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________________ की उपस्थिति, जीव का निमित्तों से अभिभूत होना (भाव्यमानता) और जीव का प्रतिभाव और प्रतिक्रिया देना । सुन्दर वस्तु का सामने आना निमित्त है। चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा उसका अनुभव करते हुए उनमें अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन करना भाव्यमानता है । भाव्यमानता के अनुसार उठने वाली विचारतरंगे प्रतिभाव हैं । वाणी और शरीर की क्रिया प्रतिक्रिया है । प्रतिभाव मानसिक क्रिया होने से अव्यक्त है। प्रतिक्रिया वाणी और शरीर द्वारा अभिव्यक्त है। इन तीनों में भाव्यमानता मुख्य है । भाव्यमानता से प्रतिभाव अर्थात् संस्कार उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होकर संस्कार इसी भाव्यमानता को पुष्ट करते हैं । इस भाव्यमानता की ही सफल चिकित्सा करनी है। तीसरे प्रस्ताव में दु:ख के तीन सोपानों में से भाव्यमानता का विवेचन किया गया है। भाव्यमानता का लक्षण भी त्रिविध स्वरूपवाला है । विषयों का ग्रहण, उनमें स्वाभिप्राय की योजना और अर्थघटन। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है । मोहनीय कर्म से अनुकूलता-प्रतिकूलता के भाव उत्पन्न होते हैं। यह स्वाभिप्राय की योजना है। नवीन भोगों की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा और उनके भोगादि की चिन्ता के भाव अर्थघटन चतुर्थ प्रस्ताव में प्रतिभावों की चर्चा है। तीन कारणों से अशुभ प्रतिभाव उत्पन्न होते हैं। कर्म के उदय से, पूर्वसंस्कार से और बूरे निमित्तों से । इसके विपरीत कर्म की मन्दता, उत्तम प्रयत्न और अच्छे निमित्तों से प्रतिभाव शुभ होते हैं । स्वाध्याय, सदाचार और सत्संग से भावशुद्धि सम्भव है। धर्मसंस्कार के निर्माण में प्रयत्नशील होना चाहिए । अच्छे कार्य करने की इच्छा, अपनी शक्ति का परीक्षण, कार्य करने का निर्णय, कार्य करने में हर्ष ओर कार्य की सतत स्मृति ये प्रत्येक करणीय कार्य के पाँच सोपान है। अपनी शक्ति से सम्बन्धित ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की शुभ क्रिया सदाचार है। जिनबिम्ब की पूजा, कल्याणको से पवित्र तीर्थों की यात्रा, पापशमनकारी श्रमणों की आज्ञा का पालन व विनयादि सदाचार है। धार्मिकों की संगति सत्संगति है। पाँचवें प्रस्ताव में सुख और दुःख को मुख्यतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न बताया है । आत्मा की परवशता का उल्लेख कर बताया है कि कर्मों को समभाव से सहन करके ही उन पर विजय पाई जा सकती है । वस्तुतः कर्म तथाकथित ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान नहीं है। मन को शक्तिशाली बनाकर दुःखों को आर्त-रौद्र परिणाम के बिना सहन करने से कर्मों पर विजय मीलता है। तीर्थंकर आदि के उपसर्गों का चिन्तन करना चाहिए । आत्मा का शुद्धस्वरूप स्वभाव अथवा मोक्ष है । कर्मजनित सांसारिक स्थिति विभाव है। मुनिराज प्रशमरतिविजयजी महाराज ने प्रतिभाव शब्द का नया प्रयोग किया है।
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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