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चित्त अनादिकाल से एकमात्र संसार के अधीन था । ग्रन्थों के निरन्तर अध्ययन से वह शुभ में स्थित होता है । (४९)
जैसे जैसे पाठ किया जाता है वैसे वैसे आत्मा में आनंद के मधुर रस का स्राव होता है । रस से एकाग्रता सिद्ध होती है, उससे परम आत्मशुद्धि होती है । (५०)
आत्मा को स्थिर बनाकर ग्रन्थ का उपयोग तत्त्वचिन्ता में करना चाहिए । विद्वान उन्हें केवल कण्ठस्थ करके न रूके । (५१)
ज्ञात गुणों को मैं कैसे प्राप्त करूँ, जो दोष दिखाई देते हैं उनका कैसे त्याग किया जाए ? (५२)
जानने योग्य को जानकर करणीय में उद्यम करना चाहिए, यह भावना धारण कर के सदा स्वाध्याय का सेवन करना चाहिए । (५३)
हंमेशा सच्चे देव, गुरु और धर्म के विषय में शुभ कार्य करने चाहिए । दान, शील, तप, भाव, सदाचार और व्रत भी आचरने चाहिए । (५४)
चौथा प्रस्ताव
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