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वर्तमान क्रिया चित्त के साथ जुडकर होती है, उसके बाद सतत सेवन से संस्कार निर्माण होता है । (५५)
अच्छे कार्य करने की इच्छा, फिर अपनी शक्ति का परीक्षण, कार्य करने का निर्णय, कार्य करते हुए हर्ष तथा उस कार्य का सदा स्मृति में रहना । (५६)
इस प्रकार प्रत्येक कार्य में जो पाँच प्रकार से प्रवर्तित होता है उसकी चेतना धर्म के संस्कारों से रंजित हो जाती है । (५७)
ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप की वीर्याचार से संपुष्ट क्रिया ही शुभ कार्य है । (५८)
आचार दो प्रकार का बताया जाता है । नित्य और नैमित्तिक । उन आचारों का पालन करते हुए धर्मात्मा संस्कारवान् होता है । (५९)
श्री अर्हन्तों की मूर्ति और निर्ग्रन्थ गुरू तथा उत्तम कल्याणमित्र के साथ शुभ संगति करनी चाहिए । (६०)
चौथा प्रस्ताव
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