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अठारह हजार शील के अंगों का पालन करनेवाले साधु, दर्शनमात्र से पापों को दूर कर देते हैं । (६७)
साधु जिनाज्ञा के पालक होते हैं, पवित्र आचरण करते है, निःस्पृह होते हैं, कृपावान् होते हैं । ऐसे साधु की वाणी का श्रवण करें । (६८)
मुनिजनोने धर्म सिद्ध कर लिया है । उनकी संगति, सेवा, स्तुति, अपूर्व लाभकारी होने से मुक्ति का अमोघ कारण बनती है । (६९)
जिनके हृदय में ऐसे धर्म कार्यों में निरत साधु निवास करते हैं उन्हें अज्ञान से उत्पन्न दुःख से कभी भय नहीं होता । (७०)
साधु प्रेरणा देने से, ज्ञान देने से, शुभ गुणों से युक्त करने से, संशयों का छेदन करने से सहायक होते हैं । (७१)
साधुओं का विनय करने वाला, साधुओं से आत्मनिवेदन करने वाला, साधुओं से सम्बोधित होनेवाला धन्य प्राणी साधुओं के द्वारा संस्कारवान् बनता है । (७२)
चौथा प्रस्ताव
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