयः । दुःखं च प्रत्यनीकानां प्रशंसाऽभ्युदयः सुखम् ॥३६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा के भंग से दुःख होता है। आशा नष्ट हो जाने से दुःख होता है। लाभ न होने से दुःख होता है । प्राप्त की हानि से दुःख होता है । (३१) कार्यों में असफलता से दुःख होता है । कार्य को करने की असमर्थता से दुःख होता है । कार्य करने पर भी यश न मिलने से दु:ख होता है । अपकीर्ति (बदनामी) से दुःख होता है । (३२) दूसरों के द्वारा वंचना होने से दुःख होता है । प्रतियोगिता में हार जाने पर दुःख होता है। अपनी मानहानि होने पर दुःख होता है। किसी की डांट फटकार से दुःख होता है । (३३) रोग होने से दुःख होता है। शरीर की शक्ति के क्षीण हो जाने से दुःख होता है। भूख-प्यास के शमन न होने से दुःख होता है । निरन्तर थकान दुःख है । (३४) दूसरों के द्वारा की गई उपेक्षा दुःख है। दीनता और दरिद्रता दुःख है। परतन्त्रता परम दुःख है । आपस की लडाई दुःख है । (३५) अपनों का वियोग, अपनो की दुष्टता और अपनों का नाश दुःख है । शत्रुओं की प्रशंसा, उनकी उन्नति और उनका सुख भी दुःख है । (३६) प्रथम प्रस्ताव Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखमात्मन्यविश्वासो दुःखं विश्वासभंजनम् । दुःखं हि याचनाभंगो दुःखं दाने तिरस्क्रिया ॥३७॥ असुरक्षितता दुःखं दु:खं चैकाकिता भवे । दुःखमादरवैधुर्यं दुःखं दुर्व्यवहारतः ॥३८॥ असंख्येयप्रकारेण विचित्रं दु:खगह्वरम् । जीवं विभ्रामयत्येव साक्षाद् दुर्दैवलक्षणम् ॥३९॥ दःखैरभ्यागतैश्चित्तं बाध्यते कंटकैरिव । असह्या किल तज्जन्या सदाऽन्तर्दूयमानता ॥४०॥ दुःखानां कारणं मूलं कर्मणोऽस्तित्वमात्मनि । तेषां संपूर्णनाशेन दुःखनाशः कृतो भवेत् ॥४१॥ कदा ह्यनादिसन्तानः कर्मसंघो विनंक्ष्यति । भविष्यति कदा पूर्णो दुःखनाशः सनातनः ॥४२॥ OM श्रीसंवेगरतिः Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं में विश्वास की कमी दुःख है। विश्वास का तूटना दुःख है । याचना करने पर न मिलना और दान पाते समय तिरस्कार होना दोनों दुःख हैं । (३७) असुरक्षा का भाव दुःख है । संसार में अकेलापन दुःख है । अनादर दुःख है। दुर्व्यवहार से दु:ख होता है । (३८) इस प्रकार अगणनीय प्रकारक दुःख विचित्र होता है । साक्षात्, दुर्भाग्यस्वरूप यह दुःख जीव को संसार में घुमाता रहता है । (३९) असह्य हर हाए दुःख चिनको काटक आए हुए दुःख चित्तको काँटो की तरह विद्ध करते है। उन से उत्पन्न अन्त:पीड़ा असह्य होती है । (४०) कर्म का आत्मा में रहना यह दुःखों का मूल कारण है । कर्म के सम्पूर्ण नाश से ही दुःखनाश सम्भव है । (४१) अनादि से चला आया यह कर्मसमूह कब नष्ट होगा ? कब यह चिरंतन दुःखों का पूर्ण नाश होगा ? (४२) प्रथम प्रस्ताव Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतद् विज्ञायते काले कलौ कैवल्यवर्जिते । ततो दःखागमे कार्य प्राधान्याच्चित्तरक्षणम् ॥४३॥ युग्मम् चितेनानुभवन् जीवः सौख्यदुःखमयं जगत् । संस्काराणामनादीनां करोति प्रतिवर्तनम् ॥४४॥ कर्मानुवर्तिनः सर्वे संस्कारास्तावदात्मनि । न काञ्चित् शोभनावस्थां सुयोग्यां स्थापयन्त्यरम् ॥४५॥ कर्मभ्यो यदि संस्कारा भिन्नतां नावहन्ति तत् । कथं स्वतन्त्ररूपेण संस्काराणां निरूपणम् ? ॥४६॥ कर्मणैव हि भावाना-माविर्भावो यथातथम् । योद्धव्यं धर्मिणा तस्माद्-नूनं कर्मोदयं प्रति ॥४७॥ युग्मम् तत् सत्यं, केवलं जीवो निश्चितैरेव कर्मभिः । यथा विचारयेद् यद्यत् तत् संस्कारस्य लक्षणम् ॥४८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कलियुग में केवलज्ञान नहीं होता । अतः दुःखों का सम्पूर्ण नाश कब होगा उसका पता नहीं है । इस युग में मुख्य रूप से दुःखों के आने पर चित्त की रक्षा करना ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिए । (४३) चित्त के द्वारा ही जीव सुख दुःख से परिपूर्ण जगत् का अनुभव करता है और अनादि संस्कारों की पुनरावृत्ति करता है । (४४) अवस्थाभी संस्कार कर्मों के वर सभी संस्कार कर्मों के वशीभूत है । इसलिए ये आत्मा को किसी शुभ और योग्य अवस्था में स्थिर होने नहीं देते हैं । (४५) (शंका हो सकती है कि) कर्म और संस्कार यदि भिन्न नहीं है, तो स्वतन्त्र रूप से संस्कारों का विवेचन करना व्यर्थ है । (४६) के कार्य से युद्ध धावा कचाही कर्म से ही भावों की उत्पत्ति होती है इसलिए धर्मात्मा व्यक्ति को सच में कर्मोदय के साथ ही युद्ध करना चाहिए । (४७) जवाब यह है कि जीव पूर्वनिश्चित कर्मों के कारण जिस प्रकार जो जो विचार करता है, उसे ही संस्कार कहते हैं । (४८) प्रथम प्रस्ताव १७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा कर्मोदयाल्लब्धः कायो भिन्नोऽस्ति कर्मतः । तथा सापेक्षभावेन संस्काराः कर्मतः पृथक् ॥४९॥ मोहनीयोदयावस्था-रूपां हि ममतां यथा । स्वातन्त्र्येणैव संस्कार-रूपामाहुर्मनीषिणः ॥५०॥ ममतायाः परित्यागस्योपदेशोऽपि दीयते । तत्र संस्कारनाशस्य मुख्यता न तु कर्मणः ॥५१॥ ननु संस्कारनाशेन कर्मनाशो भवेन्न वा ? । भवेच्चेत्तर्हि कर्मैव बाध्यं किं तस्य चिन्तया ॥५२॥ न भवेच्चेत्ततो व्यर्थं संस्काराणां विसर्जनम् । तत्संस्कारपरित्याग-कथयाऽलं विचित्रया ॥५३॥ श्रूयतामत्र संस्कार: कार्यरूपो निगद्यते । कर्मणां कारणत्वञ्च तयोर्नैकत्वसाधकम् ॥५४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार कर्म के उदय से प्राप्त शरीर कर्म से भिन्न है । उसी प्रकार सापेक्ष दृष्टि से संस्कार भी कर्म से पृथक् है । (४९) मोहनीय कर्म के उदय की अवस्था रूप ममत्व (मूर्छाभाव / आसक्ति) को विद्वानों ने स्वतन्त्र रूप से संस्कार कहा है । (५०) ममत्व के त्याग का उपदेश जब दिया जाता है, तब संस्कार के नाश करने की प्रेरणा मुख्य होती है । कर्म की बात मुख्य नहीं होती । (५१) प्रश्न :- संस्कार के नष्ट होने से कर्म का नाश होता है या नहीं ? यदि होता है, तो कर्मों का ही नाश करना चाहिए, उस संस्कार की चिन्ता से क्या ? (५२) और यदि कर्मों का नाश नहीं होता है, तो संस्कारों का त्याग व्यर्थ है। इस तरह संस्कारों के परित्याग की विचित्र कथा को समाप्त कीजिए । (५३) उत्तर :- सुनिए, यहाँ संस्कार कार्य रूप कहा गया है, कर्म कारण है। उनकी कार्यकारण भाव जनित भिन्नता के कारण उन दोनों में सर्वथा अभेद (एकत्व) नहीं है । (५४) प्रथम प्रस्ताव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कारोऽनेकरूपो हि मनोयोगोऽस्ति तत्त्वतः । निमित्तवशवर्तित्वं तस्यास्ति दुःखकारणम् ॥५५॥ यथा वातादिवैषम्याद् देहे रोगः प्रजायते । एवं हि कर्मसांगत्या-दात्मा संस्कारभाजनम् ॥५६॥ रोगस्योपशमं कृत्वा वैषम्यं वारयेत् सुधीः । संस्काराणां जयं कृत्वा कर्म निर्वारयेत् कृती ॥५७॥ द्रव्यं क्षेत्रं च कालं च भवं भावं च संश्रितः । कर्मणामुदयो भूयः कर्मानुबन्धकारणम् ॥५८॥ द्रव्याद्यैः प्रेरितं कर्म विनिर्माति विचारणाम् । निमित्तेनैव निष्पन्नां नूनं कर्मानुवर्तिनीम् ॥५९॥ अशुभानां निमित्तानां सातत्यादात्मना भवे । भावा ये येऽनुभूतास्तेऽप्यशुभा गणनातिगाः ॥६०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्त्विक रूप से विभिन्न संस्कार ही मनोयोग है। मनोयोग का निमित्त के वशवर्ती होना ही दुःख का कारण है । (५५) जिस प्रकार वात-पित्त-कफ के वैषम्य से देह में रोग उत्पन्न होता है। उसी प्रकार कर्म की संगति से आत्मा में संस्कार उत्पन्न होते हैं । (५६) रोग का उपशम कर के विद्वान वातादि की विषमता का निवारण करता है । उसी प्रकार भव्य प्राणी संस्कारों को जीतकर कर्मों का निवारण करे । (५७) और भाव के आश्रित होता है । कर्मोदय कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, गति पुनः कर्म-बन्ध का कारण होता है । (५८) द्रव्यादि से प्रेरित कर्म संस्कारों का निर्माण करता है, यह विचार या संस्कार निमित्तों से निष्पन्न होते हैं और कर्मों का अनुसरण करते हैं । (५९) अशुभ निमित्तों की निरन्तरता से कारण आत्मा जिन जिन भावों का अनुभव करता है, वे अगणित भाव अशुभ होते हैं । (६०) प्रथम प्रस्ताव २१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावानामनुभूतानां योग्यता या पुनर्भवे । सैव संस्कारशब्देन वर्ण्यते धर्मदेशकैः ॥६१॥ तन्निमित्तानुगामित्वं पुनरावर्तनाश्रयम् । कर्मोदयवशित्वं च संस्कारस्यास्ति लक्षणम् ॥६२॥ संस्कारः शरणीभाव उदयापन्नकर्मणाम् । धर्मेण परिहर्तव्यो निःसत्त्वोऽयं पराभवः ॥१३॥ आत्माऽस्ति कर्मतो भिन्नः शद्धचैतन्यधारकः । कर्माऽस्ति चात्मनो भिन्नं सम्पूर्ण जडताश्रयम् ॥६४॥ आत्मा कर्मविहीनः स्यात् तदा सौख्यमनन्तकम । कर्म चात्मविहीनं स्यात् तदा जाड्यमनारतम् ॥६५॥ आत्मानमस्पृशत् कर्म मतं कार्मणवर्गणा । निष्फलं निष्प्रभावं तद् मुखेऽन्यस्तं विषं यथा ॥६६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन अनुभूत भावों की पुनः उत्पन्न होने की जो योग्यता है, उसे ही धर्मोपदेशकों ने 'संस्कार' शब्द से उल्लेखित किया है । (६१) संस्कार का लक्षण त्रिविध है - वह निमित्त का अनुगामी होता है, वह पुनरावर्तन पाता है, वह कर्म के उदय के वश में होता है । (६२) वस्तुतः यह संस्कार कर्मोदय की शरणागति है। इस निर्बलता / असहाय स्थिति को धर्म से दूर करनी चाहिए । (६३) कर्म से रहित आत्मा शुद्ध चैतन्यमय है। आत्मा से रहित कर्म निरन्तर जड़ रहता है । (६४) आत्मा कर्म से रहित होता है तो आत्मा को अनन्त सुख मीलता है । कर्म आत्मा से रहित होता है तो कर्म में सिर्फ जडता होती है । (६५) जो आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाता वह कर्म कार्मणवर्गणा है, वह मुंह में न लिये हुए विष की तरह फलहीन और प्रभावहीन है । (६६) प्रथम प्रस्ताव Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आत्मानं तु स्पृशत् कर्म प्रकृत्यष्टकभेदवत् । आत्मनो गुणघाती स्याद् मुखे न्यस्तं विषं यथा ॥६७॥ कर्मणा ह्यात्मशक्तीनां पराभूतिः पराऽभवत् । कर्मसाम्राज्यनाशार्थं युज्यते परिवर्तनम् ॥६८॥ प्रथमं ह्यत्र कर्तव्यं संस्कारे परिवर्तनम् । आत्मनः पुरुषार्थेण साध्यमानं फलप्रदम् ॥६९॥ श्रीसंवेगरतिः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा को स्पर्श करने वाले कर्म के आठ भेद बनते हैं । यह कर्म मुख में लिए हुए विष की तरह आत्मा के गुणों का घात करने वाला होता है । (६७) कर्म से ही आत्मशक्तियों का महान् पराभव होता है । अतः कर्मों के साम्राज्य का नाश करने के लिए परिवर्तन करना उपयुक्त है । (६८) यह परिवर्तन सर्वप्रथम संस्कार में करना चाहिए । आत्मा के पुरुषार्थ से यह परिवर्तन सफल हो सकता है । (६९) प्रथम प्रस्ताव २५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः प्रस्तावः अनाद्यनन्तसंसारे भ्राम्यतां दुःखपूर्वकम् । जीवानां विषये मुख्यं नियमत्रयमुच्यते ॥१॥ असंख्यातस्वरूपेण भवत्येव प्रतिक्षणम् । निमित्तानामुपस्थानं नियमः प्रथमोऽस्त्ययम् ॥२॥ व्यक्तिवस्तुप्रसङ्गायै-निमित्तैरभिभूतता । आत्मनि संभवत्येव द्वितीयो नियमोऽस्त्ययम् ॥३॥ तैस्तैः प्रभावितो जीवो प्रतिभावाश्रयो भवेत् । प्रतिक्रियां तथा दद्याद् नियमोऽयं तृतीयकः ॥४॥ स्थावरेषु निमित्तानां का नाम समुपस्थितिः । इति प्रश्ने विचार्यन्तां प्रकृतिर्मानवा अपि ॥५॥ पृथिव्यां भूमिकंपादिर्बाधा नैसर्गिकी भवेत् । कूपादिखननाद्वाधा भवेन् मानवनिर्मिता ॥६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रस्ताव इस अनादि अनंत संसार में दुःखपूर्वक भ्रमण करते हुए जीवों के विषय में मुख्य तीन नियम बताए जाते हैं । अर्थात् भवभ्रमण के मुख्यतः तीन कारण है । (१) जीव के समक्ष प्रतिक्षण असंख्यातरूप में निमित्त उपस्थित होते हैं, यह प्रथम नियम है । (२) दूसरा नियम है कि व्यक्ति, वस्तु, प्रसंग आदि निमित्तों से आत्मा प्रभावित होती रहती है । (३) उन उन तत्त्वो से प्रभावित जीव प्रतिभाव का आश्रय बन जाता है और प्रत्येक भाव की प्रतिक्रिया देता है यह तीसरा नियम है । (४) प्रश्न : स्थावर एकेन्द्रिय वनस्पति आदि में निमित्तों की उपस्थिति कैसे सम्भव है ? उत्तर : प्रकृति और मनुष्य दोनों निमित्त रूप बनते हैं । (५) पृथ्वी को भूकम्प आदि की बाधा नैसर्गिक होती है, कुएँ आदि खुदवाने से मनुष्यकृत पीड़ा होती है । (६) दूसरा प्रस्ताव २७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अपामत्युग्रसूर्याद्यैर्वेदना स्यान्निसर्गजा । स्नानरसवतीपाक-प्रमुखैर्मनुजोत्थिता ॥७॥ अग्नेर्वर्षादिकैर्बाधा महावातैर्निसर्गतः । यन्त्रनिक्षेपणाद्यैश्च भवेन् मानवनिर्मिता ॥८॥ वायोर्भूमिधरास्फाल-मुखो नैसर्गिकः श्रमः । नौ-कूपस्तम्भवस्त्राद्यैस्तथा मानवजः श्रमः ॥९॥ वनस्पत्याश्चक्रवातैरुग्रो घातो निसर्गजः । पुष्पमालादिनिर्माणैर्विचित्रो मानवादृतः ॥१०॥ निगोदे जन्ममृत्यूनां सातत्यं कर्मनिर्मितम् । एवं हि स्थावरेष्वस्ति निमित्तानामुपस्थितिः ॥११॥ नन्वेतेषां निमित्तानां काः दृश्यन्ते प्रतिक्रियाः । स्थावरेष्विति चेदत्र ब्रूमः सम्यग् निशम्यताम् ॥१२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी को प्रखर सूर्य आदि के द्वारा प्राकृतिक पीड़ा होती है और स्नानादि तथा रसोई बनाने से मनुष्यकृत पीड़ा होती है । (७) अग्नि को उल्कापात व आंधी आदि से नैसर्गिक व यन्त्रों के उपयोग से मानवनिर्मित पीड़ा होती है । (८) हवा को चट्टानों से टकराने आदि से नैसर्गिक कष्ट होता है, नाँव, कूवाखम्भ, ध्वजा आदि के द्वारा मानवकृत कष्ट होता है । (९) चक्रवातों से (आँधियों से) वनस्पतियों को बड़े पैमाने पर वेदना स्वाभाविक होती है, माला गूंथने आदि के द्वारा विविध प्रकार से मनुष्यकृत वेदना होती है । (१०) निगोद राशि के जीवों में जन्ममृत्यु की निरन्तरता कर्म निर्मित्त है। इस प्रकार स्थावरों में निमित्तों की उपस्थिति होती है । (११) इन निमित्तों से स्थावरों में क्या प्रतिक्रिया दिखाई देती है, यदि यह शंका हो, तो समाधान बताते हैं, सावधान होकर सुनिए । (१२) दूसरा प्रस्ताव २९ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० निमित्तजप्रभावस्याऽभिव्यक्तिर्भवति द्विधा । निरुक्ता सा क्रमेणैवं प्रतिभावः प्रतिक्रिया ॥१३॥ संवेदनं निमित्तोत्थं प्रभाव इति कथ्यते । अयं ह्यनुभवो किंवा ऽनुभूतिर्गण्यते बुधैः ॥१४॥ परिणामश्च तज्जन्यः प्रतिभावो निगद्यते । तस्मान्निर्मापिता वाणी प्रवृत्तिश्च प्रतिक्रिया ॥१५॥ प्रतिक्रियेति शब्दस्य विरोधार्थत्वमत्र न । कुतश्चिदुत्थितत्वं हि तद्वाच्यत्वं विवक्षया ॥१६॥ निमित्तस्यानुसारित्व - मुभयोरेव दृश्यते । प्रतिभावा न दृश्यन्ते दृश्यन्ते तु प्रतिक्रियाः ॥१७॥ नूनमेकेन्द्रियत्वेन स्थावराणां प्रतिक्रियाः । न भवन्ति तथाप्यत्र सन्त्येव प्रतिभावनाः ॥ १८ ॥ श्रीसंवेगरतिः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त से उत्पन्न प्रभाव की अभिव्यक्ति दो तरह से होती है, जिसे क्रम से 'प्रतिभाव' व 'प्रतिक्रिया' कहा गया है । (१३) निमित्त से उत्पन्न संवेदन को प्रभाव कहा जाता है। विद्वान् इसी को अनुभव या अनुभूति कहते हैं । (१४) और उससे उत्पन्न मनः परिणाम को प्रतिभाव कहा जाता है। उसके कारण उत्पन्न वाणी और शारीरिक प्रकृति को प्रतिक्रिया कहते हैं । (१५) प्रतिक्रिया शब्द का अर्थ यहाँ विरोध नहीं है। किसी निमित्त से उत्पन्न हुआ संवेदन प्रभाव है और उसके द्वारा निर्मित व्यवहार प्रतिक्रिया है यह वाच्यार्थ विवक्षित है । (१६) प्रतिभाव और प्रतिक्रिया दोनों में निमित्त का अनुसरण देखा जाता है, किन्तु प्रतिभाव (मानसिक होने से) दिखाई नहीं देते, प्रतिक्रिया (वाचिक व शारीरिक होने से) दिखाई देती है । (१७) एकेन्द्रिय होने से स्थावरों की प्रतिक्रिया नहीं होती, तथापि वहाँ पर प्रतिभाव होते ही हैं । (१८) दूसरा प्रस्ताव ३१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्धक्यश्रान्तदेहस्य शय्यामात्रस्थितेर्यथा । उत्थानादिविचारोऽस्ति प्रवृत्तिस्तु न दृश्यते ॥१९॥ एवमेकाक्षजीवानां प्रतिभावेषु सत्स्वपि । देहानुरूप्यवंध्यत्वाद् न वर्तन्ते प्रतिक्रियाः ॥२०॥ सदा संगो निमित्तानां भाव्यमानत्वमात्मनः । प्रतिभावसमुत्पादः संसारस्य पदत्रयम् ॥२१॥ भाव्यमानत्वसापेक्षावन्यौ स्तस्तेन धर्मिणा । भाव्यमानत्वविषये कर्तव्यं परिवर्तनम् ॥२२॥ आत्माऽयं चेतनाशाली देहेन्द्रियमनोमयः । प्रतिकूलानुकूलेषु संवेदेषु प्रवर्तते ॥२३॥ मामानन्दोऽभवत् किंवाऽनिष्टं मामिदमापतत् । इत्याकारविचाराणा-मुद्बोधो भाव्यमानता ॥२४॥ ३ श्रीसंवेगरतिः Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुढ़ापे से थकी हुई देह धारण करनेवाला वृद्ध बिस्तर पर पड़ा रहता है । उसमें उठने आदि का विचार होता है, पर प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती । (१९) उसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों में प्रतिभाव होने पर भी देह की अनुरूपता नहीं होने से प्रतिक्रिया नहीं होती । (२०) निमित्तों की सदा संगति, आत्मा का उनसे प्रभावित होना और प्रतिभाव की उत्पत्ति ये संसार के तीन चरण हैं । (२१) आत्मा प्रभावित होती है इसी वजह से निमित्तों की सदा संगति और प्रतिभाव की उत्पत्ति दुःखदायी बनते हैं । अतः धार्मिक व्यक्ति को भाव्यमानता (आत्मा के प्रभावित होने) के विषय में परिवर्तन का प्रयत्न करना चाहिए । (२२) यह चेतनस्वभावी आत्मा, देह, इन्द्रिय और मन से युक्त होकर अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनाओं में प्रवर्तित होता है । (२३) 'मुझे आनन्द हुआ' अथवा 'मुझे इस अनिष्ट की प्राप्ति हुई', इस प्रकार के विचारों का उबुद्ध होना ही भाव्यमानता है । (२४) दूसरा प्रस्ताव ३३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्स्वपि चेन्निमित्तेषु स्यान्नेयं भाव्यमानता । तदा सर्वनिमित्तानां वैफल्यमेव जायते ॥२५॥ रागद्वेषतरंगाणां प्रवाहो योऽपि वर्तते । भाव्यमानत्वजातोऽयं प्रभाव-प्रतिभाववान् ॥२६॥ आदर्श सम्मुखस्थानां प्रतिबिंबं निरीक्ष्यते । तज्जन्या चित्तभावास्तु तत्र लभ्याः कुतस्तमाम् ॥२७॥ इत्थं हि विषयोत्पन्नां विहाय प्रतिभावनाम् । केवलं ज्ञानरूपेण सुखं स्थातव्यमात्मना ॥२८॥ शरीरानाश्रयेणैकः कर्महीनो निरामयः । आत्मा वसत्वयं मोक्षे दधन् निर्भाव्यमानताम् ॥२९॥ दुःखादन्या सुखादन्या परमाऽस्ति प्रसन्नता । निरपेक्षा निमित्तेभ्यो मोक्षेऽनन्ताऽऽत्मचारिणी ॥३०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि निमित्तों के होने पर भी यह भाव्यमानता न हो, तो सारे निमित्त स्वयं ही विफल हो जाते हैं । (२५) राग-द्वेष की तरंगों का जो प्रवाह विद्यमान है, वह भाव्यमानता से निर्मित्त है । इसी से जीव प्रतिभाव में फंसता है। (२६) सम्मुख स्थित वस्तु / व्यक्ति का प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखाई देता है । प्रतिबिम्ब के कारण दर्पण में चित्त के भाव कहाँ बनाते है ? (२७) इसी प्रकार विषयों से उत्पन्न प्रतिभाव को छोड़कर आत्मा भी केवलज्ञान रूप सुख में स्थिर होनी चाहिए । ( २८ ) यह आत्मा शरीररहित, अकेली, कर्मोदय विहीन, भाव्यमानता से रहित होकर मोक्ष में निवास करे यह इच्छा रहती है । (२९) परम प्रसन्नता, दुःख और सुख दोनों से भिन्न है । वह निमित्तों से निरपेक्ष है । वह मोक्ष में लभ्य है । वह आत्मस्थिता है । वह अनन्त है । (३०) दूसरा प्रस्ताव ३५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्माऽयं मूलरूपेण केवलज्ञानतेजसा । भासते निस्तुलस्तत्र प्रतिभावादिपारगः ॥३१॥ मोक्षो जीवस्वभावोऽस्ति विभावोऽस्ति भवः पुनः । विभावस्य दशा ज्ञेया भाव्यमानत्वप्रक्रिया ॥३२॥ विषयैर्विषयेष्वेव विषयासंगवर्धिका । आत्मनश्चेतनाऽनादिः संलग्ना भाव्यमानता ॥३३॥ जायते कोमलैस्स्पशैं रसैस्सुस्वादशालिभिः । सौरभैस्सोन्मदै रूपै-दिव्यैर्मिष्टैस्स्वरैश्च सा ॥३४॥ जायते कर्कशस्पर्शे रसैश्च कटुतामयैः । दुर्गन्धैः क्रूररूपैश्च खरैश्शब्दैश्च सा तथा ॥३५॥ कषायैरपि प्रायेण दृश्यते भाव्यमानता । क्रोधेन चाभिमानेन मायया लोभतस्तथा ॥३६॥ ३६ श्रीसंवेगरतिः Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ अनुपम आत्मा प्रतिभावादि से परे होकर में केवलज्ञान रूपी तेज के साथ, अपने मूलरूप से मोक्ष में प्रकाशित होता है । (३१) मोक्ष जीव का स्वभाव है। संसार जीव का विभाव (विपरीत भाव) है। अनुकूलप्रतिकूल संवेदनों से प्रभावित होने की प्रक्रिया ही विभाव की दशा है, यह जानना चाहिए। (३२) आत्मचेतना अनादिकाल से भाव्यमानता से संलग्न है । भाव्यमानता विषयों के द्वारा बनती है, विषयों में बनती है। यह विषयों की आसक्ति बढ़ाती है । (३३) कोमल स्पर्शों से, स्वादिष्ट रसों से, उन्मत्त करनेवाली सुगन्धों से, दिव्य रूपों से, मधुर स्वरों से वह (रागरूप) भाव्यमानता होती है । (३४) कठोर स्पर्श से, कड़वे स्वादों से, दुर्गन्धों से, क्रूर रूपों से, कठोर शब्दों से भी वह (द्वेषरूप) भाव्यमानता होती है । (३५) क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों से प्रायः भाव्यमानता दिखाई देती है। (३६) दूसरा प्रस्ताव ३७ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न काचिदप्यवस्थाऽस्ति भवेऽनादौ किलात्मनः । भाव्यमानत्ववैकल्यं यत्रैतत् समपद्यत ॥३७॥ कारणं भाव्यमानत्वं संस्कारास्तस्य निर्मितिः । दृढयन्ति तथाप्यत्र संस्कारा भाव्यमानताम् ॥३८॥ यदि कश्चिच्छुभोऽपि स्याद् भाव्यमानत्वगोचरः । संस्कारोऽपि तदा तस्य शुभ एव प्रवर्तते ॥३९॥ शुभेन भाव्यमानत्वं शुभं संस्कारसर्जनम् । एतदद्वयं हि दुष्टानां कर्मणामेकवारणम् ॥४०॥ यथाप्रवृत्तकरणात् कर्ममांद्ये प्रवर्तिते । क्रमोऽयं संभवत्येव जीवस्य योग्यतावशाद् ॥४१॥ उत्तमानां निमित्तानां लाभाद्धि भाव्यमानता । उत्तमत्वं दधात्येव पात्रं क्षीरभृतं यथा ॥४२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में अनादि आत्मा की ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जहाँ यह भाव्यमान्यता न हो। (३७) भाव्यमानता कारण है, संस्कार उससे उत्पन्न होते हैं । कारण होते हुए भी ये संस्कार भाव्यमानता को दृढ़ करते हैं । (३८) भाव्यमान भाव यदि शुभ हो, तो उसका संस्कार भी शुभ ही होता है । ( ३९ ) शुभ भाव्यमानता और शुभ संस्कारों की उत्पत्ति ये दोनों दुष्ट कर्मों (अशुभ कर्मों) के निवारण के एकमात्र उपाय हैं । (४०) यथाप्रवृत्तकरण से कर्म की मन्दता हो जाने पर यह क्रम जीव की योग्यता से सम्भावित है। (४१) उत्तम निमित्तों के लाभ से भाव्यमानता उत्तमता को प्राप्त करती है, जैसे दूध से भरा पात्र दूध के कारण उत्तमता प्राप्त करता है । (४२) दूसरा प्रस्ताव ३९ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभावो यथाच्छंदं योऽपि पूर्वं सहोदभूत् । स किञ्चिद् वश्यतां याति उत्तमानुभवादितः ॥४३॥ मनुष्यत्वादिसामग्री महापुण्येन लभ्यते । यदाहुर्ग्रन्थकारास्तद् निमित्तोत्तमताश्रयम् ॥४४॥ अद्य यावद्धि जीवेन यच्च यावच्च निर्मितम् । दुःखं चित्ते तदुत्थानं भाव्यमानत्वतोऽभवत् ॥४५॥ ननं शस्त्रक्रियाऽवन्ध्या कर्तव्याऽस्यैव संप्रति । चिकित्साकृज्जिनेन्द्रोऽत्र कृपापीयूषसागरः ॥४६॥ ४० श्रीसंवेगरतिः Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभाव, जो कि पहले निरंकुश था, उत्तम अनुभव आदि के द्वारा कुछ वश में हो जाता है । (४३) मनुष्यत्व आदि (मोक्षसाधक) सामग्री महापुण्य से प्राप्त होती है, यह जो ग्रन्थकार कहते हैं, उसका आशय यही है कि यहाँ उत्तम निमित्त का आश्रय प्राप्त होता है । (४४) अब तक जीव ने चित्त में जितना भी, जो भी दुःख निर्मित किया है, उसका उदय भाव्यमानता से हुआ है । (४५) इस भाव्यमानता की ही इस समय सफल शस्त्रक्रिया करनी चाहिए । कृपारूपी अमृत के सागर खुद जिनेन्द्र देव इस रोग के चिकित्सक है। (४६) दूसरा प्रस्ताव ४१ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रस्तावः विषयग्रहणं तत्र स्वाभिप्रायस्य योजनम् । तदर्थघटनञ्चैव भाव्यमानत्वलक्षणम् ॥१॥ मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं यथास्वं बोधदायकम् । ज्ञानावरणकृत्कर्म-क्षयोपशमनिर्मितम् ॥२॥ इन्द्रियैर्मुख्यतो ज्ञानं मतिज्ञानेन जायते । वस्तुनो गुणधर्माणाम्-आंशिकावगमात्मकम् ॥३॥ त्वचा जिह्वा तथा नासा नेत्रे कर्णावितीन्द्रियैः । निवृत्तिः करणं लब्धिश्चोपयोग इति स्थितैः ॥४॥ युग्मम् उपयोगस्त्विह ज्ञेय-स्तत्तदिन्द्रियगोचरः । चक्षाह्यं यथा रूपं न च स्पर्शरसादिकम् ॥५॥ सत्यपि जीवचैतन्ये नेन्द्रियाणि स्वभावतः । स्वकीयविषयादन्यत् संविदन्ति कदाचन ॥६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रस्ताव भाव्यमानता में तीन बातें समाविष्ट है । विषय का ग्रहण । अभिप्राय की योजना । का अर्थघटन विषय । (१) ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपक्षम से उत्पन्न मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से क्रमशः अपने अपने विषय का बोध होता है । (२) इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह मुख्य रूप से मतिज्ञान होता है । मतिज्ञान से वस्तु के आंशिक गुणधर्मों का बोध होता है । (३) मतिज्ञान में त्वचा, जिह्वा, नासिका, नेत्र व कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों से बोध होता है । निवृत्ति और करण रूप द्रव्येन्द्रिय से बोध होता है तथा लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रिय से बोध होता है । ( ४ ) इन्द्रिय के द्वारा अपने विषय का जो ज्ञान होता है, उसे उपयोग कहते है । जैसे आँखो से रूप का ज्ञान होता है, स्पर्श रस आदि ( विषयों) का नहीं । (५) जीव का चैतन्य रहने पर भी इन्द्रिय का स्वभाव है कि वह अपने विषयों से अन्य किसी विषय का ज्ञान नहीं कर पातीं । (६) तृतीय प्रस्ताव ४३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ द्रव्यपर्यवतः पूर्णं नेन्द्रियैरवगम्यते । तथात्वे केवलज्ञानेऽतिप्रसंगो भवेत् खलु ॥७॥ अप्रत्यक्षस्थितस्यापि ग्रहणं नैव संभवेत् । साक्षात् संपर्कमायातं गृह्यतेऽदूरवर्ति च ॥८॥ द्रव्यं यावद्गुणं प्राप्तं बोधस्तावद्गुणो भवेत् । भवेदल्पगुणो बोधो नातिबोध: कदाचन ॥ ९ ॥ भित्त्यादिर्जडसामग्री नास्ति बोधाय सक्षमा । ज्ञानं हि चेतनाजन्यं जीवस्यैव प्रजायते ॥ १०॥ शब्दानामर्थसंकेतः श्रुतज्ञानेन गम्यते । वातावरणतो जन्म-जाताद् व्याकरणादिकैः ॥११॥ नैतदर्हा जडास्सन्ति ग्राहकत्ववियोगतः । मतिज्ञाने श्रुतज्ञानेऽयं तावद्विषयग्रहः ॥१२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियों के द्वारा किसी वस्तु के सभी पर्याय का ज्ञान नहीं होता । यदि ऐसा हो, तो केवलज्ञान में अतिव्याप्ति होगी । क्यूं कि केवलज्ञान में ही द्रव्यपर्यायसहित वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान होता है । (७) इन्द्रियों से परोक्ष स्थित पदार्थों का ग्रहण सम्भव नहीं है । समीपस्थित और साक्षात् सम्पर्क में आए हुए पदार्थों का ही ग्रहण होता है । (८) कार दुव्या में जितने गुण उपस्थित हो द्रव्य में जितने गुण उपस्थित हो उतने का ही बोध होता है । जितने गुण हो उनसे कम गुणो का बोध हो सकता है, उनसे अधिक गुणो का बोध नहीं हो सकता । (९) दीवार आदि जड़ सामग्री बोध करने में सर्वथा अक्षम है, क्योंकि ज्ञान, चेतना से ही उत्पन्न होता है और चेतना जीव में ही होती है । (१०) शब्दों के अर्थ का संकेत श्रुतज्ञान से ही होता है । इस श्रुतज्ञान के साधन जन्मजात वातावरण, व्याकरण आदि होते हैं । (११) जड़ श्रुतज्ञान के लिये योग्य नहीं होते क्योंकि वे ग्राहकता गुण से रहित होते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से इस प्रकार विषयग्रहण होता है । (१२) तृतीय प्रस्ताव Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञातव्ये ज्ञातवत्यत्र मोहनीयं प्रवर्तते । ततोऽभिप्रायनिर्माणं संवित्त्यात्मकमुत्कटम् ॥१३॥ अनुकूलं ममाऽस्त्येतद् नानुकूलं ममास्त्यदः । इत्थं सकर्मजीवस्य जायते ऽन्यतमं मनः ॥१४॥ अभिप्रायोऽस्ति जीवस्थो न चायं विषयस्थितः । विषयादेव संजातो विषयात् स विभिद्यते ॥१५॥ यथा पटावृता दृष्टि-र्जायेतान्धत्वभाजनम् । अन्धत्वं न पटे किन्तु पटादेवोपपद्यते ॥१६॥ तथा विषयसम्पर्का-दभिप्रायेण विह्वलः । जीवस्स्याद्विषयेष्वत्र तथापि नास्ति चेतना ॥१७॥ स्त्र्यादिविषयसम्पर्को यद्यप्यस्ति सचेतनः । अभिप्रायस्स्वकीयस्तु नान्यस्मिन्ननुभूयते ॥१८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्माने ज्ञान का विषय प्राप्त कर लिया उसके बाद मोहनीयकर्म के द्वारा उत्कट संवेदना रूप अभिप्राय का निर्माण होता है । (१३) 'यह मेरे अनुकूल है, यह मेरे प्रतिकूल है' । कर्म युक्त जीव के मन में इस प्रकार के विकल्प उठते हैं । (१४) अभिप्राय जीव में रहता है, विषय में नहीं रहता । अभिप्राय विषय से ही उत्पन्न है, पर विषय से भिन्न होता है । वस्तुतः विषय केवल निमित्त कारण है, उपादान तो मोहनीय कर्मयुक्त जीव ही है । (१५) जैसे कपड़े से ढक देने से आँखे अन्धी हो जाती है । यह अन्धत्व कपडे में नहीं है पर कपड़े से ही उत्पन्न होता है । (१६) उसी प्रकार विषय के सम्पर्क से ही जीव विषयों के प्रति व्याकुल होता है । व्याकुलता विषय के द्वारा होती है परन्तु विषय में नहीं होती । (१७) स्त्री आदि विषय यद्यपि सचेतन है । अतः इनका सम्पर्क सचेतन है । किन्तु अपना व्यक्तिगत अभिप्राय दूसरी व्यक्ति में नहीं रहता है । (१८) तृतीय स् ४७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समानेऽनुभवेऽप्यत्र न स्वातंत्र्यं विहन्यते । समानमपि सर्वेषां स्वतंत्रं चक्षुरादिकम् ॥१९॥ विषयग्रहणाज्जीवो न तथा बाध्यते बह । यथाऽभिप्रायनिर्माणान्मोहनीयप्रवर्तितात् ॥२०॥ तथापि मोहनीयस्य विक्षोभस्याऽस्ति कारणम् । विषयग्रहणं तेन बाधा तेनापि गण्यते ॥२१॥ इच्छासंचारितो जीवो विषयेषु प्रवर्तते । तस्मादेव मतं दुष्टं विषयग्रहणं सदा ॥२२॥ केवलज्ञानिनां देहै: पञ्चेन्द्रियमनोहराः । विषया योगमायाता नाभिप्रायप्रवर्तकाः ॥२३॥ सुष्ठत्वं वाऽपि दुष्टत्वं नैतेषां प्रतिभासते । तेषामिन्द्रियवेद्यत्वं ज्ञानेनैतैर्विलोक्यते ॥२४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो व्यक्ति को समान अनुभव होने पर भी दोनों का अनुभव स्वतन्त्र होता है। अतः अनुभव की स्वतन्त्रता नष्ट नहीं होती । जिस प्रकार सबकी आँखे आदि समान होने पर भी अपनी पृथक् पृथक् होती हैं । (१९) वास्तव में विषयों के ग्रहण से आत्मा को वैसी हानि नहीं होती है, जैसी हानि मोहनीय के कारण होने वाले अभिप्राय के निर्माण से होती है । (२०) फिर भी मोहनीय के विक्षोभ का कारण विषयों का ग्रहण ही है, अतः विषयग्रहण से भी आत्मा की हानि मानी जाती है । (२१) इच्छा से प्रेरित होकर ही जीव विषयों में प्रवृत्त होता है, अतः विषयों के ग्रहण को सदा दोष ही माना गया है । (२२) केवलज्ञानीओ के शरीर के साथ भी पाँचों इन्द्रियों के मनोहर विषयों का संयोग होता है, किन्तु उनमें अभिप्राय का प्रवर्तन नहीं होता । (२३) केवलज्ञानीओ को ये विषय अच्छे या बूरे नहीं लगते । वे विषयों की इन्द्रियग्राह्यता को ज्ञान द्वारा जानते है । (२४) तृतीय प्रस्ताव Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं च विषयज्ञान-मभिप्रायप्रवर्तकम् । भाव्यमानत्वचिन्तायां लक्षणत्वेन मन्यते ॥२५॥ यतोऽभिप्रायनिर्माणं नास्ति सा विषयज्ञता । आत्मचैतन्यसंपाद्या नात्मबाधाकरी मता ॥२६॥ अभिप्रायाद् विचारास्स्यु-रसंख्येया अनारतम् । यथा-प्रीतोऽस्मि येनैतत् सर्वदा प्राप्नुयामहम् ॥२७॥ नवानां स्यात् कथं प्राप्तिः प्राप्तानां चैव रक्षणम् । रक्षितानां स्वयंभोगस्तस्य सातत्यमेव च ॥२८॥ प्राप्ति-रक्षोपभोगादौ चिन्तासन्तानसंगतः । यद् यद् विभावयेज्जीवस्तदर्थघटनं मतम् ॥२९॥ रोचते यन्न मां तेषां निकारं विदधाम्यहम् । नैते मां पुनरायान्तु तथा कर्तव्यमात्मना ॥३०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अभिप्राय को प्रेरित करने वाला विषयज्ञान भाव्यमानता का लक्षण माना गया है । (२५) विषयज्ञान होने पर भी अगर अभिप्राय नहीं बना है तो वह आत्मजनित विषयज्ञान आत्मा को बाधाकारी नहीं है । (२६) अभिप्राय से निरन्तर असंख्य विचार उत्पन्न होते हैं । जैसे कि 'जिससे मैं प्रसन्न हूँ उसे मैं हमेंशा प्राप्त करूँ ।' (२७) 'नए-नए विषयों की प्राप्ति कैसे हो ? प्राप्त का संरक्षण कैसे हो ? रक्षित का निरन्तर उपभोग कैसे हो ।' (२८) प्राप्ति, रक्षा और उपभोग की चिन्ताओं से व्याकुल जीव जो भी कल्पना करता है, उसको अर्थघटन कहते हैं । (२९) 'जो मुझे अच्छा नहीं लगता, उनका मैं निवारण करूँगा । मुझे ऐसा करना चाहिए कि जिससे ये प्रतिकूलता फिर न आएँ ।' (३०) तृतीय स् ५१ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयातप्रतिकारार्थं नाल्पयत्नो भवाम्यहम् । इत्यर्थघटनापन्नो जीवस्स्यात् प्रतिभाववान् ॥३१॥ मतिज्ञानस्वरूपेण संज्ञाऽस्ति दीर्घकालिकी । संटंकोऽत्र भवत्यस्यास्सुखदुःखसमाश्रितः ॥३२॥ अल्पशब्दाद् यथा सूत्राद् वृत्तिकारा महर्षयः । महार्थघटनां नव्यां योजयन्ति विशारदाः ॥३३॥ यथालब्धात् तथा जीवो विषयात् कर्मणाऽऽतुरः । घटयन् चेतसो भावान् भवभ्रमणभाग् भवेत् ॥३४॥ अर्थो ह्यध्यवसायोऽस्ति घटयन् तं ह्यनेकधा । यान् यान् भावानुपेयात्तान् प्रतिभावान् विजानत ॥३५॥ अनुकूलत्वधीश्चित्ते प्रतिकूलत्वधीरपि । वर्तते साऽस्त्यभिप्रायो विषयासंगनिर्मितः ॥३६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आए हुए अनिष्ट के प्रतिकार के लिए मैं पूरा प्रयत्न करूँगा।' इस प्रकार विचार करने वाला जीव प्रतिभाव से युक्त होता है । (३१) मतिज्ञान में जो दीर्घकालिकी संज्ञा है वह सुखदुःख के विविध आयाम बनकर अर्थघटन में रहती है। (३२) . अल्प शब्दात्मक सूत्र से जैसे वृत्तिकार महर्षि बहे अल्प शब्दात्मक सूत्र से जैसे वृत्तिकार महर्षि बड़े अर्थो वाली नई व्याख्या करते हैं । (३३) उसी प्रकार कर्म से आतुर जीव जिस प्रकार विषय प्राप्त होते है उस प्रकार चित्त के भावों को विस्तार देता है और संसार में भ्रमण करता रहता है । (३४) मानसिक संकल्प को अर्थ कहते है । अनेक प्रकार से अर्थ की रचना करते हुए जीव जिन-जिन भावों से युक्त होता है, उन भावों को प्रतिभाव जानना चाहिए। (३५) चित्त में अनुकूलत्व की बुद्धि होती है, वैसे ही प्रतिकूलत्व की बुद्धि भी होती है। यह अनुकूल और प्रतिकूल बुद्धि अभिप्राय है । यह अभिप्राय विषय के संग से निर्मित होता है । (३६) तृतीय प्रस्ताव Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आकर्षो योऽनुकूलेषु प्रतिकूलेषु त्रस्तता । तदर्थघटनं नाना- विचाराणां प्रसूतिकृत् ॥३७॥ व्यक्तेश्च वस्तुनो नाम-ग्राहं संग्रह - निग्रहे । भृशं चित्तप्रवाहो यस्स प्रतिभाव उच्यते ॥३८॥ तत्र तत्र प्रसंगेषु तथा चित्तप्रवाहिता । प्रतिभावः प्रतिव्यक्ति प्रतिवस्तु च भिद्यते ॥ ३९ ॥ ततो निर्मीयते वाणी तस्संजायते क्रिया । आहत्य प्रतिभावेभ्यो जाता तेन प्रतिक्रिया ॥४०॥ रसे बन्धस्थितौ चैव कर्मणां प्रतिभावतः । प्रतिक्रियाकृतो बन्धः प्रदेशे प्रकृतावपि ॥४१॥ रसस्येव स्थितेर्बन्धः प्रतिभावाद् भवन्नपि । रसस्येवात्मनः शक्तौ बाधाकृन्न विशेषतः ॥४२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकूल के प्रति जो आकर्षण होता है। प्रतिकूल के प्रति जो उद्वेग होता है। इसे अर्थघटन कहते हैं । इसकी रचना अनेक विचारों को जन्म देती है । (३७) व्यक्ति और वस्तु के अलग-अलग नाम लेकर, उनके परिग्रह और परिहार करने में जो चित्त का प्रवाह बनता है, उसे प्रतिभाव कहा जाता है । (३८) प्रतिभाव चित्त का प्रवाह रूप होता है । वह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के प्रति भिन्न होता है । (३९) प्रतिभाव से वाणी उत्पन्न होती है। प्रतिभाव से क्रिया उत्पन्न होती है। कुल मिलाकर प्रतिभावों से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है । (४०) प्रायशः प्रतिभाव के द्वारा कर्म का रसबन्ध और स्थितिबन्ध होता है । प्रतिक्रिया से प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध होता है । (४१) यद्यपि स्थिति का भी बन्ध प्रतिभाव से होता है। परन्तु विशेष रूप से रस ही आत्मा की शक्ति का घातक है । (४२) तृतीय प्रस्ताव Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणो रसमन्दत्वे स्थितिश्शक्ता न बाधितुम् । रसेनैव हि नव्यानां कर्मणां सुदृढा स्थितिः ॥४३॥ प्रयत्नो बध्यमानानां कर्मणां रसवारणे । कार्यों मुख्यतया सोऽयं भावशुद्ध्या च जायते ॥४४॥ न नाम कर्मणां बन्धस्सर्वथाऽत्र निरुध्यते । शक्तिस्तत्कर्मणां किन्तु यथाशक्यं निरास्यते ॥४५॥ बध्यमानं ततः कर्म रसैर्मन्दं यथा भवेत् । त्रयाणामन्यबन्धानां तथा शक्तिर्विभज्यते ॥४६॥ अभिप्रायादिनिष्पन्नः कर्म-संस्कार-संगतः । जेयोऽस्ति रसबन्धोऽयं मूले नष्टे कुतो भयम् ॥४७॥ वस्तुतस्तु त्रयं ह्येतद् मोहनीयरसोदयात् । प्रभवत्येतदापन्नो रसबन्धो नवो नवः ॥४८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस के मन्द होने पर कर्म की स्थिति आत्मगुणों को नष्ट करने में समर्थ नहीं होती । रस के कारण ही नए कर्म की स्थिति सुदृढ़ होती है । अर्थात् स्थितिबन्ध भी रस से ही दीर्घकालीन और सुदृढ़ होता है । (४३) अतः कर्मों के रस को दूर करने का ही प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न मुख्यतया भावशुद्धि से होता है । (४४) यहाँ सर्वथा कर्मबन्ध का निरोध नहीं होता, किन्तु यथासम्भव कर्मों की शक्ति कमजोर बनाई जाती है । (४५) बध्यमान कर्मों में रसों की मन्दता होती है । उससे शेष तीन बन्धों (प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध और स्थितिबन्ध) की शक्ति कम होने लगती है । (४६) यह रसबन्ध (अनुभागबन्ध) अभिप्रायादि से निष्पन्न होता है तथा कर्म और कर्मजन्य संस्कारों के साथ रहता है, उसे ही जितना चाहिए। मूल नष्ट होने पर भय किसका ? (४७) वस्तुतः विषयग्रहण, अभिप्राय और अर्थघटन ये तीनों मोहनीय कर्म के रसोदय से निर्मित होते हैं । इनसे युक्त होने पर नया नया रसबन्ध होता रहता है । (४८) तृतीय स् ५७ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ दुःखानां परिहारार्थं कर्मणां वृद्धिकारिणाम् । अभिप्रायादिकं जित्वा सौख्यमुत्तममर्जयेत् ॥४९॥ बाह्यानां नैव केषाञ्चित् संयोगानां विवर्तनम् । कर्तुं शक्यं तथात्वे तु विश्वं स्यादव्यवस्थितम् ॥५०॥ अनिष्टं यदपि प्राप्तं तत् पापोदयसंभवम् । कथंकारं भवेदत्र पापानां परिवर्तनम् ॥५१॥ कर्मणां संक्रमोऽप्यस्ति महाग्रन्थेषु दर्शितः । अस्मदादिकजीवानां संक्रमोऽयं कथं भवेत् ॥५२॥ पदार्थानां मनुष्याणां स्वभावैरपि वेदनाः । जायन्ते तत्र किं तेषां शक्याऽस्ति परिवर्तना ॥५३॥ सर्वेषामेव सर्वत्र स्थितानां परिवर्तने । गौरवं, लाघवं तु स्याद् आत्मनः परिवर्तने ॥५४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दुःखों के परिहार के लिए, कर्मों को बढ़ाने वाले अभिप्रायादि को जितकर उत्तम सुख प्राप्त करें । (४९) बाह्य संयोगों को नहीं बदला जा सकता है । यदि संयोगों को रोकना या बदलना सम्भव हो, तो विश्व ही अव्यवस्थित हो जाएँगा । (५०) जो भी अनिष्ट प्राप्त हुआ है, उसका कारण पाप का उदय है । अनिष्ट, पापोदय से उत्पन्न है । इन पापों का परिवर्तन कैसे हो यही विचारणीय है । (५१) कर्म विषयक महान ग्रन्थों में कर्मों का संक्रमण भी बताया गया है । (अर्थात् एक प्रकृति का कर्म दूसरी प्रकृति के कर्म में संक्रमित हो जाता है ) । हमारे जैसे जीवों में यह संक्रमण कैसे हो सकता है ? (५२) पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव से भी वेदनाएँ उत्पन्न होती है, तब क्या उनमें परिवर्तन सम्भव है ?। (५३) दुनियाभर का परिवर्तन करना सम्भव नहीं है। विश्व भर में स्थित सबका परिवर्तन करना दुष्कर है, अपनी आत्मा में परिवर्तन करना अपेक्षया सुकर है । (५४) तृतीय प्रस्ताव Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थदर्शिना दिष्टे तत्त्वे चिन्तनयोगतः । परिवर्तनमापन्नः कथं केनापि दूयते ॥५५॥ भगवद्वचसो दूर-स्थितो मूढोऽविचारकः । परिवर्तनशून्यत्वाद् नूनं केनापि दूयते ॥५६॥ अद्याहं यत्स्वरूपोऽस्मि नार्हति तन् ममात्मनः । इत्थमाशयवान् कुर्यात् प्रथमं स्वपरीक्षणम् ॥५७॥ नाहं देहस्वरूपोऽस्मि क्षुधारोगादिभाजनम् । अहं तु सिद्धरूपोऽस्मि शुद्धसौख्यस्य भाजनम् ॥५८॥ स्वतंत्रं मम सामर्थ्य जीवनेऽनुभवेऽपि च । अद्य तत् कर्मबद्धत्वाद् देहाधीनं प्रवर्तते ॥५९॥ रागद्वेषवशीभूतः कषायकलुषाशयः । विषयासक्तचित्तोऽहं कर्मबद्धोऽस्मि सर्वथा ॥६०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वर भगवन्त द्वारा उपदिष्ट तत्त्व के आधार से चिन्तन करते हुए जिसने परिवर्तन प्राप्त किया है उसे कौन किस प्रकार दुःखी कर सकता है ? (५५) जो जिन वचनों से दूर है, मूर्ख व अविचारी है, अपने में परिवर्तन करना नहीं चाहता है, वही दूसरों के द्वारा दुःखी किया जाता है । (५६) आज मैं जिस स्वरूप में हूँ, वह स्वरूप मेरी आत्मा के लिए योग्य नहीं है। इस आशय को धारण करनेवाला व्यक्ति पहले अपनी परीक्षा करें । (५७) मैं भूख, रोग आदि का घर देह स्वरूप नहीं हूँ। मैं सिद्धस्वरूप हूँ । मैं शुद्ध (निरपेक्ष) सुख का पात्र हूँ । (५८) मैं जीवन में और अनुभव में स्वतन्त्र सामर्थ्यवान हूँ। आज मेरा जीवन और अनुभव दोनों ही कर्मों के बन्धन के कारण शरीर के अधीन हो चूके है । (५९) आज मैं रागद्वेष को वशीभूत हूँ, कषाय से मलीनचित्तवाला, विषयों में आसक्त तथा सर्वथा कर्मबद्ध हूँ। (६०) तृतीय प्रस्ताव Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममाऽऽत्मा रक्षणीयोऽस्ति मयैव मम चिन्तनैः । अहं हि तारको मे स्यां नाहं स्यां मम मारकः ॥६१॥ मामहं देहरूपेण पश्यामि स भ्रमो मम । मामहमात्मरूपेण पश्येयं तत् सुखं भवेत् ॥६२॥ इयत्ता मम शक्तीनां वर्तते नैव काचन । विस्मृत्य ता अहं मुग्धो लग्नः पामरसंगतौ ॥६३॥ आत्मगौरवविस्मारा-न्नान्याऽस्ति काऽपि मर्खता । आत्मगौरवबोधाच्च नान्या काचन वैदुषी ॥६४॥ क्वास्मि कुत्र च गंतव्यं कर्तव्यं किं करोमि किम् । किं प्राप्तं प्रापणीयं किं किं त्यक्तं त्याज्यमस्ति किम् ? ॥६५॥ शक्तयो मयि वर्तन्ते पालनीया मयैव ताः । कुर्वे तासामुपेक्षां चेत् तदा शत्रुर्ममाऽस्म्यहम् ॥६६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी विचार प्रक्रिया द्वारा अपनी आत्मा की मुझे स्वयं रक्षा करनी चाहिए । मुझे ही अपना तारक बनना है, मैं अपना घातक नहीं बनूँगा । (६१) मैं खुद को देह मानता हूँ, यह मेरा भ्रम है । जब मैं अपने आपको आत्मा के रूप में देखूँगा, तभी सुख होगा । (६२) मेरी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है, उसको भूलकर मैं मूढ़, नीचों की संगति में लगा हूँ । (६३) अपने गौरव के विस्मरण से बड़ी कोई मूर्खता नहीं है । अपने गौरव का बोध होने से अधिक कोई विद्वता नहीं है । (६४) मैं कहाँ हूँ, मुझे कहाँ जाना है, मेरे लिये करणीय क्या है ? मैं क्या करूँ ? । मैंने क्या प्राप्त किया है ? मुझे क्या प्राप्त करना है ? मैंने क्या-क्या छोड़ा है और मेरे लिये छोड़ने योग्य क्या है ? (६५) मेरे में शक्तियाँ विद्यमान है । मुझे ही उनकी रक्षा करनी होगी । यदि मैं उनकी उपेक्षा करूँगा, तो मैं खुद का ही शत्रु बन जाऊँगा । (६६) तृतीय स् ६३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आगामिनो भवास्सन्ति कियन्तस्तन्न वेद्म्यहम् । किस्वरूपो भविष्यामि न जाने तद् भवे भवे ॥६७॥ कियत्कालं तथा जन्मन्यमुष्मिन्नपि जीवनम् । वर्तते तन्न विज्ञातं मयाऽज्ञानकलंकिना ॥६८॥ यत्राssसत्तोऽस्मि तन्नाश्यं निर्नाश्ये नास्ति मे रतिः । अविवेको हि दुःखानां सर्वेषां मूलमुच्यते ॥६९॥ उपार्जितं यदत्रास्ति तदत्रैव भविष्यति । यास्यामि विवशस्सर्वं विहाय कुत्रचित् स्थले ॥७०॥ मया साकं मया नेयं मया किं समुपार्जितम् । यदप्यायास्यति तत्र शुभत्वं किन्नु विद्यते ? ॥७१॥ देहसम्पत्कुटुम्बाद्या न सन्ति सहगामिनः । देवता गुरवोऽप्येवं न परत्र सहस्थिताः ॥७२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगामी कितने भव शेष हैं, यह मैं नहीं जानता । आगामी भवों में मेरा स्वरूप क्या होगा ? यह मैं नहीं जानता । (६७) अज्ञान से कलंकित मैं यह भी नहीं जानता कि इस जन्म में भी कितना जीवन शेष है । (६८) . जिसमें मैं आसक्त है, वह नाशवान है । जो अविनश्वर है, उसमें मेरी जिसमें मैं आसक्त हूँ, वह नाशवान है । जो अविनश्वर है, उसमें मेरी अनुरक्ति नहीं है । अविवेक ही सब दुःखों का मूल कहा जाता है । (६९) जो कुछ यहाँ उपार्जित किया है, वह यहीं रह जाएगा । मैं सब कुछ छोड़कर कहीं और स्थान में विवश होकर चला जाउँगा । (७०) ___ मैंने जो भी शुभ अशुभ उपार्जित किया है, वह मुझे अपने साथ ले जाना है । जो मेरे साथ आयेगा, वह शुभ है क्याँ ? (७१) शरीर, संपत्ति और कुटुम्ब साथ नहीं आते हैं। दू परलोक में देवता और गुरू भी साथ नहीं आते । (७२) तृतीय प्रस्ताव Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ संस्काराः केवलं जीवभाव्यमानत्वसम्भवाः । आयास्यन्ति मया साकं तत् शुभान् वितनोम्यहम् ॥७३॥ शुभान्येव निमित्तानि यान्तु मे रागपात्रताम् । निमित्तान्यशुभान्यत्र मा यान्तु रागगोचरे ॥७४॥ एवं विचारयन्नात्मा धर्मप्रवृत्तिमाश्रितः । पृच्छति स्वयमात्मानं प्रश्नत्रयमनाविलम् ॥७५॥ क्रियते यो मया धर्मो देहवित्तादिसाधनैः । तस्मादभ्यधिकाचारे शक्तोऽस्मि वा न वा किमु ॥७६॥ धर्मायाऽभ्यधिकायाऽहं शक्तस्सन् तं करोमि चेत् । अस्ति कश्चन मे तत्र बाधको वापि वारकः ॥७७॥ मयि बाधादिकाऽभावे धर्माधिक्यविधायिनि । विपदस्स्युर्विभिन्नाः किं जीवितादेर्विनाशिकाः ॥७८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे साथ जीव की (उपर्युक्त) भाव्यमानता से उत्पन्न संस्कार ही आएंगे । अतः मैं शुभ भावों का विस्तार करूँगा । (७३) शुभ निमित्तों के प्रति ही मेरा रागभाव हो, अशुभ निमित्त मेरे राग का विषय न बनें । (७४) इस प्रकार विचार करते हुए धर्म में प्रवृत्त आत्मा अपने आप से तीन स्पष्ट प्रश्न है । (७५) पूछता शरीर, धन आदि साधनों के द्वारा मैं जो धर्म करता हूँ, क्या उससे अधिक धर्मसाधना में मैं समर्थ हूँ ? (७६) समर्थ हूँ और इससे अधिक धर्म करूँगा, तो क्या कोई आदमी इसमें रोकने वाला है ? (७७) अधिक धर्मसाधना में विरोधी का अभाव है, और यदि अधिक धर्म शुरू किया तो क्या मेरे जीवन में विनाशक विपत्तियाँ उत्पन्न होंगी ? (७८) तृतीय स् ६७ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो चेद् रे किं ततोऽत्यन्त-मल्पं धर्मं करोम्यहम् । यत् करोमि ततो नूनं करोमि यन्न तन्महत् ॥७९॥ मया न क्रियते धर्मो यो यस्तं तं स्मराम्यहम् । कदा कं च कथं कुर्वे भावनामित्थमाश्रये ॥८॥ कार्याणां करणे ह्यत्र सोपानत्रयमुच्यते । प्रथमं कल्पनाऽऽधेया कार्यस्येष्टस्य चेतसि ॥८॥ द्वितीयं तस्य कार्यस्य योजना स्पष्टताऽन्विता । कार्यकारणसामर्थ्य स्वयंविश्वासपूर्विका ॥८२॥ तृतीयञ्च प्रयत्नस्स्यात् स्वकीयक्षमतानुगः । अविश्रान्तो नवोत्साह-संचारी समयान्वितः ॥८३॥ एवं क्रमं समाश्रित्य यः कार्येषु प्रवर्तते । साफल्यसुमनांस्यस्य म्लायन्ति नैव कर्हिचित् ॥८४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि धर्म करने में विरोध और विपत्ति विशेष नहीं हैं तो मैं क्यों अत्यन्त अल्प धर्मसाधना कर रहा हूँ ? आज में जो धर्म कर रहा हूँ, उससे अधिकतर धर्म करना बाकी रहता है। (७९) मैंने जो-जो धर्म नहीं किया है, उस उसका स्मरण करता हूँ। धर्म कब, कौन सा और किस प्रकार करूँगा ? इस भावना का आश्रय लेता हूँ । (८०) कार्य को क्रियान्वित करने के तीन सोपान होते हैं । सर्वप्रथम, इष्ट कार्य की मन में कल्पना करनी चाहिए । (८१) दो, कार्य को सम्पन्न करने की स्पष्ट योजना होनी चाहिए । यह योजना अपनी शक्ति के प्रति आत्मविश्वास से पूर्ण होनी चाहिए । (८२) तीन, अपनी क्षमता के अनुसार प्रयत्न होना चाहिए । यह प्रयत्न निरंतर, उत्साह पूर्ण और समयबद्ध होना चाहिए । (८३) कभी सुझास नहीं हाश्रय लेकर जो काय इस क्रम का आश्रय लेकर जो कार्यों में प्रवृत्त होता है, उसकी सफलता के पुष्प कभी मुरझाते नहीं है । (८४) तृतीय प्रस्ताव Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अल्पं धर्मं प्रकुर्वाणो धर्मिणं मनुते निजम् । श्रीमन्तं कुरुते सोऽयं वित्तेनाल्पेन किं निजम् ॥८५॥ महानगरनिर्दाही दारुणो वह्निरुद्धतः । एककुम्भजलेनैव शीतलेन न शाम्यते ॥८६॥ तथैवाऽनादिसंसार-संस्कारा आत्मनिस्थिताः । अत्यल्पेनैव धर्मेण न क्षाल्यन्तेऽतिचिक्कणाः ॥८७॥ सम्भवे सति कर्तव्या धर्मवृद्धिर्निरन्तरम् । शक्तयः परिवर्धन्ते तासामेव प्रयोगतः ॥८८॥ अमोघं पुण्यबन्धानां कारणं धर्म उच्यते । विशुद्धाशयतः पुण्यं भवेत् पुण्यानुबन्धकम् ॥८९॥ कर्मणां निर्जराकारी धर्म एव निरुच्यते । सकामनिर्जराहेतुस्स ज्ञानपूर्वको भवेत् ॥९०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अल्प धर्मसाधना करते हुए अपने को धार्मिक समझता है वह थोड़े धन से क्या खुद को धनवान समझता है ? (८५) महानगर को जलाने वाली, दारूण, भयंकर आग एक मटके भर शीतल पानी से शान्त नहीं होती । (८६) उसी प्रकार अनादि संसार के संस्कार आत्मा में स्थित है, वे अत्यन्त चिकने है, थोड़ी सी धर्म साधना से वे साफ नही होते । (८७) बढ़ती सम्भव हो, तो निरन्तर सम्भव हो, तो निरन्तर धर्मवृद्धि करनी चाहिए । शक्तियों के प्रयोग से ही शक्तियाँ बढ़ती है । (८८) मालपुण्यबन्ध के अमोघ का पुण्यबन्ध के अमोघ कारण को धर्म कहते हैं। विशुद्ध भावों से पुण्यानुबन्धी पुण्य मीलता है । (८९) कर्म की निर्जरा धर्म से होती है। ज्ञानपूर्वक धर्म करने से सकामनिर्जरा होती है। (९०) तृतीय प्रस्ताव ७१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसा वचसा चैवं देहेन धर्मपालनम् । कर्वाणा तीव्रसंस्कारा-धानं कर्वन्ति चेतसि ॥९॥ धर्मप्रवृत्तितो धर्मा-ऽऽचारसत्त्वं विवर्धते । उल्लासो वर्धते धर्मे कौशलं जायते नवम् ॥१२॥ शुभानामेव भावाना-मनुभावाः शुभप्रदाः । धर्माचारेण पुण्येन विधीयन्ते निरन्तरम् ॥१३॥ गुणानामुद्भवः स्थैर्यं विकासो धर्मतो भवेत । धर्मो हि गुणधारिण्यां महामेघो मतोऽमलः ॥९४॥ दोषाणां क्रमशो हानि-विनाशोऽनुद्भवस्तथा । धर्मेणैव भवेद् धर्मस्सदाशुद्धिकरो मतः ॥१५॥ धर्मश्रद्धां विधायैवं करोमि हितमात्मनः । मदीयेन विलम्बेन हन्त हानिर्मम स्वयम् ॥१६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन, वचन, काया से इस प्रकार धर्मप्रवृत्ति करते हुए प्राणी मन में तीव्र संस्कारों का आधान करते हैं (९१) धर्म की प्रवृत्ति से धर्म का आचरण करने की शक्ति बढ़ती है । धर्म में उल्लास बढ़ता है । नया कौशल उत्पन्न होता है । (९२) शुभ भावों के अनुवर्ती भाव भी शुभप्रद अर्थात् पुण्य देने वाले होते हैं । ये शुभ भाव पवित्र धर्माचार से मीलते है । (९३) धर्म से ही गुणों की उत्पत्ति, स्थिरता और विकास होता है। धर्म को गुणरूप धरती पर विमल महामेघ समान माना गया है । (९४) T दोषों का ह्रास, विनाश और अनुत्पत्ति धर्म से ही होती है । धर्म सदा शुद्धिकारक होता है । (९५) इस वातो को याद रखकर मैं धर्म में श्रद्धावान् बनूँगा और आत्मा का हित करूँगा । मेरे विलम्ब से तो मुझे ही हानि होती है । (९६) तृतीय स् ७३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मस्य विषये चित्तं यथाबोधं नियोजयन् । प्रशस्यां तनुते जीव-स्सहज भाव्यमानताम् ॥९७॥ धर्मस्य विषयेऽपि स्या-दभिप्रायप्रवर्तनम् । धर्मार्थघटनाऽपि स्या-दन्तरंगसुखावहा ॥९८॥ धर्मं चानुसरन्नव्यः प्रतिभावोऽपि संभवेत् । तदत्था धर्मविस्तार-कारिणी च प्रतिक्रिया ॥९९॥ अशुभाद्विषयाज्जाता दुष्टा भवपरम्परा । शुभाद्धि विषयाज्जाताद् धर्माद् ध्वस्ता भवेद् ध्रुवम् ॥१००॥ वर्धमानो विशद्धश्चाऽभिप्रायो धर्मगोचरः । विषयाविषयो भूयाद् धर्मसिद्धिर्भवेत्तदा ॥१०१॥ अनुकूलत्वधीहे प्रतिकूलत्वधीरपि । घटनाऽभावतोऽर्थानां न भवेद् द्वन्द्वनाशतः ॥१०२॥ ७४ श्रीसंवेगरतिः Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने ज्ञान के अनुसार चित्त को धर्म में लगाते हुए जीव प्रशस्य भाव्यमानता का विस्तार करता है । (९७) धर्म के विषय में अभिप्राय भी बनता होता है, (रागद्वेष आदि से हटकर अभिप्राय धर्म की ओर मुड जाते हैं) और धर्म का अर्थघटन होने से अन्तरंग सुख मीलता है। (९८) धर्म का अनुसरण करने से नया प्रतिभाव उत्पन्न होता है । उससे धर्म का विस्तार करनेवाली प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है । (९९) अशुभ विषयों से दुष्ट भव परम्परा उत्पन्न होती है, विषयों से उत्पन्न भवपरम्परा शुभ विषयक धर्म से निश्चित ही ध्वस्त हो जाती है । (१००) धर्म से संलग्न विशुद्ध अभिप्राय निरंतर वृद्धि प्राप्त करके, जब विषयातीत अवस्था तक पहँचता है तभी धर्मसिद्धि होती है । (१०१) नहीं होते शरद अभाव से अर्थघटन के अभाव से द्वन्द्वनाश हो जाने पर अनुकूल या प्रतिकूल संवेदन जागृत नही होते । (१०२) तृतीय प्रस्ताव ७५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुगताः सर्वाः प्रतिभावप्रतिक्रियाः । विरमन्ते तदा कर्म-क्षयेण परमं पदम् ॥१०३॥ श्रीसंवेगरतिः Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयों का अनुसरण करने वाले समस्त प्रतिभाव और प्रतिक्रिया जब समाप्त हो जाते है, तब कर्मक्षय हो जाने से जीव को परमपद मीलता है । (१०३) तृतीय प्रस्ताव ७७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ प्रस्तावः चतुर्थः प्रतिभावा अनेके स्यु-विषयैरात्मनिर्मिताः । जानन्ति प्रतिभावेभ्योऽभिप्रायं धीधना निजम् ॥१॥ वस्तुतस्तु निरोद्धव्य-मभिप्रायप्रवर्तनम् । प्रतिभावावलोकेन तद्द्बोधस्सुकरो भवेत् ॥२॥ विषयैर्भावितं चेतो ददात्येव प्रतिक्रियाम् । संसिक्तो धृतधाराभिस्तपनः फूत्कृतिं यथा ॥३॥ अभिप्रायात्तथाऽर्थानां घटनाच्च वियुज्यते । जीवस्तदा न जायन्ते प्रतिभावा प्रतिक्रियाः ॥४॥ अभावः प्रतिभावानां परमाऽस्ति दशाऽऽत्मनः । समाधिर्वा विशुद्धिर्वा सिद्धिर्वेयं निरुच्यते ॥५॥ कारणत्रयतो दुष्टाः प्रतिभावा भवन्त्यमी । कर्मणामुदयात् पूर्व-संस्काराद् दुर्निमित्ततः ॥६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रस्ताव विषयों के कारण आत्मा द्वारा निर्मित प्रतिभाव अनेक होते हैं । बुद्धिमान् प्रतिभाव के द्वारा अपना अभिप्राय जानते हैं । (१) वास्तव में अभिप्राय का उत्पन्न होना ही रोकना चाहिए । प्रतिभाव को देखने से उसका ज्ञान सहज हो जाता है । (२) विषयों की भावनाओं से युक्त चित्त प्रतिक्रिया करता ही है । जैसे घी की धाराओं से सिंचित अग्नि धू धू कर जलने लगती है । (३) जीव जब अभिप्राय और अर्थघटन से रहित होता है, तब प्रतिभाव और प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती है । (४) प्रतिभावों का अभाव आत्मा की परम अवस्था । यही समाधि, विशुद्धि अथवा सिद्धि है । (५) तीन कारणों से ये दुष्ट प्रतिभाव उत्पन्न होते हैं । कर्मों के उदय से, पूर्व संस्कारों से और बूरे निमित्त से । (६) चौथा प्रस्ताव ७९ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कारणत्रयतश्च स्युः प्रतिभावाः शुभा अपि । कर्ममान्द्यात् प्रयत्नेन चेतसः सन्निमित्ततः ॥७॥ निमित्ताद्धि शुभाद्भोगी भावमप्यशुभं भजेत् । अशुभाद्योगिनां भावा प्रजायन्ते शुभा अपि ॥८॥ योग्यतामनुसृत्यैवं जायन्ते प्रतिभावनाः । आर्द्रासु मृत्स्वपि बीजे प्ररोहः स्वगुणाश्रयः ॥९॥ निमित्तानां शुभानां वाऽशुभानामुपकर्तृता । मुख्यतां नादधात्यत्र मता कर्मोदयस्य सा ॥१०॥ कर्ममान्द्याय कर्तव्यः प्रयत्नः प्रथमो महान् । किं कुर्वन्ति निमित्तानि सत्सु मन्देषु कर्मसु ॥११॥ चेतसः शुभयत्नेन मन्दत्वं कर्मणां भवेत् । निमित्तैरुत्तमैः प्रायः शुभत्वं चेतसो भवेत् ॥१२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन कारणों से प्रतिभाव शुभ बनते हैं, कर्म की मन्दता से, चित्त के प्रयत्न से और उत्तम निमित्त से । (७) शुभ निमित्त से भोगी व्यक्ति अशुभ भाव भी करता है । अशुभ से भी योगियों के शुभ भाव उत्पन्न होते हैं । (८) योग्यता के अनुसार ही प्रतिभावनाएँ उत्पन्न होती है । गीली मिट्टी में भी बीज से अंकुर अपने गुणों के अनुरुप ही उत्पन्न होता है । (९) शुभ या अशुभ निमित्तों का उपकार मुख्य नहीं है। कर्मोदय की ही मुख्यता है। (१०) कर्म की मन्दता के लिए सबसे ज्यादा प्रयत्न करना चाहिए, कर्मो के मन्द होने पर निमित्त क्या करेंगे ? (११) चित्त के शुभ प्रयत्न से कर्मों की मन्दता होती है। उत्तम निमित्तों के द्वारा प्रायः चित्त की शुभता होती है । (१२) चौथा प्रस्ताव Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ स्वाध्याये च सदाचारे सत्संगे च समर्पितः । त्रिविधश्चेतसो यत्नो भावशुद्धि प्रवर्तयेत् ॥१३॥ सूत्रमर्थं च तात्पर्यं पठन्नेव नवं नवम् । स तीर्थस्पर्शनाभोगी प्राप्नोति विमलात्मताम् ॥१४॥ कंठस्थीकरणानन्दस्समुद्घोषसमन्वितः । सूत्रेष्वेकाग्रतावाही जिह्वापावित्र्यकृन्मतः ॥१५॥ अर्थेष्वर्हन्निरुक्तेषु चित्तधारणया युतः । अभ्यासः परमाह्लादी श्रद्धाकारीति शस्यते ॥१६॥ बोधस्तात्पर्यविज्ञाना-दप्रतिमोऽभिजायते । मनोयोगस्य पद्धत्यां प्रतिस्त्रोतोगतिप्रदः ॥१७॥ आत्मा षट्कारकत्वेन चिन्तयन्नात्मनो दशाम् । मिथ्यात्वमोहनीयानां मन्दतां नेतुमस्त्यलम् ॥१८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय, सदाचार और सत्संग, इन तीनों में चित्त का समर्पित प्रयत्न भावशुद्धि करता है । (१३) सूत्र, अर्थ और उसके नए नए तात्पर्य को पढ़ता हुआ जीव तीर्थस्पर्शना समान लाभ पाकर आत्मा की निर्मलता को प्राप्त करता है। (१४) सूत्रो को ऊँचे स्वर से पढ़ते हुए कंठस्थ करने का आनन्द सूत्रों में एकाग्रता लाता है तथा जिल्ला को पवित्र करता है। (१५) अरिहन्त निरूपित अर्थों में चित्त की धारणा को लगाकर अभ्यास करना परम आह्लादकारी तथा श्रद्धाकारी है । (१६) तात्पर्य ज्ञान होने से ही अप्रतिम बोध होता है, जो मनोयोग की पद्धति में स्रोत के विपरीत जाने की गति प्रदान करता है। (१७) जीव छह कारकों के द्वारा आत्मा की दशा का विचार करते हुए मिथ्यात्व मोहनीय के कर्मो को मन्द करने में सफल होता है । (१८) चौथा प्रस्ताव ८३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आत्माऽस्ति सन्ति कर्माणि कर्मबद्धोऽस्मि चाप्यहम् । कर्मणां फलभागस्मि कर्मनाशेऽस्मि च क्षमः ॥१९॥ तस्य हेतुश्च धर्मोऽस्ति कर्ममोक्षोऽस्ति मे ततः । इत्येवं बोधमापन्नः समर्थः कर्मनिग्रहे ॥ २० ॥ युग्मम् आगमा वृत्तयस्तेषां प्रामुख्याद् बोधदायकाः । तदर्हाः श्रमणा एव व्रतानां पूर्णसाधकाः ॥२१॥ एतैरभ्यस्तसच्छास्त्रैः परमार्थविशारदैः । निर्मिता बहवो ग्रन्थाः स्वाध्यायेषूपयोगिनः ॥२२॥ संवेगरंगशालायाः शक्तिः केनोपवर्ण्यते । प्रगाढभवरागस्य समुच्छेदविधायिनी ॥२३॥ समरादित्यवार्ताया रसो येनान्वभूयत । क्लेशावेशवशित्वेन सर्वथाऽसौ व्यमुच्यत ॥२४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा है । कर्म है और मैं कर्मों से बद्ध हूँ । कर्मों के फलों का भोग मैं करता हूँ और कर्मनाश में भी समर्थ हूँ (१९) कर्मनाश का साधक धर्म है, अतः मेरा कर्मों से मोक्ष सम्भवित है। इस ज्ञान को पाकर ही कर्मों को रोका जाता है। (२०) आगम और उनकी वृत्तियाँ मुख्यरूप से ज्ञानदायक है। उन्हें पढ़ने की योग्यता महाव्रतसाधक श्रमण में ही होती है । (२१) उत्तम शास्त्रों के अभ्यासी, परमार्थ को जानने वाले इन महाव्रतियों ने स्वाध्याय में उपयोगी अनेक ग्रन्थों की रचना की है । (२२) संसार के तीव्र राग का उच्छेद करने वाली संवेगरंगशाला (नामक ग्रन्थ) की शक्ति का कौन वर्णन कर सकता है। (२३) समरादित्य की कथा में जिसे रस का अनुभव हुआ है वह क्लेश के आवेशों से सर्वथा मुक्त बना है । (२४) चौथा प्रस्ताव ८५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमितिप्रपंचा तु प्रतिप्रस्तावमात्मनः । दारिद्र्यनाशनान्नूनं कल्पवृक्षाधिका मता ॥२५॥ अकल्पनीयमध्यात्म-कल्पद्रुममहाफलम् । ममतामोचनं तत्त्वा-लोचनं चात्मरोचनम् ॥२६॥ सद्भावमयूरैर्नृत्तं मनोवन्यां वितन्यते । यत्रास्ति सततं वर्षन् मेघः शान्तसुधारसः ॥२७॥ धन-स्वजनविस्तारे त्यक्ता येन तनौ रतिः । निपीता नियतं तेन पवित्रा भवभावना ॥२८॥ सिन्धुर्बिन्दुस्थितो नूनं योगशास्त्रेऽनुभूयते । समग्रो धार्मिकाचार-स्संक्षेपाद्यत्र दर्शितः ॥२९॥ निश्चयव्यवहाराभ्यां धर्ममार्गोपदर्शकम् । श्रीयोगशतकं सूर्य-चन्द्रज्योतिर्धर नभः ॥३०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमितिभवप्रपंचा कथा अपने प्रत्येक प्रस्ताव के द्वारा आत्मा का दारिद्र्य नाश करती है इस लिए उसे कल्पवृक्ष से अधिक मानी गई है । (२५) अध्यात्म-कल्पद्रुम ग्रन्थ के द्वारा तीन अकल्प्य फल मीलते हैं । तत्त्व का चिन्तन, ममता का विसर्जन, आत्मा का अनुराग । (२६) जहाँ 'शान्तसुधारस' रूपी सतत वर्षा करने वाला मेघ है, वहाँ मन रूपी भूमि में सद्भाव रूपी मोर नाचते हैं । (२७) धन और स्वजन के विस्तार में तथा शरीर में आसक्ति जिन्होंने छोड़ दी, उन्होंने निश्चित ही पवित्र 'भवभावना' ग्रन्थ को पी लिया है । (२८) 'योगशास्त्र' में बिन्दु में सागर स्थित प्रतीत होता है। यहाँ संक्षेप में सम्पूर्ण धार्मिक आचार प्रदर्शित किया गया है । (२९) निश्चय व्यवहार के द्वारा धर्ममार्ग को प्रदर्शित करने वाला 'श्रीयोगशतक' सूर्य और चन्द्र से युक्त आकाश की तरह है । (३०) चौथा प्रस्ताव Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीयोगविंशिकाशास्त्रं यशोवृत्तिसमन्वितम् । स्थानादौ योगमिच्छादेस्तन्वत् स्वर्णं सुगन्धवत् ॥३१॥ योगबिन्दुर्महानिन्दुस्सकलां संश्रितः कलाम् । भव्यात्महृदयाम्भोधि-वेलोल्लासनतत्परः ॥३२॥ विलासायाऽष्टसिद्धीनां विनाशायाऽष्टकर्मणाम् । विभासायाऽष्टयोगानां योगदृष्टिसमुच्चयः ॥३३॥ श्रीप्रशमरतिग्रन्थात् प्रत्यहं च प्रतिक्षणम् । आत्माऽस्मि ह्यहमात्माऽस्मीतीयं जायेत जागृतिः ॥३४॥ आत्मानुभूतिविस्तारं ज्ञानसारं भजन्मनः । सात्त्विक लभते शुद्धां स्वयंसिद्धां प्रसन्नताम् ॥३५॥ आयुषः सफलत्वाय धर्मबिन्दुं समाश्रय । पीयूषाचाममात्रेण सौख्यं निर्व्ययमावहन् ॥३६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘श्रीयोगविंशिका' नामक शास्त्र जो यशोवृत्ति से समन्वित है, सोने में सुगन्ध की स्थान आदि में इच्छादि योग का विस्तार करता है । (३१) श्री 'योगबिन्दु' सोलह कलाओं का धारक बड़ा चन्द्रमा है, जो भव्यात्माओं के हृदय रूपी सागर में ज्वार लाता है । (३२) श्री 'योगदृष्टिसमुच्चय' आठ सिद्धिओं के विलास के लिए, आठों कर्मों के विनाश के लिए, अष्टांग योग को प्रकाशित करने के लिए है । (३३) श्री प्रशमरति ग्रन्थ से प्रतिदिन प्रतिक्षण 'मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, इस प्रकार की जागृति होती है । (३४) आत्मानुभूति का विस्तार करने वाले 'ज्ञानसार' का सेवन करते हुए मन स्वयंसिद्ध, शुद्ध और सात्त्विक प्रसन्नता को प्राप्त करता है । (३५) जीवन की सफलता के लिए 'धर्मबिन्दु' का आश्रय लो. अमृत के आचमन मात्र से अमूल्य सुख प्राप्त करो । ( ३६ ) चौथा प्रस्ताव ८९ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० किं कार्य तत् कथं कार्यं कदा कार्यं च तत् कियत् । तच्छ्राद्धविधिना ज्ञात्वा धर्मचातुर्यवान् भव ॥३७॥ द्रव्यसप्ततिका सप्त- क्षेत्रमंत्रसभा प्रभोः । व्यवस्थाश्चैव तभंग-विपाका यत्र चर्चिताः ॥३८॥ ज्ञातं जीवविचारेण भवचक्रं दुरन्तकम् । भवभीतिस्समुत्पन्ना प्रतिषिद्धा विराधना ॥ ३९॥ नवतत्त्वावबोधेन ज्ञेयोपादेय- हेयगः । विवेको लभ्यते पाप-प्रवृत्तिप्रतिबन्धकः ॥४०॥ षडावश्यकसूत्रेषु महार्थेष्वेकचित्तता । साधनाप्राणभूतेषु साधनीया सदाशयात् ॥४१॥ तत्त्वार्थसूत्रमुत्तुंगं शृंगं सद्द्बोधभूरुहः । वर्तिन्यो वृत्तयो यत्र विविधास्सूरिनिर्मिताः ॥४२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म में क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, कब करना चाहिए और कितना करना चाहिए यह 'श्राद्धविधि' से जानकर धर्म में चतुर बनो । (३७) 'द्रव्यसप्ततिका' प्रभु की सप्तक्षेत्रीय व्यवस्था की चिन्तनसभा है। यहाँ व्यवस्था और व्यवस्थाभंग के विपाक समझाए जाते हैं । (३८) 'जीवविचार' से भवों का चक्र ज्ञात होता है । इससे संसार की भीति उत्पन्न होती है । विराधना का निषेध होता है । (३९) 'नवतत्त्व' से पाप की प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक एवं उपादेय, ज्ञेय, और हेय का बोध कराने वाला विवेक प्राप्त होता है । (४०) साधना के प्राणभूत, महान् अर्थवाले ‘षडावश्यक सूत्रो' में शुभाशय के साथ एकाग्रचित्त बनना चाहिए । (४१) 'तत्त्वार्थसूत्र' ऊंची चोटियों वाला सम्यग् ज्ञान का पर्वत है, जिस पर पूर्वसूरिविरचित वृत्तिआँ पगदण्डी की तरह फैली है । (४२) चौथा प्रस्ताव Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ आस्वादो मधुरो बोधः स्पष्टो श्रद्धा विकस्वरी । स्वाध्याये गूर्जर श्रीमत् सम्यक्त्वसप्ततिस्पृशि ॥ ४३ ॥ श्रीप्रवचनसाराणा-मुद्धारोऽधीयते यदि । सर्वेषामागमानां तद् रहस्यं जायते स्फुटम् ॥४४॥ द्रव्यं क्षेत्रं च कालं च भावं लोकप्रकाशतः । ज्ञात्वा सद्दृष्टिवान् जातो नोन्मार्गे याति मानवः ॥४५॥ त्रिषष्टिचरितेऽम्भोधौ कथाः कल्लोलसोदराः । स्तवाश्च देशनाश्चात्र स्फारमुद्घोषणास्वराः ॥४६॥ कर्मणामष्टभेदानां बोधं सोत्तरप्रकृति । कर्मग्रन्थेन संप्राप्तो बन्धहेतून् त्यजेत् सुखम् ॥४७॥ अन्येऽपि संख्ययाऽगम्या ग्रन्थास्सन्ति शिवंकराः । येषामभ्यासतस्तत्त्व-ज्ञानोल्लासस्समन्ततः ॥४८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकित के सडसठ बोल की सज्झाय से मधुर आस्वाद, स्पष्ट बोध तथा विकसित श्रद्धा मिलती है । (४३) से जारि विमोठार यदि 'श्रीप्रवचनसारोद्धार' का अध्ययन किया जाए तो सभी आगमो का रहस्य स्पष्ट हो जाता है । (४४) "लोकप्रकाश' से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानकर सम्यक्दृष्टि बना मनुष्य उन्मार्ग पर नहीं जाता है । (४५) "त्रिषष्टिशलाकाचरित' नामक ग्रन्थ समुद्र है। यहाँ कथाएँ लहरी है। स्तुति और देशना जलगर्जना के स्वर है । कर्मग्रन्थ से उत्तर प्रकृतियों सहित कर्मों के आठ भेदों का ज्ञान प्राप्त कर के कर्म बन्ध के हेतुओं का सहज त्याग करना चाहिए । (४७) अन्य भी असंख्य कल्याणकारी ग्रन्थ है, जिनके अध्ययन से तत्त्वज्ञान पूर्णतया समुल्लसित होता है । (४८) चौथा प्रस्ताव Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारैकसमाधीनं चित्तमासीदनादितः । ग्रन्थानां मुहुरभ्यासात् तच्छुभाध्यासितं भवेत् ॥४९॥ यथा यथा भवेत् पाठस्तथा मिष्टो रसस्त्रवः । रसादेकाग्रतासिद्धि-रात्मशुद्धिस्ततः परा ॥५०॥ ग्रन्था हि तत्त्वचिन्तासु योजनीया स्थिरात्मना । स्मृत्येकगोचरा नैव विधातव्या मनीषिणा ॥५१॥ ये गुणा अवगम्यन्ते लभ्यन्ते ते कथं मया । दोषा ये केऽपि लक्ष्यन्ते त्याज्यन्ते ते कथंतया ॥५२॥ ज्ञेयं विज्ञाय कर्तव्ये समद्योगो विधीयते । इत्यादिभावनां धृत्वा स्वाध्यायस्सेव्यते सदा ॥५३॥ सुदेवे सद्गुरौ नित्यं सद्धर्मे करणं शुभम् । दान-शील-तपो-भावास्सदाचारो व्रतान्यपि ॥५४॥ श्रीसंवेगरतिः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त अनादिकाल से एकमात्र संसार के अधीन था । ग्रन्थों के निरन्तर अध्ययन से वह शुभ में स्थित होता है । (४९) जैसे जैसे पाठ किया जाता है वैसे वैसे आत्मा में आनंद के मधुर रस का स्राव होता है । रस से एकाग्रता सिद्ध होती है, उससे परम आत्मशुद्धि होती है । (५०) आत्मा को स्थिर बनाकर ग्रन्थ का उपयोग तत्त्वचिन्ता में करना चाहिए । विद्वान उन्हें केवल कण्ठस्थ करके न रूके । (५१) ज्ञात गुणों को मैं कैसे प्राप्त करूँ, जो दोष दिखाई देते हैं उनका कैसे त्याग किया जाए ? (५२) जानने योग्य को जानकर करणीय में उद्यम करना चाहिए, यह भावना धारण कर के सदा स्वाध्याय का सेवन करना चाहिए । (५३) हंमेशा सच्चे देव, गुरु और धर्म के विषय में शुभ कार्य करने चाहिए । दान, शील, तप, भाव, सदाचार और व्रत भी आचरने चाहिए । (५४) चौथा प्रस्ताव ९५ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियमाणा क्रिया प्रायश्चेतसा सह जायते । ततः संस्कारनिर्माणं सततासेवनाद् भवेत् ॥५५॥ मनोरथः सुकार्याणां स्वीयशक्त्याः परीक्षणम् । करणे निर्णयः कार्ये हर्षः स्मृत्यामनुस्थितिः ॥५६॥ इति प्रत्येककार्येषु पंचधा यः प्रवर्तते । तस्य सद्धर्मसंस्कारैः चेतना वासिता भवेत् ॥५७॥ युग्मम् ज्ञानस्य दर्शनस्यैवं चरित्र-तपसोः शुभा । क्रियैवाऽस्ति सदाचारो वीर्याचारोपबंहिता ॥५८॥ नित्यो नैमित्तिकश्चेति द्विधाऽऽचार: समुच्यते । तं तं कुर्वन् यथायोग्यं धर्मात्मा संस्कृतो भवेत् ॥५९॥ श्रीमतामहतां बिम्बं निर्ग्रन्थो भगवान् गुरुः । शुभं कल्याणमित्रं च कातैः शुभसंगतिः ॥६०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान क्रिया चित्त के साथ जुडकर होती है, उसके बाद सतत सेवन से संस्कार निर्माण होता है । (५५) अच्छे कार्य करने की इच्छा, फिर अपनी शक्ति का परीक्षण, कार्य करने का निर्णय, कार्य करते हुए हर्ष तथा उस कार्य का सदा स्मृति में रहना । (५६) इस प्रकार प्रत्येक कार्य में जो पाँच प्रकार से प्रवर्तित होता है उसकी चेतना धर्म के संस्कारों से रंजित हो जाती है । (५७) ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप की वीर्याचार से संपुष्ट क्रिया ही शुभ कार्य है । (५८) आचार दो प्रकार का बताया जाता है । नित्य और नैमित्तिक । उन आचारों का पालन करते हुए धर्मात्मा संस्कारवान् होता है । (५९) श्री अर्हन्तों की मूर्ति और निर्ग्रन्थ गुरू तथा उत्तम कल्याणमित्र के साथ शुभ संगति करनी चाहिए । (६०) चौथा प्रस्ताव ९७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौन्दर्यं भगवन्मूर्तेर्भावपूर्णो निभालयन् । कृतकृत्योऽन्तरानन्द-निमग्नः संस्तवेज्जिनम् ॥६१॥ निधायोत्तमसामग्री भक्तिभागर्चनाविधौ । याचेताऽध्यात्मलाभेन परमात्मदशां निजाम् ॥१२॥ कल्याणकैः पवित्राणि तीर्थाण्यन्यानि चादरात् । विहरन् कुरुते धन्यो रजसोऽल्पत्वमात्मनि ॥६३॥ सम्मेतशिखरे चम्पा-पुर्यां काश्यां च रैवते । अयोध्यायामपापायां यात्राभिर्भावयेन् मनः ॥६४॥ शत्रुजये च तारंगे पत्तने चार्बुदाचले । शंखेश्वरे च प्रह्लाद-पुरे यात्रा गुणावहा ॥६५॥ अन्यान्यन्यानि तीर्थाणि धराधाराणि संस्पृशन् । तेषां पावित्र्यसांगत्याद् नूनं निर्मलयेद् निजम् ॥६६॥ श्रीसंवेगरतिः Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की मूर्ति का सौंदर्य भावपूर्वक देखकर कृतकृत्य बने । आन्तरिक आनन्द में मग्न होकर जिन भगवान का स्तवन करे । (६१) भक्तिवान् होकर पूजा विधि करे उत्तम सामग्री रखें । अध्यात्म की उपलब्धि से अपनी आत्मा की परमात्मदशा पाने की याचना करें । (६२) पंचकल्याणकों से पवित्र तीर्थक्षेत्र और अन्य तीर्थों की भावपूर्वक यात्रा करके धन्य व्यक्ति अपनी आत्मा से कर्मरज को कम करता है । (६३) सम्मेतशिखर, चम्पापुरी, काशी, गिरनार पर्वत, अयोध्या और पावापुरी की यात्रा करके मनको भावित करें । (६४) शत्रुजय, तारंगाजी, पाटन, आबु, शंखेश्वर और प्रह्लादपुर की यात्रा गुणकारी होती है। (६५) पृथ्वी के आधारभूत अन्य तीर्थों की पवित्र संगति से अपने आपको निर्मल करें । (६६) चौथा प्रस्ताव Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अष्टादशसहस्त्रेषु शीलांगेषु समर्पिताः । श्रमणा दर्शनादेव पापानामपहारकाः ॥६७॥ तेषामाज्ञैकनिष्ठानामनघाचरणावताम् । निःस्पृहाणां कृपार्द्राणां शृणुयाद् वाचमुत्तमाम् ॥६८॥ मुनीनां सिद्धधर्माणां संगमः सेवना स्तवः । अपूर्वलाभकारित्वादवन्ध्यं मुक्तिकारणम् ॥६७॥ वसन्ति हृदये येषां साधवो धर्मकर्मठाः । तेषामज्ञानजाद् दुःखा-न्न क्वचिद् वर्तते भयम् ॥७०॥ प्रेरणाद् बोधदानाच्च वासकत्वाच्छुभैर्गुणैः । संशयच्छेदकत्वाच्च साधवस्स्युस्सहायकाः ॥ ७१ ॥ साधूनां विनये निष्ठः साधूनात्मनिवेदकः । साधुसम्बोधितो धन्यस्साधुभिः संस्कृतो भवेत् ॥७२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारह हजार शील के अंगों का पालन करनेवाले साधु, दर्शनमात्र से पापों को दूर कर देते हैं । (६७) साधु जिनाज्ञा के पालक होते हैं, पवित्र आचरण करते है, निःस्पृह होते हैं, कृपावान् होते हैं । ऐसे साधु की वाणी का श्रवण करें । (६८) मुनिजनोने धर्म सिद्ध कर लिया है । उनकी संगति, सेवा, स्तुति, अपूर्व लाभकारी होने से मुक्ति का अमोघ कारण बनती है । (६९) जिनके हृदय में ऐसे धर्म कार्यों में निरत साधु निवास करते हैं उन्हें अज्ञान से उत्पन्न दुःख से कभी भय नहीं होता । (७०) साधु प्रेरणा देने से, ज्ञान देने से, शुभ गुणों से युक्त करने से, संशयों का छेदन करने से सहायक होते हैं । (७१) साधुओं का विनय करने वाला, साधुओं से आत्मनिवेदन करने वाला, साधुओं से सम्बोधित होनेवाला धन्य प्राणी साधुओं के द्वारा संस्कारवान् बनता है । (७२) चौथा प्रस्ताव १०१ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मस्योदीरणाकृत्त्वं कल्याणमित्रलक्षणम् । धर्मेणाभ्यधिकस्तुल्यो न्यूनो वा सम्भवेदयम् ॥७३॥ धर्मश्रद्धासमिद्धात्मा धर्माचारविशारदः । धर्माभ्यासरतो नित्यं मत: श्रेयःसखा वरः ॥७४॥ तेन साकं प्रयुंजीत धर्मं तत्प्रेरितो भजेत् । तन्निषिद्धान्निवर्तेत नैतदिच्छामतिक्रमेत् ॥५॥ सदा तस्यादरं कुर्यात् तद्धर्मं चाभिवादयेत् । मार्गदर्शकतां चास्य स्वीकर्यादात्मशोधने ॥७६॥ निमित्तैरितरैरेवं शुभात् संस्कारसंग्रहात् । प्रतिभावान् शुभान् गच्छन् शुभाभिप्रायवान् भवेत् ॥७७॥ १०२ श्रीसंवेगरतिः Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की उदीरणा करना कल्याणमित्र का लक्षण है। वह धर्म में अधिक समान या न्यून हो सकता है। (७३) धर्मश्रद्धा से जिसकी आत्मा युक्त है, धर्म के आचरण को जो जानता है, जो नित्य धर्म के अभ्यास में लगा हुआ है उसे श्रेष्ठ कल्याणमित्र समझना चाहिए । (७४) कल्याणमित्र के साथ में धर्म का पालन करें। उनकी प्रेरणा से कार्य करें। उनका निषेध हो वहाँ से निवृत्त हो जाए । उनकी इच्छा का अतिक्रमण न करें । (७५) सदा उनका आदर करें। उनकी धर्मसाधना का अभिवादन करें। आत्मशुद्धि के लिए उन्हें मार्गदर्शक माने । ( ७६ ) इसी प्रकार अन्य निमित्तों के द्वारा शुभ संस्कार का ग्रहण करे, शुभ प्रतिभावों को प्राप्त करे और शुभ अभिप्राय प्राप्त करें। (७७) चौथा प्रस्ताव १०३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः प्रस्तावः मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-मोहनीय-प्रवर्तितम् । सुखं दुःखं च तन्नाशात्-तयोरपगमो भवेत् ॥१॥ अपूर्णे हि मतिज्ञान-श्रुतज्ञाने स्वभावतः । तयोरेवोत्थितो बोधोऽपूर्णः सौख्यादिको न किम् ॥२॥ केवलज्ञानलाभेन विघटेते मतिश्रुते । मोहनीयापहारेण सौख्यदुःखवियोजना ॥३॥ यावन्मत्यादिकं तावद् न ज्ञानं पूर्णमाप्यते । यावन्मोहोदयस्तावत् सुखं पूर्णं न लभ्यते ॥४॥ ननु सौख्यं च दुःखं च ज्ञानस्यानुभवद्वयम् । मोहनीयापहारे तु सौख्यमेवोपजायते ॥५॥ दुःखरूपस्य बोधस्य यत्राभावोऽस्ति चेतने । तत्र ज्ञानस्य पूर्णत्वं कथं नाम निगद्यते ॥६॥ युग्मम् १०४ श्रीसंवेगरतिः Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवा प्रस्ताव प्रायशः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मोहनीय के कारण सुख और दुःख होते हैं । इन तीनों के नाश से सुख-दुःख नष्ट हो जाते हैं । (१) स्वभाव से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अपूर्ण है। उनसे उत्पन्न ज्ञान भी अपूर्ण होता है। फिर सुख आदि भी अपूर्ण क्यों नहीं होंगे ? (२) केवल ज्ञान होने पर मति और श्रुत ज्ञान नष्ट हो जाते हैं । मोहनीय के नष्ट हो जाने पर सुख और दुःख नष्ट हो जाते हैं । (३) जब तक मति आदि ज्ञान है, तब तक पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं होता । उसी प्रकार जब तक मोहनीय कर्म है, तब तक पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता । (४) प्रश्न :- सुख और दुःख दोनो ज्ञान के अनुभव है। मोहनीय के नष्ट होने पर सिर्फ सुखात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है । (५) दुःखात्मक ज्ञान का अभाव यदि माना जाए तो ज्ञान का पूर्णत्व कैसे माना जा सकता है । (६) पाँचवा प्रस्ताव १०५ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ समाधानमिदं ज्ञेयं सावधानैस्समासतः । मोहनीयोदयो दुःखं तदभावः सुखं मतम् ॥७॥ मोहनीयानुवेधेन सौख्यं यदपि जायते । बालानां मृत्तिकास्वाद - तुल्यत्वात्तन्न गण्यते ॥८॥ कर्मोदयानुविद्धत्वाद् विकृतां बोधपद्धतिम् । आत्मा संश्रितवान् तस्यास्सुखं दुःखं च जायते ॥९॥ मोहनीयांश एवास्ति दुःखं रोगस्तनाविव । स्वस्मादन्यस्वरूपेऽपि स्व-स्वरूपेण भासते ॥ १० ॥ चेतनायाः समुल्लासस्सुखस्यानुभवे भवेत् । चेतनायाश्च संकोचो दुःखस्यानुभवे भवेत् ॥११॥ चेतना स्थिरतां प्राप्ता कर्मणां विगमे सति । आत्मनो मूलरूपेण शुद्धं सौख्यं निगद्यते ॥१२॥ श्रीसंवेगरतिः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस (शंका) का संक्षेप में यह समाधान सावधान होकर जान लो मोहनीय का उदय दुःख है, उसका अभाव सुख है। (७) मोहनीय के मिश्रण से जो सुख उत्पन्न होता है, वह बच्चों के मिट्टी खाने के आनन्द की तरह नगण्य है । (८) कर्मोदय से अनुविद्ध होने के कारण आत्मा विकृत ज्ञान का आश्रय लेता है। उस विकृत ज्ञानपद्धति के कारण सुख-दुःख उत्पन्न होते है । (९) जैसे रोग शरीर का स्वभाव नहीं है फिर भी शरीर में उत्पन्न होता है वैसे कर्म के अंश स्वरूप दुःख भी आत्मा का स्वभाव नहीं है फिर भी आत्मा में उत्पन्न होता है । (१०) सुख के अनुभव में चेतना का समुल्लास तथा दुःख के अनुभव में चेतना का संकोच होता है। (११) कर्मों के नष्ट होने पर चेतना स्थिरता को प्राप्त कर लेती है, उसी स्थिरता को आत्मा का मूलभूत शुद्ध सुख कहा जाता है। (१२) पाँचवा प्रस्ताव १०७ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ननु संगीतमास्वाद्य दृष्ट्वा पुष्पादिसुन्दरम् । आस्वाद्य मधुरान्नं च स्वतंत्रोऽनुभवः सुखम् ॥१३॥ तथा कंटकवेधेन क्षुधाजागरणेन च । रोगादिसंकटे दुःखं स्वातंत्र्यादनुभूयते ॥१४॥ यद् यथाऽस्ति तथा तस्य वेदने विकृतिः कुतः । तथात्वे सति सर्वज्ञो विकृत्या दूषितो भवेत् ॥१५॥ अत्रोच्यते चेतनाया निमित्तैरनुवर्तिता । कर्मविक्षोभिताऽवस्था सुखे दुःखे च दृश्यते ॥ १६ ॥ काचे रंगांचिते नेत्रै - र्लोकिते पारदर्शिनि । अतथास्थमपि रूपं तथात्वेन विलोक्यते ॥ १७ ॥ नेत्रयोरत्र को दोषो दोषोऽस्ति रंगसंगतेः । जीवस्यास्तीह को दोषो दोषो मोहस्य केवलम् ॥१८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न :- संगीत को सुनकर, सुन्दर पुष्पादि को देखकर, स्वादिष्ट अन्न का आस्वाद पाकर सुख का स्वतन्त्र अनुभव होता है । (१३) उसी प्रकार काँटे चुभने पर, भूख लगने पर, रोगादि के संकट में दुःख का स्वतन्त्र रूप से अनुभव होता है । (१४) जो जैसा है, उसकी उस रूप में संवेदना होती है तो उसे विकृति कैसे कह सकते है ? ऐसा मानने पर तो सर्वज्ञ को भी विकृति से दूषित मानना होगा । (१५) चेतना की निमित्तों की वशवर्तिता और कर्म की विक्षोभावस्था सुख और दुःख में दिखाई देती है । (१६) रंगे हुए काच के आरपार से देखने पर वस्तु रंगरूप में जैसी नहीं होती है वैसी दिखती है । (१७) यहाँ आँखों का क्या दोष है, दोष तो रंग के होने का है। जीव का यहाँ क्या दोष है, दोष केवल मोह का है । (१८) पाँचवा प्रस्ताव १०९ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविवेकोऽयथारूप-बोधस्यैकनिबन्धनम् । चित्तं भावातुरं कुर्याद् निमित्तानुगमे सति ॥१९॥ क्षारन्यासाज्जलं मूलान्-माधुर्यादपचीयते । एवं कर्मोदयादात्मा स्वभावाद् दूरतो व्रजेत् ॥२०॥ सर्वसंवेदनेष्वात्मा सापेक्षः कर्मणां प्रति । सौख्ये दुःखे समापन्ने स्वतंत्रो नैव वर्तते ॥२१॥ इन्द्रियेष्वनुकूलानां लाभेऽन्येषां च संगमे । देहद्वारेण संवेत्ति कर्माधीनः सुखादिकम् ॥२२॥ देहादात्मा विभिन्नोऽपि देहेनाऽनुभवन् जगत् । सुखं दुःखं च देहस्थ-मात्मस्थत्वेन मन्यते ॥२३॥ कषायनोकषायाणां मिथ्यात्वस्यापि कारणाद् । तनावात्मभ्रमोत्पाद आत्मनोऽनादिकालतः ॥२४॥ ११० श्रीसंवेगरतिः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयथार्थ बोध का एक कारण अविवेक है, जो निमित्त के अनुसरण करने पर चित्त को भावातुर कर देता है । (१९) नमक डाल देने से पानी अपने मूल माधुर्य से दूर हो जाता है, उसी प्रकार कर्मोदय से आत्मा स्वभाव से दूर हो जाता है । (२०) सभी संवेदनाओं में (सुख दुःख के अनुभव में) आत्मा कर्म के प्रति सापेक्ष रहता है । सुख दुःख आने पर भी उसका अनुभव स्वतन्त्र नहीं रहता । (२१) कर्मों के अधीन आत्मा देह के माध्यम से इंद्रियों को अनुकूल प्राप्त होने पर सुखका प्रतिकूल और प्राप्त होने पर दुःख का संवेदन करता है । (२२) देह से भिन्न होने पर भी आत्मा देह के द्वारा जगत का अनुभव करता है इसलिए देह में स्थित सुख-दुःख को वह आत्मा के सुख-दुःख मानता है । (२३) कषाय, नोकषाय और मिथ्यात्व के कारण आत्मा को अनादिकाल से शरीर में आत्मा का भ्रम उत्पन्न हुआ है । (२४) पाँचवा प्रस्ताव १११ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृत्वं चैव भोक्तृत्वं जीवस्येदं भ्रमद्वयम् । कर्मसाचिव्यतोऽनादे-निदानं सकलापदाम् ॥२५॥ वपुरात्मानमाक्रान्तं कर्मणा प्राप्तनिर्मिति । वैषम्यान् मोहनीयस्या-द्वैतत्वेनानुभूयते ॥२६॥ जलेनाऽन्तःप्रविष्टेन दुग्धस्य क्षीयते यथा । स्निग्धत्वं गाढमाधुर्यं शिष्यते शुक्लवर्णता ॥२७॥ स्वातंत्र्यात् सर्ववेतृत्व-मात्मनः कर्मणा हृतम् । कर्तृत्वं चैव भोक्तृत्वं केवलं चावशेषितम् ॥२८॥ देहादहं विभिन्नोऽस्मि तद् ज्ञातुं नैव शक्यते । आत्मन्येव प्रवृत्तस्स्यां तदज्ञानान्न चिन्त्यते ॥२९॥ चेतना वर्तते जीवे पराधीना च सा तनोः । तत्तन्वेकाऽनुयोगेन ज्ञानमस्योपजायते ॥३०॥ ११२ श्रीसंवेगरतिः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये जीव के दो भ्रम है । अनादिकाल से कर्म की संगति के कारण ये भ्रम होते है । ये भ्रम समस्त आपत्तियों के घर है । (२५) शरीर कर्म के कारण बना है। शरीर आत्मा पर आक्रान्त है । मोहनीय कर्म की विषमता से शरीर और आत्मा एकरूप प्रतीत होते हैं । (२६) मला व मान मिल को की निगाह दूध में पानी मिलने पर जैसे दूध की स्निग्धता, गाढ मधुरता कम हो जाती है, केवल सफेद रंग शेष रहता है । (२७) उसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से आत्मा का जो सर्वज्ञ स्वभाव है, वह संसार में कर्मों के द्वारा दबा दिया जाता है । केवल कर्तृत्व और भोक्तृत्व शेष रहता है । (२८) देह से मैं भिन्न हूँ, यह जानना सम्भवित नहीं होता । अज्ञान के कारण आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति का चिन्तन नहीं हो सकता । (२९) चेतना जीव में है । वह शरीर को पराधीन है । अतः शरीर के द्वारा ही जीव को ज्ञान होता है । (३०) पाँचवा प्रस्ताव ११३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शादिगोचरैः पंच-प्रकारैर्देहसंगतैः । सुखं स्यादनुकूलैश्च प्रतिकूलैश्च वेदना ॥३१॥ वस्तुतो विषया पंच नात्मानमुपकारिणः । देहानामुपकारित्वाद् आत्मा संवेत्ति तान् तथा ॥३२॥ आश्चर्यं परमं ह्येतद् जडं कर्म जडा तनुः । आत्मानमत्र बध्नीतस्तस्य चेतनयैव हा ! ॥३३॥ कर्मणा वासिता देह-संचार्या जीवचेतना । अपूर्णानुभवोद्भ्रान्ता सुखे दुःखे च भ्राम्यति ॥३४॥ कर्मणा रहिता देह-विमुक्ता जीवचेतना । संपूर्णानुभवोन्मत्ता सुखैर्दुःखैर्न बाध्यते ॥३५॥ अपेक्षायामहंकारे वर्तमानाऽऽत्मचेतना । कषायोदयनिर्बद्धा सुखे दुःखे प्रवर्तते ॥३६॥ ११४ श्रीसंवेगरतिः Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह के सम्पर्क में आए हुए पाँच प्रकार के विषयों का पाँच इन्द्रिय से ज्ञान होता है । वह अनुभव यदि अनुकूल बने तो सुख होता है, प्रतिकूल बने तो दुःख होता है। (३१) वास्तव में ये पाँचों विषय आत्मा के उपकारी नहीं है । वे शरीर के उपकारी होते हैं । और आत्मा उन्हें आत्मानुभव मान लेता है । (३२) यह परम आश्चर्य है कि कर्म जड़ है। शरीर भी जड़ है । आत्मा की चेतना के द्वारा ही ये दोनों आत्मा को बाँधते है । (३३) देह में संचार करने वाली जीव की कर्मवासित चेतना अपूर्ण अनुभव में फंसकर सुख और दुःख में भ्रमण करती रहती है । (३४) कर्म से रहित, देह से छूटी हुई, सम्पूर्ण अनुभव में आनन्दमग्न जीव की चेतना सुख और दुःख से बाधित नहीं होती है । (३५) अपेक्षा और अहंकार में स्थित आत्मचेतना कषाय के उदय से बद्ध होकर सुख और दुःख में प्रवर्तित होती है । (३६) पाँचवा प्रस्ताव Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्मनोवर्गणाग्राह-निदानं चिन्तनादिकम् । अपेक्षाऽपूर्तितो दुःखं भवेत् सौख्यं च पूर्तितः ॥३७॥ तनुना मनसा बोधो योऽपि जीवस्य जायते । स कर्मसहचारित्वाद् दुःखमेव निरन्तरम् ॥३८॥ केवली भगवान्नास्ति देहचित्तजबोधवान् । अशारीरमचित्तं च ज्ञानमेतस्य भासते ॥३९॥ सा शान्तिः सैव सन्तोषः सा तृप्तिः सैव सद्गुणः । शरीरान्मनसोऽजातं सुखं यत्राऽस्त्यनन्तकम् ॥४०॥ यावन्नैतत् समुत्पन्नं तावत् सोढव्यमात्मना । दुःखं निर्दलितानन्दं कन्दं द्वेषस्य दुर्भगम् ॥४१॥ ततश्चायातदुःखेषु कर्तव्यं तत्त्वचिन्तनम् । प्रतिकारैरनाश्यानां चिन्तनैरस्तु वारणम् ॥४२॥ ११६ श्रीसंवेगरतिः Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायोदय से मनोर्गणा का ग्रहण होता है । मनोवर्गणा के कारण चिन्तनादि होते हैं। अपेक्षाभंग होने से दुःख तथा अपेक्षा की पूर्ति होने सुख होता है । (३७) शरीर और मन के माध्यम से जीव को जो भी बोध होता है, वह कर्म सहचरित है अतः निरंतर दुःख है । (३८) भगवान केवली का ज्ञान, देह और चित्त के माध्यम से उत्पन्न नहीं होता है । उनका ज्ञान शरीर और मन की सहायता के बिना स्वयं प्रकाशमान है । (३९) वही शान्ति है। वही सन्तोष है। वही तृप्ति है। वहीं सद्गुण है। जहाँ शरीर और मन के बिना उत्पन्न अनन्त सुख है । (४०) जब तक केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उसे सुख और दुःख को सहना होगा । दुःख आनन्द को नष्ट करता है और द्वेष का मूल है । ( ४१ ) अतः दुःख के आने पर तत्त्व का चिन्तन करना चाहिए । जिन दुःखों का कोई प्रतिकार नहीं है उनका प्रतिकार तत्त्वचिन्तन से ही होता है । (४२) पाँचवा प्रस्ताव ११७ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ चिन्तयेत् पूर्वपापित्वं कर्मनाशं समन्ततः । अननुभूतदुःखानि नैयत्यं च भवस्थितेः ॥४३॥ स्वभावं वपुषः पूर्व- महर्षीणां च साधनाम् । वैयर्थ्यं स्पष्टमिच्छायाः सुखानां चावधिस्थलम् ॥४४॥ युग्मम् दुःखरूपैस्समायातं पापमेतन्मदीयकम् । अनेकभवसंक्रान्तं जन्मान्तरप्रवर्तकम् ॥४५ ॥ निरानन्दो निरुत्साहो विवशोऽहं सहे यदि । तदा नवीनकर्णौघैर्बद्धस्स्यामहमातुरः ॥४६॥ दुष्टान्यनेककर्माणि कृतान्यत्यन्तरागतः । अद्य तान्यभ्युपेतानि ममैवेयं क्षतिः खलु ॥४७॥ नाकरिष्यमहं तादृग् दुष्कर्म पूर्वजन्मनि । नाभविष्यमहं दुःख-भाजनं जन्मनीह तत् ॥४८॥ श्रीसंवेगरतिः Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख आए तब आठ विषय पर चिन्तन करे । पूर्वकृत पापों का, कर्मों के सम्पूर्ण नाश का, जिन दुःखों का अनुभव नहीं किया है उन दुःखों का तथा संसार की नियति का विचार करना चाहिए । (४३) शरीर के स्वभाव का और पूर्वकालीन मुनिओ की साधनाओं का, इच्छाओं की व्यर्थता तथा सुखों के अस्थायित्व का विचार करना चाहिए। (४४) मेरा ही यह पाप आज दुःखरूप में उपस्थित हुआ है । यह अनेक जन्मो से चला आया है । और जन्मान्तर का कारण । (४५) इस दुःख को यदि मैं आनन्दरहित उत्साहहीन होकर विवश की तरह आर्तभाव से सहूँगा, तो मेरे इस आर्त ध्यान से नये कर्मसमूह का बन्धन होगा । (४६) मैंने (पूर्वजन्म में) अनेक दुष्ट कार्य किए है । आज वे मिलकर उपस्थित हुए हैं I यह मेरी ही गलती का परिणाम है । (४७) यदि मैने पूर्वजन्म में वैसे पाप नहीं किए होते, तो इस जन्म में दुःख का पात्र नहीं बना होता । (४८) पाँचवा प्रस्ताव ११९ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकुर्यामहमेतानि ममातीतोत्थितान्यरम् । मया कृतस्य भोक्तव्यं फलं ननं मयाऽखिलम् ॥४९॥ कर्माणि मम नश्यन्ति सहमानोऽस्मि चेदहम् । आत्मनो भारमुक्तत्वं चाविर्भवति सुन्दरम् ॥५०॥ मय्यभ्यागतदुःखेभ्यो-ऽन्यानि दुःखानि भूरिशः । सन्ति तैविधुरोऽस्मीति भाग्यमेवास्ति जागृतम् ॥५१॥ अप्राप्तसौख्यचिन्ताभि-दु:खं जायेत यादृशम् । अप्राप्तदुःखचिन्ताभिस्सुखं जायेत तादृशम् ॥५२॥ दुःखे दुःखाधिकं पश्येद्-इत्येतद् युक्तिमद् वचः । अनावृत्तपदे दग्धो पंगुं दृष्ट्वाऽभवत् सुखी ॥५३॥ मरौ गतो रजोराशे-रन्यत् किं लप्स्यते ननु । भवे जातोऽपि दुःखानि विहायान्यत् किमाप्नुयात् ? ॥५४॥ १२० श्रीसंवेगरतिः Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं अपने पूर्वजन्म के पापों के फलों को सहन करूँगा । अपने किए हुए कर्म का पूरा फल मुझे भोगना ही चाहिए । ( ४९ ) यदि मैं इन्हें सहन कर लूँगा, तो मेरे कर्म नष्ट हो जाएँगे । आत्मा का कर्मों के भार से मुक्त सुन्दर रूप प्रकट होगा । (५०) जगत् में बहुत से बड़े बड़े दुःख है, उनके सामने मेरा दुःख कुछ भी नहीं है । यह मेरा भाग्य ही है, कि उन आपदाओं से मैं मुक्त हूँ । (५१) I जो सुख प्राप्त नहीं है, उनका चिन्तन से करने से दुःख होता है । उसी प्रकार जो दुःख प्राप्त नहीं हुए हैं, उनका चिन्तन करने से सुख होता है । (५२) दुःख आने पर अधिक दुःखी की और देखना चाहिए, यह तर्कसंगत वचन है । नंगे पैरों के कारण धूप में पैरो की जलन सहन करने वाला आदमी लंगड़े को देखकर सुखी हुआ था । (५३) मरूस्थल में जाने पर धूलि के अलावा क्या प्राप्त होगा ? संसार में उत्पन्न होने पर भी दुःख को छोड़कर और क्या प्राप्त करेंगा ? (५४) पाँचवा प्रस्ताव १२१ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ यावत् कर्मक्षयो नास्ति तावद् दुःखं प्रवर्तते । संजाते कर्मनाशे तु कुतो दुःखपरम्परा ॥५५॥ शरीरं लालितं नित्यं दुःखकाले प्रकम्पते । दृढेन मनसा शिक्षाम् - आपन्नं तु न खिद्यते ॥५६॥ क्रीडायुद्धादिदृष्टान्तात् कायः सहनतत्परः । स्वसंकल्पोपमानेन भवेद् दुःखेऽपि सौख्यवान् ॥५७॥ सह्यते यन्न दुःखं तद् दुर्बलत्वं मनःस्थितेः । मनसः सत्त्वशालित्वं निर्मातव्यं सुखेच्छुना ॥५८॥ श्रीवीरभगवानर्हन् यावद् द्वादशवर्षकम् । उपसर्गान्निरुच्चारं सहित्वा तीर्थपोऽभवत् ॥५९॥ व्याघ्रीदन्तैर्नष्टदेहो महासाधुः सुकोशलः । आत्मैकध्यानवान् यातो मोक्षमानन्दसागरम् ॥६०॥ श्रीसंवेगरतिः Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक कर्मों का नाश नहीं होता, तब तक दुःख रहता ही है । कर्मों का नाश होने पर दुःख की परम्परा कहाँ रहेगी ? (५५) मेरा इतना लालनपालन किया हुआ शरीर दुःख के समय में काँपने लगता है। किन्तु यदि मन की दृढ़तापूर्वक उसे शिक्षित किया जाए, तो वह क्लेश नहीं पाता है । (५६) जैसे खेलों के लिए या युद्ध के लिए शरीर को सहनशील बनाया जाता है । उसी प्रकार अपने संकल्प से जीव दुःख में भी सुखी बन सकाता है । (५७) सहनलाल बहा नहीं जाता, यह मन का दुःख सहा नहीं जाता, यह मन की दुर्बलता है । सुख चाहते हो तो मन को सहनशील बनाए । (५८) अरिहंत भगवान महावीर बारह वर्ष तक मौन से उपसर्ग सहन कर के ही तीर्थंकर हुए थे । (५९) व्याघ्री के द्वारा काँटे जाने से जिनका शरीर नष्ट हो गया, ऐसे सुकोशल महामुनि उस तीव्र कष्ट के समय भी आत्मा के ही ध्यान में लगे रहने के कारण आनन्द के सागर रूप मोक्ष को पा सके । (६०) पाँचवा प्रस्ताव १२३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यवस्त्रादिभोगाढ्यः शालिभद्रः सुकोमलः । अग्निशय्यासमां शिलां संश्रितोऽसाधयच्छुभम् ॥६१॥ सीता गर्भवती त्यक्ता रामेणोइंडकानने । भीताऽपि नागता दैन्यं कर्मलीलाविचारिका ॥२॥ अन्येऽपि दुःखभारेण निस्त्रुटितप्रसन्नताः । साधकाः समभूवन् ते स्मृत्याऽपि साम्यदायकाः ॥६३॥ इच्छा पुण्यादतिक्रान्ता पूर्यते न कदाचन । इच्छाऽनावश्यके दृब्धा दुःखमेवाभिवर्धयेत् ॥६४॥ मया लब्धं तदन्यैर्न सुखं प्राप्तं सहस्रकैः । तदवाप्तेन सौख्येन प्रमोदः शोभनः खलु ॥६५॥ अनवाप्तस्य चिन्तायां योऽवाप्तमपि विस्मरेत् । सारमेय इव भ्रष्ट स नूनमुभयस्थलाद् ॥६६॥ १२४ श्रीसंवेगरतिः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यवस्त्रों के भोग भोगने वाले सुकुमार शालिभद्र मुनि ने दीक्षित होकर अग्नि के समान तप्त शिला पर ध्यान करते हुए शुभ की साधना की । (६१) गर्भवती सीता को राम ने घने जंगल में छोड़ दिया था, तब डरने पर भी कर्म की लीला का विचार करते हुए वह दीन नहीं हुई । (६२) के और भी कई साधक हुए हैं, जिनहोंने दुःख और भी कई साधक हुए हैं, जिन्होंने दु:ख के भार में भी अपनी प्रसन्नता को नहीं छोड़ा । वे महापुरुष स्मरणमात्र से समता प्रदान करने वाले हैं । (६३) पुण्य के नष्ट हो जाने पर इच्छा कभी भी पूरी नहीं होती है । अनावश्यक विषय की इच्छा दुःख को ही बढ़ाने वाली होती है । (६४) मैंने जो सुख पाया है, वह हजारों अन्य लोगों ने नहीं पाया है। यह सोचकर प्राप्त सुख में सन्तोष मानना सुखद है । (६५) जो अप्राप्त की चिन्ता में प्राप्त को भी भूल जाता है। वह कुत्ते की तरह दोनों जगहों से भ्रष्ट हो जाता है । (६६) पाँचवा प्रस्ताव १२५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाऽऽयुषोऽस्ति मर्यादा मम काचन निश्चिता । तथा सौख्यस्य लाभेऽपि मर्यादा काचनाऽस्ति माम् ॥६७॥ तामतिक्रम्य नावाप्स्ये नव्यं सौख्यं कथंचन । ततोऽप्राप्तस्य चिन्ताभिरलं व्यर्थाभिरात्मना ॥१८॥ एवं निरामयं चित्तं दुःखकाले समाहितम् । तन्वन् दुःखानुभूत्या न मानसं क्षोभयेन्निजम् ॥१९॥ दुःखैरस्पृश्यमानानां द्वेषो नाविर्भवेद् यतः । बीजैरस्पृश्यमानानाम्-अंकुरस्योद्गमः कुतः ॥७०॥ दुःखद्वैषैरनाक्रान्तस्सम्यचिन्तनतत्परः । नीरागो बाह्यसौख्येषु योगानां साधको भवेत् ॥७१॥ आत्मना ह्यात्मनिर्मग्नः त्यक्त्वा देहादिभावनाम् । कर्मणां जित्वरो योगी शाश्वतानन्दमाप्नुते ॥७२॥ १२६ श्रीसंवेगरतिः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे मेरी आयु की कोई निश्चित मर्यादा है, उसी प्रकार सुख प्राप्त करने की भी मेरी कोई निश्चित मर्यादा है । (६७) उस मर्यादा का अतिक्रमण कर के नया सुख किसी भी प्रकार नहीं मिलता है। अतः आत्मा को अप्राप्त की व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी चाहिए । (६८) इस प्रकार दु:ख के समय शान्ति और स्वस्थता धारण करने वाला जीव दुःख का अनुभव नहीं पाएँगा ॥६९।। जिसको दुःख स्पर्श नहीं होता उसे द्वेष भी नहीं होता बीज नहीं डाले जाने पर अंकुर का उद्गम कहाँ से होगा । (७०) जो दुःख और द्वेषों से घिरा नहीं होता, समीचीन चिन्तन करने में लगा रहता है, बाह्य सुखों के प्रति विरक्त होता है, वही योगों का साधक होता है । (७१) देहादि के प्रति आसक्ति की भावना को छोड़कर आत्मा को आत्मा में ही मग्न रखने वाला योगी कर्म को जीतकर शाश्वत आनन्द को प्राप्त करता है । (७२) पाँचवा प्रस्ताव १२७ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः निःस्पृहा मे प्रसीदन्तु तातपादा मुनीश्वराः । तेषामेवाभिधानेन ग्रन्थे नव्ये विनिर्मिते ॥१॥ स्पष्टमुच्चारकः सम्यक्-प्रेरको मूलगामुकः । श्रीसंवेगरतिग्रन्थो मत्तातेनैव साम्यवान् ॥२॥ त्यक्त्वा नि:सारसंसारं नैको दीक्षां समाश्रयत् । मदबन्धुं मां च दीक्षाया मार्गेऽप्यस्थापयत् महान् ॥३॥ रामचन्द्रप्रभोः शिष्य-पदं प्रादात् स्वपुत्रयोः । न स्वकीयस्य शिष्यत्वं ददौ निर्ग्रन्थशेखरः ॥४॥ अभ्यास: कारितः सर्वः सेवा नानेन स्वीकृता । मेघो हि पृथिवीं दत्ते नादत्तेऽस्यास्तु किञ्चन ॥५॥ वैराग्यरतिनामाऽस्ति ग्रन्थः श्रीमद्यशःकृतिः । प्रशमरतिनामाऽपि ग्रन्थो वाचकनिर्मितः ॥६॥ १२८ श्रीसंवेगरतिः Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति मेरे पितृ मुनीश्वर प्रसन्न हों, क्यों कि यह नया ग्रन्थ उन्हीं के नाम पर निर्मित हुआ है । (१) स्पष्ट कथन करने वाला, सम्यक प्रेरणा देने वाला, मूलगामी चिन्तन से युक्त श्रीसंवेगरति ग्रन्थ मेरे पितमुनिवर गरु के समान है। (२) और आसार संसार को त्यागकर न केवल खुद असार संसार को त्यागकर न केवल खुदने दीक्षा धारण की । साथ साथ मुझे और मेरे भाई को भी दीक्षा का मार्ग दिया । (३) अपने दोनों पुत्रो को श्रीरामचन्द्र सूरीश्वरजी म. का शिष्यपद प्रदान किया । आप निर्ग्रन्थशेखर है । आपने पुत्रो को अपना शिष्यत्व नहीं दिया । (४) हमें पूरा अध्ययन कराया, और खुद कोइ सेवा स्वीकार नहीं की । मेघ पृथ्वी को देता ही है, वह कुछ लेता नहीं है । (५) वैराग्यरतिनामक ग्रन्थ वाचकयश की कृति है । श्रीमान उमास्वाति वाचक निर्मित प्रशमरति नामक ग्रन्थ भी है । (६) प्रशस्ति १२९ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रात्रोरित्यावयोर्नाम्ना ग्रन्थावालोक्य चिन्तितम् । पितुर्नाम्ना यदि ग्रन्थो लभ्यते तत् सुखं भवेत् ॥७॥ अद्य संपादितः स्वप्नो यथाशक्ति यथामति । पितृदत्तोऽखिलो बोधोऽलिख्यताऽस्यैव नामतः ॥८॥ प्राचीनावुभयौ ग्रन्थौ परमज्ञानभास्वरौ । ताभ्यां किं मेऽस्तु सादृश्यं विनम्रस्याऽनुकारिणः ॥९॥ सौभाग्यशालिनी माता जयादेवी प्रसीदतु । तस्याः स्वाध्यायसाहाय्यं ग्रन्थेनानेन सिद्ध्यतु ॥१०॥ १३० श्रीसंवेगरतिः Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम दोनों गुरुभाईयों के नाम से निर्मित ग्रन्थ देखकर सोचा। यदि एक ग्रन्थ पिता के नामका हो तो बडा सुख होगा । (७) आज अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार वह स्वप्न पूरा किया । पिता के द्वारा प्रदत्त समस्त बोध उन्हीं के नाम लिखा है । (८) दोनों प्राचीन ग्रन्थ परमज्ञान से प्रकाशित है । मैंने उनका विनम्र अनुकरण किया है। मेरा उन दोनों से क्या सादृश्य हो सकता है ? (९) सौभाग्यशालिनी माता जयादेवी प्रसन्न हों। यह ग्रन्थ उनके स्वाध्याय में सहायक सिद्ध हो । (१०) श्लोकादिपदसूचिः १३१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकारादिक्रमसूचिः अकषायवशित्वेन ॥१-२७॥ अकल्पनीयमध्यात्म - ॥४-२६ ॥ अग्नेर्वर्षादिकैर्बाधा ॥२-८॥ अत्रोच्यते चेतनाया ॥५- १६॥ अर्थेष्वर्हन्निरुक्तेषु ॥४-१६॥ अर्थो ह्यध्यवसायोऽस्ति ॥ ३-३५ ॥ अद्य यावद्धि जीवेन ॥२- ४५ ॥ अद्याहं यत्स्वरूपोऽस्मि ॥३-५७॥ अधर्मापन्नवृत्तीनां ॥१-३॥ अनवाप्तस्य चिन्तायां ॥५-६६ ॥ अनाद्यनन्तसंसारे ॥२- १॥ अनिष्टं यदपि प्राप्तं ॥३-५१॥ अनिच्छाविषयं स्वास्थ्य - ॥१-२९॥ अनुकूलं ममाऽस्त्येतद् ॥३-१४॥ अनुकूलत्वधीश्चित्ते ॥३-३६॥ अनुकूलत्वधीर्देहे ॥३ - १०२॥ अन्यान्यन्यानि तीर्थाणि ॥४-६६ ॥ अन्येऽपि संख्ययाऽगम्या ॥४-४८ ॥ अन्येऽपि दुःखभारेण ॥५-६३॥ अपामत्युग्रसूर्याद्यै-॥२-७॥ अपेक्षाभंगतो दुःखं ॥१-३१॥ अपेक्षायामहंकारे ॥५-३६॥ अपूर्वकरणादाद्याद्-॥१-१४॥ अपूर्णे हि मतिज्ञान - ॥५- २॥ अप्राप्तसौख्यचिन्ताभि- ॥५-५२ ॥ अप्रत्यक्षस्थितस्यापि ॥३-८॥ अभावः प्रतिभावानां ॥४-५॥ अभिप्रायादिनिष्पन्नः ॥३-४७॥ अभिप्रायाद् विचारास्स्युः ॥३ - २७॥ अभिप्रायोऽस्ति जीवस्थो ॥३१५॥ १३२ अभिप्रायात्तथाऽर्थानां ॥४४॥ अमोघं पुण्यबन्धानां ॥३-८९ ॥ अल्पशब्दाद् यथा ॥३-३३ ॥ अल्पं धर्मं प्रकुर्वाणो ॥ ३-८५ ॥ अविवेकोऽयथारूप - ॥५-१९॥ अशुभाद्विषयाज्जाता ॥३-१००॥ अशुभानां निमित्तानां ॥१-६०॥ अष्टादशसहस्त्रेषु ॥४-६७॥ असंख्यातस्वरूपेण ॥२- २॥ असंख्येयप्रकारेण ॥१-३९॥ असुरक्षितता दुःखं ॥१-३८॥ आकर्षो योऽनुकूलेषु ॥३-३७॥ आगमा वृत्तयस्तेषां ॥४-२१॥ आगामिनो भवास्सन्ति ॥३-६७॥ आत्मगौरवविस्मारा ॥३-६४॥ आत्मनः कर्मणा योगः ॥१- १॥ आत्मना बध्यमानत्वं ॥ १-६ ॥ आत्मना ह्यात्मनिर्मग्नः ॥५- ७२ ॥ आत्मा षट्कारकत्वेन ॥४-१८॥ आत्मा कर्मविहीनः ॥१-६५॥ आत्माऽयं मूलरूपेण ॥२- ३१॥ आत्माऽयं वर्ततेऽनादिः ॥१-२॥ आत्माऽयं चेतनाशाली ॥२-२३॥ आत्माऽस्ति सन्ति ॥४-१९॥ आत्माऽस्ति कर्मतो ॥१-६४॥ आत्मानमस्पृशत् कर्म ॥१-६६ ॥ आत्मानं तु स्पृशत् ॥१-६७॥ आत्मानुभूतिविस्तारं ॥४-३५॥ आदर्शे सम्मुखस्थानां ॥२-२७॥ आयातप्रतिकारार्थं ॥३-३१॥ श्रीसंवेगरतिः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HE आयुषः सफलत्वाय ॥४-३६ ॥ आश्चर्यं परमं ह्येतद् ॥५-३३॥ आस्वादो मधुरो बोधः ॥४-४३ ॥ इच्छा पुण्यादतिक्रान्ता ॥५-६४॥ इच्छासंचारितो जीवो ॥३ - २२॥ इति प्रत्येककार्येषु ॥४-५७॥ इत्थं हि विषयोत्पन्नां ॥२- २८ ॥ इन्द्रियेष्वनुकूलानां ॥५-२२॥ इन्द्रियैर्मुख्यतो ज्ञानं ॥३-३॥ इयत्ता मम शक्तीनां ॥३-६३॥ उत्तमानां निमित्तानां ॥२- ४२ ॥ उपयोगस्त्विह ज्ञेय - ॥३-५॥ उपार्जितं यदत्रास्ति ॥३-७०॥ उपमितिप्रपंचा तु ॥४-२५॥ एतैरभ्यस्तसच्छास्त्रैः ॥४-२२॥ एवमेकाक्षजीवानां ॥२-२०॥ एवं विचारयन्नात्मा ॥३-७५॥ एवं निरामयं चित्तं ॥५-६९॥ एवं च विषयज्ञान - ॥३-२५॥ एवं क्रमं समाश्रित्य ॥३-८४॥ कर्तृत्वं चैव भोक्तृत्वं ॥५- २५ ॥ कदा ह्यनादिसन्तानः ॥१-४२ ॥ कर्माणि मम नश्यन्ति ॥ १-५०॥ कर्मणामनुबन्धाख्यां ॥१-८॥ कर्मणां संक्रमोऽप्यस्ति ॥३-५२ ॥ कर्मणां निर्जराकारी ॥३-९०॥ कर्मणो रसमन्दत्वे ॥३-४३ ॥ कर्मणैव हि भावाना- ॥१-४७॥ कर्मयोग दृढो ॥१-४॥ कर्मप्राबल्यनाशाय ॥१-२५॥ कर्मोदयानुविद्धत्वाद् ॥५-९॥ कल्याणकैः पवित्राणि ॥४-६३ ॥ कषायैरपि प्रायेण ॥२-३६॥ कषायनोकषायाणां ॥५- २४॥ कंठस्थीकरणानन्दः ॥४-१५॥ क्वास्मि कुत्र च ॥३-६५॥ काययोगो वचोयोगः ॥१-९ ॥ कार्याणां करणे ॥३-८१॥ काचे रंगांचिते ॥५- १७॥ कारणत्रयतो दुष्टाः ॥४-६॥ कारणत्रयतश्च स्युः ॥४-७॥ कारणं भाव्यमानत्वं ॥२- ३८ ॥ कियत्कालं तथा ॥३-६८॥ किं कार्य तत् कथं ॥४-३७॥ केवलज्ञानिनां देहैः ॥३-२३॥ केवलज्ञानलाभेन ॥५-३॥ केवलं यो मनोयोगः ॥१- १० ॥ केवली भगवान्नास्ति ॥५- ३९ ॥ क्रियमाणा क्रिया ॥४-५५ ॥ क्रियते यो मया ॥३-७६॥ कर्मानुवर्तितो जीव- ॥१-२२॥ कर्मानुवर्तिनः सर्वे ॥१-४५॥ कर्मभ्यो यदि संस्कारा ॥१-४६ ॥ कर्ममान्द्याय कर्तव्यः ॥४- ११ ॥ कर्मणा वासिता देह - ॥५-३४॥ कर्मणा ह्यात्मशक्तीनां ॥ १-६८ ॥ कर्मणा रहिता देह - ॥५-३५॥ कर्मणामष्टभेदानां ॥४-४७॥ कर्मणामुदयावस्था ॥१-५॥ श्लोकानामकारादिक्रमसूचिः क्रीडायुद्धादिदृष्टान्तात् ॥५-५७॥ क्षायोपशमिको धर्मा - ॥१-२४॥ क्षारन्यासाज्जलं मूलाद्- ॥५-२०॥ गुणानामुद्भवः स्थैर्यं ॥३-९४॥ ग्रन्था हि तत्त्वचिन्तासु ॥४-५१॥ १३३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैस्तैः प्रभावितो ॥२-४॥ चेतसः शुभयत्नेन ॥४-१२॥ चेतना वर्तते जीवे ॥५-३०॥ चेतना स्थिरतां प्राप्ता ॥५- १२ ॥ चेतनायाः समुल्लासः ॥५-११॥ चितेनानुभवन् जीवः ॥१-४४॥ चिन्तयेत् पूर्वपापित्वं ॥५-४३॥ जलेनाऽन्तः प्रविष्टेन ॥५- २७॥ जायते कोमलैस्स्पर्शे ॥२- ३४॥ BE जायते कर्कशस्पर्शे ॥२- ३५॥ ज्ञातं जीवविचारेण ॥४-३९॥ ज्ञातव्ये ज्ञातवत्यत्र ॥३-१३॥ ज्ञानस्य दर्शनस्यैवं ॥४-५८॥ ज्ञेयं विज्ञाय कर्तव्ये ॥४-५३॥ ततश्चायातदुःखेषु ॥५-४२॥ ततो निर्मीयते वाणी ॥ ३४० ॥ तत् सत्यं, केवलं ॥१-४८ ॥ तत्कर्मोदयवैफल्य - ॥१-२३॥ त्वचा जिह्वा तथा ॥३४॥ त्रिषष्टिचरितेऽम्भोधौ ॥४-४६ ॥ देहसम्पत्कुटुम्बाद्या ॥३-७२॥ देहादहं विभिन्नोऽस्मि ॥५- २९ ॥ देहादात्मा विभिन्नोऽपि ॥५- २३ ॥ दुःखमात्मन्यविश्वासो ॥१-३७॥ दुःखमात्मीयलोकानां ॥१-३६॥ दुःखं चित्तस्य वैक्लव्यं ॥१-३०॥ दुःखं परैः कृतोपेक्षा ॥१-३५॥ दुःखं द्वेषश्च चित्तस्य ॥१-२८ ॥ दुःखं कार्येषु नैष्फल्यं ॥१-३२॥ दुःखादन्या सुखादन्या ॥२- ३०॥ दुःखानां परिहारार्थं ॥३-४९॥ दुःखानां कारणं ॥ १-४१॥ दुःखे दुःखाधिकं ॥५-५३॥ दुःखरूपैस्समायातं ॥५-४५॥ दुःखरूपस्य बोधस्य ॥५-६ ॥ तत्त्वार्थसूत्रमुत्तुंगं ॥४-४२॥ तत्र तत्र प्रसंगेषु ॥३-३९॥ तृतीयञ्च प्रयत्नस्स्यात् ॥३-८३॥ तथा विषयसम्पर्क - ॥३- १७॥ दुःखद्वैषैरनाक्रान्तः ॥५-७१ ॥ दुःखैरभ्यागतैश्चित्तं ॥१-४०॥ दुःखैरस्पृश्यमानानां ॥५-७०॥ दुष्टान्यनेककर्माणि ॥५-४७॥ दोषाणां क्रमशो ॥ ३ - ९५ ॥ तथा कंटकवेधेन ॥५- १४॥ तथापि मोहनीयस्य ॥३-२१॥ तथैवाऽनादि संसार ॥३-८७॥ तनुना मनसा बोधो ॥५-३८॥ तन्मनोवर्गणाग्राह ॥५-३७॥ तन्निमित्तानुगामित्वं ॥१-६२॥ तद्भिन्नोऽस्मि ततः ॥१-१८॥ तस्य हेतुश्च धर्मोऽस्ति ॥४-२०॥ तामतिक्रम्य नावाप्स्ये ॥५-६८ ॥ तेन साकं प्रयुंजीत ॥४-७५॥ तेषामाज्ञैकनिष्ठानाम् ॥४-६८॥ द्रव्यसप्ततिका सप्त- ॥४-३८॥ द्रव्यं यावद्गुणं प्राप्तं ॥ ३९॥ द्रव्यं क्षेत्रं च कालं ॥१-५८॥ द्रव्यं क्षेत्रं च कालं ॥४-४५ ॥ द्रव्याद्यैः प्रेरितं कर्म ॥१-५९॥ द्रव्यपर्यवतः ॥३७॥ दिव्यवस्त्रादिभोगाढ्यः ॥५-६१॥ द्वितीयं तस्य कार्यस्य ॥३-८२ ॥ धन- स्वजनविस्तारे ॥४-२८ ॥ १३४ श्रीसंवेगरतिः Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप्रवृत्तितो धर्मा- ॥३-९२॥ धर्मस्य विषये चित्तं ॥३-९७॥ धर्मस्य विषयेऽपि ॥३-९८॥ धर्मस्योदीरणाकृत्त्वं ॥४-७३॥ धर्मश्रद्धासमिद्धात्मा ॥४-७४॥ धर्मश्रद्धां विधायैवं ॥३-९६॥ धर्मं चानुसरन्नव्यः ॥३-९९॥ धर्मायाऽभ्यधिकायाऽहं ॥३-७७॥ न काचिदप्यवस्थाऽस्ति ॥२-३७॥ न भवेच्चेत्ततो व्यर्थं ॥१-५३॥ न नाम कर्मणां बन्धः ॥३-४५॥ नन्वेतेषां निमित्तानां ॥२-१२॥ नवतत्त्वावबोधेन ॥४-४०॥ नवानां स्यात् कथं ॥३-२८॥ नाकरिष्यमहं तादृग् ॥५-४८॥ नाहं देहस्वरूपोऽस्मि ॥३-५८॥ ननु संस्कारनाशेन ॥१-५२॥ ननु संगीतमास्वाद्य ॥५-१३॥ ननु सौख्यं च दुःखं ॥५-५॥ निगोदे जन्ममृत्यूनां ॥२-११॥ नित्यो नैमित्तिकश्चेति ॥४-५९॥ निधायोत्तमसामग्रीं ॥४-६२॥ निमित्तजप्रभावस्या- ॥२-१३॥ निमित्ताद्धि शुभाद्भोगी ॥४-८॥ निमित्तानां शुभानां ॥४-१०॥ निमित्तैरितरेवं ॥४-७७॥ निमित्तस्यानुसारित्व- ॥२-१७॥ निश्चयव्यवहाराभ्यां ॥४-३०॥ निरानन्दो निरुत्साहो ॥५-४६॥ नूनमेकेन्द्रियत्वेन ॥२-१८॥ नूनं शस्त्रक्रियाऽवन्ध्या ॥२-४६॥ नेत्रयोस्त्र को दोषो ॥५-१८॥ नो चेद् रे किं ततो- ॥३-७९॥ नैतदर्हा जडास्सन्ति ॥३-१२॥ नैतद् विज्ञायते काले ॥१-४३॥ पदार्थानां मनुष्याणां ॥३-५३॥ परिणामश्च तज्जन्यः ॥२-१५॥ परेण वंचनाद् दुःखं ॥१-३३॥ पूर्वबद्धापहारोऽपि ॥१-७॥ पृथिव्यां भूमिकंपादिः ॥२-६॥ प्रतिभावा अनेके स्यु- ॥४-१॥ प्रतिभावो यथाच्छंदं ॥२-४३॥ प्रतिक्रियेति शब्दस्य ॥२-१६॥ प्रथमं शत्र कर्तव्यं ॥१-६९॥ प्रयत्नो बध्यमानानां ॥३-४४॥ प्राप्ति-रक्षोपभोगादौ ॥३-२९॥ प्रेरणाद् बोधदानाच्च ॥४-७१॥ बध्यमानं ततः कर्म ॥३-४६॥ बोधस्तात्पर्यविज्ञानाद्- ॥४-१७॥ बाह्यानां नैव केषाञ्चित् ॥३-५०॥ भगवद्वचसो दूर-॥३-५६॥ भावानामनुभूतानां ॥१-६१॥ भाव्यमानत्वसापेक्षा ॥२-२२॥ भित्त्यादिर्जडसामग्री ॥३-१०॥ मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं ॥३-२॥ मतिज्ञानस्वरूपेण ॥३-३२॥ मतिज्ञान-श्रुतज्ञान ॥५-१॥ मनसा वचसा चैवं ॥३-९१॥ मनुष्यत्वादिसामग्री ॥२-४४॥ मनोरथः सुकार्याणां ॥४-५६॥ ममतायाः परित्याग ॥१-५१॥ ममाऽऽत्मा रक्षणीयोऽस्ति ॥३-६१॥ मया साकं मया नेयं ॥३-७१॥ मया लब्धं तदन्यैर्न ॥५-६५॥ श्लोकानामकारादिक्रमसूचिः १३५ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मया न क्रियते ॥३-८०॥ मय्यभ्यागतदुःखेभ्यो ॥३-५१॥ मयि बाधादिकाऽभावे ॥३-७८॥ मरौ गतो रजोराशे- ॥५-५४॥ महानगरनिर्वाही ॥३-८६॥ मामहं देहरूपेण ॥३-६२॥ मामानन्दोऽभवत् ॥२-२४॥ मिथ्यात्वमोहनीयघ्नो ॥१-२१॥ मिथ्यात्वे यद्यपि ॥१-२६॥ मुनीनां सिद्धधर्माणां ॥४-६९॥ मोक्षो जीवस्वभावोऽस्ति ॥२-३२॥ मोहनीयांश एवास्ति ॥५-१०॥ मोहनीयोदयावस्था-॥२-५०॥ मोहनीयानुवेधेन ॥५-८॥ यतोऽभिप्रायनिर्माणं ॥३-२६॥ यत्राऽऽसक्तोऽस्मि ॥३-६९॥ यथा वातादिवैषम्याद् ॥१-५६॥ यथा यथा भवेत् ॥४-५०॥ यथा पटावृता दृष्टि- ॥३-१६॥ यथा कर्मोदयाद् लब्धः ॥१-४९॥ यथाप्रवृत्तकरणात् ॥२-४१॥ यथालब्धात् तथा ॥३-३४॥ यथाऽऽयुषोऽस्ति ॥५-६७॥ यदि कश्चिच्छुभोऽपि ॥२-३९॥ यद् यथाऽस्ति तथा ॥५-१५॥ यद्यहं तमवाप्नोमि ॥१-१९॥ यावत् कर्मक्षयो ॥५-५५॥ यावन्मत्यादिकं ॥५-४॥ यावन्नैतत् समुत्पन्नं ॥५-४१॥ ये गुणा अवगम्यन्ते ॥४-५२॥ योग्यतामनुसृत्यैवं ॥४-९॥ योगबिन्दुमहानिन्दुः ॥४-३२॥ रसस्येव स्थितेर्बन्धः ॥३-४२॥ रसे बन्धस्स्थितौ ॥३-४१॥ रागद्वेषतरंगाणां ॥२-२६॥ रागद्वेषवशीभूतः ॥३-६०॥ रागद्वेषवशीभूताऽवस्था ॥१-१६॥ रागद्वेषौ कथं मे स्तः ॥१-१५॥ रागद्वेषस्वरूपोऽहं ॥१-१७॥ रोचते यन्न मां ॥३-३०॥ रोगे रोगत्वधीर्यद्वद् ॥१-२०॥ रोगस्योपशमं कृत्वा ॥१-५७॥ रोगस्योत्पादनाद् दुःखं ॥१-३४॥ वर्धमानो विशुद्धश्चा- ॥३-१०१॥ वनस्पत्याश्चक्रवातै ॥२-१०॥ वपुरात्मानमाक्रान्तं ॥५-२६॥ वसन्ति हृदये येषां ॥४-७०॥ वस्तुतो विषया ॥५-३२॥ वस्तुतस्तु त्रयं ॥३-४८॥ वस्तुतस्तु निरोद्धव्यम्- ॥४-२॥ वार्धक्यश्रान्तदेहस्य ॥२-१९॥ वायोर्भूमिधरास्फाल-॥२-९॥ व्यक्तिवस्तुप्रसङ्गाद्यै- ॥२-३॥ व्यक्तेश्च वस्तुनो ॥३-३८॥ व्याघ्रीदन्तैर्नष्टदेहो ॥५-६०॥ विचारैः कर्मणां ॥१-१३॥ विचाराणामसंख्याना-॥१-१२॥ विषयानुगताः सर्वाः- ॥३-१०३॥ विषय वितं चेतो ॥४-३॥ विषयैर्विषयेष्वेव ॥२-३३॥ विषयग्रहणं तत्र ॥३-१॥ विषयग्रहणाज्जीवो ॥३-२०॥ विलासायाऽष्टसिद्धीनां ॥४-३३॥ शक्तयो मयि वर्तन्ते ॥३-६६॥ १३६ श्रीसंवेगरतिः Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजये च तारंगे // 4-65 // शनुर्मे लालितं नित्यं // 5-56 // शब्दानामर्थसंकेतः // 3-11 // शरीरानाश्रयेणैकः // 2-29 // शुभान्येव निमित्तानि // 3-74 // शुभानामेव भावाना- // 3-93 // शुभेन भाव्यमानत्वं // 2-40 // श्रीप्रवचनसाराणा- // 4-44 // श्रीप्रशमरतिग्रन्थात् // 4-34 // श्रीमतामहतां बिम्बं // 4-60 // श्रीयोगविंशिकाशास्त्रं // 4-31 // श्रीवीरभगवानहन् // 5-59 // श्रीसंवेगरतिग्रन्थः // 1-11 // श्रूयतामत्र संस्कारः // 1-54 // षडावश्यकसूत्रेषु // 4-41 // सत्यपि जीवचैतन्ये // 3-6 // सत्स्वपि चेन्निमित्तेषु // 2-25 // सदा संगो निमित्तानां // 2-21 // सदा तस्यादरं कुर्यात् // 4-76 // सद्भावमयूरैर्नृत्तं // 4-27 // समरादित्यवार्ताया // 4-24 // सम्भवे सति कर्तव्या // 3-88 // सम्मेतशिखरे चम्पा- // 4-64 // सर्वार्थदर्शिना दिष्टे // 3-55 // सर्वेषामेव सर्वत्र // 3-54 // सह्यते यन्न दुःखं // 5-58 // संवेदनं निमित्तोत्थं // 2-14 // संवेगरंगशालायाः // 4-23 // संसारकसमाधीनं // 4-49 // संस्कारः शरणीभाव // 1-63 // संस्काराः केवलं जीव- // 3-73 / / संस्कारोऽनेकरूपो हि // 1-55 // सा शान्तिः सैव // 5-40 // साधूनां विनये निष्ठः // 4-72 // सिन्धुर्बिन्दुस्थितो नूनं // 4-29 // सीता गर्भवती त्यक्ता // 5-62 // सुदेवे सद्गुरौ नित्यं // 4-54 // सूत्रमर्थं च तात्पर्यं // 4-14 // सुष्टुत्वं वाऽपि दुष्टत्वं // 3-24 // सौन्दर्यं भगवन्मूर्तेः // 4-61 // स्त्र्यादिविषयसम्पर्को // 3-18 // स्थावरेषु निमित्तानां // 2-5 // स्वभावं वपुषः पूर्व- // 5-44 // स्वतंत्रं मम सामर्थ्य // 3-59 // स्वातंत्र्यात् सर्ववेतृत्व-॥५-२८॥ स्वाध्याये च सदाचारे // 4-13 // स्वीकुर्यामहमेतानि // 5-49 // समानेऽनुभवेऽप्यत्र // 3-19 // सर्वसंवेदनेष्वात्मा // 5-21 // श्लोकानामकारादिक्रमसूचिः 137