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________________ पुद्गल चेतना में या चेतना कर्मपुद्गलों में कोई परिवर्तन नहीं करती । संयोगकृत परिवर्तन अवश्य दोनों में होता है। उपादान में परकृत कोई परिवर्तन नहीं होता । कर्म के निमित्त से आत्मा मूर्त रूप में व्यवहार करने लगता है क्योंकि संसारी जीव किसी न किसी शरीर से बद्ध रहता है। सम्बन्ध कर्मपिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में स्थित रहता है । वस्तुतः द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों में ही जड़चेतन दोनों तत्त्वों का मिश्रण रहता है । भावकर्म में चेतन तत्त्व की और द्रव्यकर्म में पुद्गल तत्त्व की प्रधानता है । द्रव्यकर्म भावकर्म का शारीरिक आकार है। यह भावकर्म का संवादी कार्य करता है। भावकर्म और द्रव्यकर्म में पूर्णतया संवादिता, सहयोग व संतुलन है। जीव के सूक्ष्म भावों का ज्ञान जड़कर्म को कैसे हो सकता है और ज्ञान हुए बिना वे पुण्यपाप रूप कैसे परिणमित हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भावों में ऐसी शक्ति है कि उनका निमित्त पाकर ही पुद्गल अनेक अवस्थाएँ धारण करता है। जैनों का यह निमित्तकारणवाद परस्पर रूपान्तरण न होने से अन्तक्रियावाद नहीं है। सर्वथा अप्रभावित न होने से समान्तरवाद भी नहीं है। दोनों इतने संपृक्त हैं कि एक दूसरे के उपकार को ग्रहण करते हैं । वस्तु के अनेकान्त स्वरूप के अनुसार ही यह निमित्तकारणतावाद आत्मा और शरीर दोनों को भिन्न मानते हुए भी इतना भिन्न नहीं मानता कि वे एक दूसरे से सर्वथा अप्रभावित रह सकें। श्रीसंवेगरति ग्रन्थ में भी त्रिविधयोग में मनोयोग की चर्चा ही मुख्य है क्योंकि कर्मबन्ध का सम्बन्ध मुख्यतः मनोयोग से ही है, वचनयोग और काययोग उनकी ही प्रतिक्रिया है। मनुष्य के व्यवहार का उत्तर कर्मसिद्धान्त में है और कर्मसिद्धान्त का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है। मन की निर्मलता ही मुक्ति है । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी म० ने कषायमुक्ति को ही मुक्ति कहा है। श्रीसंवेगरति ग्रन्थ लगभग चार सौ अनुष्टुप् छन्दों में रचित वा पाँच प्रस्तावों में विभक्त है। प्रथम प्रस्ताव में संसार के कारण भूत मनोयोग का एवं मनोयोग की संस्कारों की अधीनता का उल्लेख है। इससे बचने का उपाय धर्म है। धर्म वही है, जो कर्मबन्ध को शिथिल करते हुए उसे सर्वथा नष्ट करता है। यह भी धर्म की एक उत्तम परिभाषा है । इसके लिए पहले अशुभ से शुभ की ओर प्रयास करना चाहिए । मन को शुभ की ओर सन्मुख करने के लिए उसकी धर्मसंस्कारों के द्वारा सुरक्षा करनी चाहिए । मनोयोग ही संस्कार है। मन का निमित्तों के अधीन होना दु:ख का कारण है । संस्कारों को जितने से कर्म की निर्जरा होती है । कर्मोदय की शरणागति के कारण मनुष्य शक्तिहीन हो रहा है । अपनी इस शक्तिहीनता को धर्म से दूर करनी चाहिए । दूसरे प्रस्ताव में दु:ख के तीन नियम (स्तर या सोपान) बताए हैं। प्रतिक्षण निमित्तों
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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