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यदि मैं उसे प्राप्त कर लेता हूँ, तो मेरा जन्म कृतार्थ हो जाएगा । उस मार्ग को जान लेने की योग्यता मुझ में जागृत हो । (१९)
रोग को रोग समझ लेने पर जैसे उसके निवारण के लिए उपचार हो सकता है, उसी प्रकार इन रागद्वेष रूपी दोषों को दोष मान लेने पर उनके निवारण का प्रयत्न सम्भव है । (२०)
(मोहनीय कर्म के मिथ्यात्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय दो भेद हैं उनमें प्रथम मूल) मिथ्यात्व मोहनीय का नाशक सद्विचार, चित्त में ही उत्पन्न होता है, जिस विचार से ही सौभाग्यशाली प्राणी निर्मल आनन्द को प्राप्त करता है । (२१)
जीव के परिणाम कर्म के अनुवर्ती होने से विसंगत बनते हैं, अर्थात् विभाव होते हैं। इन विभावों का नाश धर्म के अनुवर्ती भावों से होता है । (२२)
तत्त्वों का अनवरत चिन्तन, उदय में आते हुए कर्मों को विफल कर देने का एकमात्र साधन है । चिन्तन जिसप्रकार करना चाहिए, उसे प्रतिपादित करते हैं । (२३)
सद्विचार, निरन्तर धर्म के अभ्यास से उत्पन्न होता है, आचरण में अवतरित होता है, मोहनीय के क्षयोपशम से निर्मित होता है, दोषों का नाश करता है और गुणों को उत्पन्न करता है । (२४)
प्रथम प्रस्ताव