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देह के सम्पर्क में आए हुए पाँच प्रकार के विषयों का पाँच इन्द्रिय से ज्ञान होता है । वह अनुभव यदि अनुकूल बने तो सुख होता है, प्रतिकूल बने तो दुःख होता है। (३१)
वास्तव में ये पाँचों विषय आत्मा के उपकारी नहीं है । वे शरीर के उपकारी होते हैं । और आत्मा उन्हें आत्मानुभव मान लेता है । (३२)
यह परम आश्चर्य है कि कर्म जड़ है। शरीर भी जड़ है । आत्मा की चेतना के द्वारा ही ये दोनों आत्मा को बाँधते है । (३३)
देह में संचार करने वाली जीव की कर्मवासित चेतना अपूर्ण अनुभव में फंसकर सुख और दुःख में भ्रमण करती रहती है । (३४)
कर्म से रहित, देह से छूटी हुई, सम्पूर्ण अनुभव में आनन्दमग्न जीव की चेतना सुख और दुःख से बाधित नहीं होती है । (३५)
अपेक्षा और अहंकार में स्थित आत्मचेतना कषाय के उदय से बद्ध होकर सुख और दुःख में प्रवर्तित होती है । (३६)
पाँचवा प्रस्ताव