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________________ प्रक्रिया में सहयोग को स्वीकार करते हैं। जैनों के अनुसार मन दो प्रकार है । एक द्रव्यमन जो भौतिक है । दूसरा भावमन या चित्त जो चेतन की पर्याय (अवस्था) है । द्रव्यमन ज्ञानात्मक मन (चित्त) का सहयोगी होता है । उसके बिना भावमन अपना कार्य नहीं कर सकता। दोनों के योग से मानसिक क्रियाएँ होती है । द्रव्यमन का कार्य, स्नायुमण्डल, मस्तिष्क व चिन्तन योग्य पुद्गलो की सहायता से होता है । भावमन या चित्त चेतना से सक्रिय होता है । चित्त ज्ञाता है, मन उसका उपकारी है । द्रव्यमन और भावमन परस्पर उपकारी है । द्रव्यमन, भावमन या चित्त के परिणमन में निमित्त बनता है, किन्तु चित्त का परिणमन अपनी ही पर्यायों में होता है । चेतना की सुख, दुःख, राग-द्वेष आदि पर्याय अचेतन शरीरपर्याय के निमित्त से विकसित होते हैं । इस प्रकार द्रव्यमन और भावमन में गहन सम्बन्ध । इस मन के द्वारा ही जड़चेतन के मध्य सम्बन्ध होता है । जैन दर्शन का जड़चेतन के संयोग का सिद्धान्त निमित्तकारणतावाद है । यह निमित्तकारणतावाद न तो अन्तर्क्रियावाद है और समानान्तरवाद है । निमित्तकारणतावाद के अनुसार जीव और अजीव द्रव्य अपने अपने में परिणमन करते हैं। एक दूसरे में परिणमन नहीं करते । चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता । दो स्वतन्त्र द्रव्यों का उनके असाधारण धर्मों के साथ एक दूसरे में परिणमन (रूपान्तरण) सम्भव नहीं है । निमित्तकारणतावाद के अनुसार दोनों द्रव्य अपना पृथक् वैशिष्ट्य सुरक्षित रखते हुए एक दूसरे के कार्य में सहायता करते हैं । कारण दो प्रकार के हैं। एक निमित्तकारण । दूसरा उपादान कारण । स्वयं कार्यरूप में परिणत होने वाला उपादान कारण होता है, उसमें सहायता देनेवाला निमित्तकारण होता है । प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायधारा में प्रवहमान रहकर सदृश या विसदृश परिणाम धारण करता है । निमित्त के अनुसार उपादान में परिवर्तन होता है । वह द्रव्य अपने ही पर्यायों में बदलता है । एक चेतन दूसरे चेतन में या अचेतन में नहीं बदलता है । इतनी स्पष्ट और असंदिग्ध स्थिति होने पर पुद्गलों का जीव पर और पुद्गल का एवं संसारी जीवों का परस्पर प्रभाव डालने वाला निमित्त - नैमेत्तिक सम्बन्ध भी है । जीव जब रागादि द्वेषादि भाव में परिणमन करता है, तो उन भावकर्मों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मभाव से परिणत होता है। जीव के रागादि परिणमन में भी ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म निमित्त होते हैं । इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म होता है । जो पुद्गल परमाणु आत्मा से सम्बद्ध होते हैं, वे द्रव्यकर्म हैं । उन द्रव्यकर्मों के कारण आत्मा में जो रागादि मनोविकार होते हैं वे भावकर्म हैं । द्रव्यकर्म भावकर्म के कारण है । भावकर्म पुनः नवीन द्रव्यकर्म के कारण होते हैं । I आत्मा और कर्म में तादात्म्य नहीं हो सकता । संयोग सम्बन्ध हो सकता है । कर्म ७
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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