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धर्म में क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, कब करना चाहिए और कितना करना चाहिए यह 'श्राद्धविधि' से जानकर धर्म में चतुर बनो । (३७)
'द्रव्यसप्ततिका' प्रभु की सप्तक्षेत्रीय व्यवस्था की चिन्तनसभा है। यहाँ व्यवस्था और व्यवस्थाभंग के विपाक समझाए जाते हैं । (३८)
'जीवविचार' से भवों का चक्र ज्ञात होता है । इससे संसार की भीति उत्पन्न होती है । विराधना का निषेध होता है । (३९)
'नवतत्त्व' से पाप की प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक एवं उपादेय, ज्ञेय, और हेय का बोध कराने वाला विवेक प्राप्त होता है । (४०)
साधना के प्राणभूत, महान् अर्थवाले ‘षडावश्यक सूत्रो' में शुभाशय के साथ एकाग्रचित्त बनना चाहिए । (४१)
'तत्त्वार्थसूत्र' ऊंची चोटियों वाला सम्यग् ज्ञान का पर्वत है, जिस पर पूर्वसूरिविरचित वृत्तिआँ पगदण्डी की तरह फैली है । (४२)
चौथा प्रस्ताव