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________________ मनोगतम् तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबंधे देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रंथसंदर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ श्री योगबिन्दु शास्त्र में संवेग शब्द की यह व्याख्या की गई है। सुदेव, सुगुरु, सुधर्म में समर्पित राग को संवेग कहते है। तत्त्वार्थभाष्य अनुसार 'संवेगो नाम संसारभीरुत्वं, आरंभपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिः, धर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च ।' संसार से डर लगे, दोषबहुल आरंभपरिग्रह में आकर्षण न रहे, धर्म और धर्मी के प्रति आदर बहुमान की भावना हो यह संवेग के लक्षण है। संवेग एक मनोदशा है । धर्म की अनुभूति का प्रधान आलम्बन, सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के पाँच लक्षण है । शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और अनुकम्पा । पाँचो लक्षण प्रसिद्ध है। दूसरा लक्षण संवेग - इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है। अप्रशस्त आलम्बन को अप्रशस्त मानकर उनका परिहार करने की भावना रखना और अप्रशस्त आलम्बन के अप्रशस्य प्रभाव का परिमार्जन करने के लिये जागृत होना यह संवेग है। प्रशस्त आलम्बन को प्रशस्त मानकर उनका स्वीकार एवं आदर करने की भावना को
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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