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कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये जीव के दो भ्रम है । अनादिकाल से कर्म की संगति के कारण ये भ्रम होते है । ये भ्रम समस्त आपत्तियों के घर है । (२५)
शरीर कर्म के कारण बना है। शरीर आत्मा पर आक्रान्त है । मोहनीय कर्म की विषमता से शरीर और आत्मा एकरूप प्रतीत होते हैं । (२६)
मला व मान मिल को की निगाह
दूध में पानी मिलने पर जैसे दूध की स्निग्धता, गाढ मधुरता कम हो जाती है, केवल सफेद रंग शेष रहता है । (२७)
उसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से आत्मा का जो सर्वज्ञ स्वभाव है, वह संसार में कर्मों के द्वारा दबा दिया जाता है । केवल कर्तृत्व और भोक्तृत्व शेष रहता है । (२८)
देह से मैं भिन्न हूँ, यह जानना सम्भवित नहीं होता । अज्ञान के कारण आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति का चिन्तन नहीं हो सकता । (२९)
चेतना जीव में है । वह शरीर को पराधीन है । अतः शरीर के द्वारा ही जीव को ज्ञान होता है । (३०)
पाँचवा प्रस्ताव
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