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अपने ज्ञान के अनुसार चित्त को धर्म में लगाते हुए जीव प्रशस्य भाव्यमानता का विस्तार करता है । (९७)
धर्म के विषय में अभिप्राय भी बनता होता है, (रागद्वेष आदि से हटकर अभिप्राय धर्म की ओर मुड जाते हैं) और धर्म का अर्थघटन होने से अन्तरंग सुख मीलता है। (९८)
धर्म का अनुसरण करने से नया प्रतिभाव उत्पन्न होता है । उससे धर्म का विस्तार करनेवाली प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है । (९९)
अशुभ विषयों से दुष्ट भव परम्परा उत्पन्न होती है, विषयों से उत्पन्न भवपरम्परा शुभ विषयक धर्म से निश्चित ही ध्वस्त हो जाती है । (१००)
धर्म से संलग्न विशुद्ध अभिप्राय निरंतर वृद्धि प्राप्त करके, जब विषयातीत अवस्था तक पहँचता है तभी धर्मसिद्धि होती है । (१०१)
नहीं होते शरद अभाव से
अर्थघटन के अभाव से द्वन्द्वनाश हो जाने पर अनुकूल या प्रतिकूल संवेदन जागृत नही होते । (१०२)
तृतीय प्रस्ताव
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