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आत्माने ज्ञान का विषय प्राप्त कर लिया उसके बाद मोहनीयकर्म के द्वारा उत्कट संवेदना रूप अभिप्राय का निर्माण होता है । (१३)
'यह मेरे अनुकूल है, यह मेरे प्रतिकूल है' । कर्म युक्त जीव के मन में इस प्रकार के विकल्प उठते हैं । (१४)
अभिप्राय जीव में रहता है, विषय में नहीं रहता । अभिप्राय विषय से ही उत्पन्न है, पर विषय से भिन्न होता है । वस्तुतः विषय केवल निमित्त कारण है, उपादान तो मोहनीय कर्मयुक्त जीव ही है । (१५)
जैसे कपड़े से ढक देने से आँखे अन्धी हो जाती है । यह अन्धत्व कपडे में नहीं है पर कपड़े से ही उत्पन्न होता है । (१६)
उसी प्रकार विषय के सम्पर्क से ही जीव विषयों के प्रति व्याकुल होता है । व्याकुलता विषय के द्वारा होती है परन्तु विषय में नहीं होती । (१७)
स्त्री आदि विषय यद्यपि सचेतन है । अतः इनका सम्पर्क सचेतन है । किन्तु अपना व्यक्तिगत अभिप्राय दूसरी व्यक्ति में नहीं रहता है । (१८)
तृतीय स्
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