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रस के मन्द होने पर कर्म की स्थिति आत्मगुणों को नष्ट करने में समर्थ नहीं होती । रस के कारण ही नए कर्म की स्थिति सुदृढ़ होती है । अर्थात् स्थितिबन्ध भी रस से ही दीर्घकालीन और सुदृढ़ होता है । (४३)
अतः कर्मों के रस को दूर करने का ही प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न मुख्यतया भावशुद्धि से होता है । (४४)
यहाँ सर्वथा कर्मबन्ध का निरोध नहीं होता, किन्तु यथासम्भव कर्मों की शक्ति कमजोर बनाई जाती है । (४५)
बध्यमान कर्मों में रसों की मन्दता होती है । उससे शेष तीन बन्धों (प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध और स्थितिबन्ध) की शक्ति कम होने लगती है । (४६)
यह रसबन्ध (अनुभागबन्ध) अभिप्रायादि से निष्पन्न होता है तथा कर्म और कर्मजन्य संस्कारों के साथ रहता है, उसे ही जितना चाहिए। मूल नष्ट होने पर भय किसका ? (४७)
वस्तुतः विषयग्रहण, अभिप्राय और अर्थघटन ये तीनों मोहनीय कर्म के रसोदय से निर्मित होते हैं । इनसे युक्त होने पर नया नया रसबन्ध होता रहता है । (४८)
तृतीय स्
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