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पहले से बन्धे हुए कर्मों को नष्ट करना भी धर्म का प्रयोजन है। धर्म से ही वर्तमान समय में बन्धने वाले कर्म भी निर्बल हो जाते हैं । (७)
कर्म की अनुबन्ध नामक शक्ति है, जिसके कारण कर्मों की परम्परा (निरन्तरता) बनी रहती है । उस शक्ति को कृतार्थ व्यक्ति धर्म के सतत अनुपालन से शिथिल करता रहता है । (८)
कर्मों के कारण काययोग, वचोयोग और मनोयोग बनते है । इनमें से धर्म के प्रभाव से काययोग और वचनयोग शुभ की ओर सन्मुख हो जाते हैं। (९)
शेष जो मनोयोग है, वह तीव्र कर्मों से प्रभावित होता है । उस मनोयोग को उत्तम धर्म के संस्कारों के द्वारा वश में करना चाहिए । (१०)
यह श्रीसंवेगरति नामक ग्रन्थ शुद्ध भावों का प्रतिपादक है । यहाँ मनोयोग को निर्मल करने के कारण बताए गए हैं । (११)
मोहनीय कर्म के कारण असंख्य विचार मन में उठते रहते हैं । विचारों की यह विवेकरहित व स्वच्छन्द उड़ान संसार को बढ़ाने में कारण साबित होती है । (१२)
प्रथम प्रस्ताव