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तात्त्विक रूप से विभिन्न संस्कार ही मनोयोग है। मनोयोग का निमित्त के वशवर्ती होना ही दुःख का कारण है । (५५)
जिस प्रकार वात-पित्त-कफ के वैषम्य से देह में रोग उत्पन्न होता है। उसी प्रकार कर्म की संगति से आत्मा में संस्कार उत्पन्न होते हैं । (५६)
रोग का उपशम कर के विद्वान वातादि की विषमता का निवारण करता है । उसी प्रकार भव्य प्राणी संस्कारों को जीतकर कर्मों का निवारण करे । (५७)
और भाव के आश्रित होता है । कर्मोदय
कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, गति पुनः कर्म-बन्ध का कारण होता है । (५८)
द्रव्यादि से प्रेरित कर्म संस्कारों का निर्माण करता है, यह विचार या संस्कार निमित्तों से निष्पन्न होते हैं और कर्मों का अनुसरण करते हैं । (५९)
अशुभ निमित्तों की निरन्तरता से कारण आत्मा जिन जिन भावों का अनुभव करता है, वे अगणित भाव अशुभ होते हैं । (६०)
प्रथम प्रस्ताव
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