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कषायोदय से मनोर्गणा का ग्रहण होता है । मनोवर्गणा के कारण चिन्तनादि होते हैं। अपेक्षाभंग होने से दुःख तथा अपेक्षा की पूर्ति होने सुख होता है । (३७)
शरीर और मन के माध्यम से जीव को जो भी बोध होता है, वह कर्म सहचरित है अतः निरंतर दुःख है । (३८)
भगवान केवली का ज्ञान, देह और चित्त के माध्यम से उत्पन्न नहीं होता है । उनका ज्ञान शरीर और मन की सहायता के बिना स्वयं प्रकाशमान है । (३९)
वही शान्ति है। वही सन्तोष है। वही तृप्ति है। वहीं सद्गुण है। जहाँ शरीर और मन के बिना उत्पन्न अनन्त सुख है । (४०)
जब तक केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उसे सुख और दुःख को सहना होगा । दुःख आनन्द को नष्ट करता है और द्वेष का मूल है । ( ४१ )
अतः दुःख के आने पर तत्त्व का चिन्तन करना चाहिए । जिन दुःखों का कोई प्रतिकार नहीं है उनका प्रतिकार तत्त्वचिन्तन से ही होता है । (४२)
पाँचवा प्रस्ताव
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