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जैसे मेरी आयु की कोई निश्चित मर्यादा है, उसी प्रकार सुख प्राप्त करने की भी मेरी कोई निश्चित मर्यादा है । (६७)
उस मर्यादा का अतिक्रमण कर के नया सुख किसी भी प्रकार नहीं मिलता है। अतः आत्मा को अप्राप्त की व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी चाहिए । (६८)
इस प्रकार दु:ख के समय शान्ति और स्वस्थता धारण करने वाला जीव दुःख का अनुभव नहीं पाएँगा ॥६९।।
जिसको दुःख स्पर्श नहीं होता उसे द्वेष भी नहीं होता बीज नहीं डाले जाने पर अंकुर का उद्गम कहाँ से होगा । (७०)
जो दुःख और द्वेषों से घिरा नहीं होता, समीचीन चिन्तन करने में लगा रहता है, बाह्य सुखों के प्रति विरक्त होता है, वही योगों का साधक होता है । (७१)
देहादि के प्रति आसक्ति की भावना को छोड़कर आत्मा को आत्मा में ही मग्न रखने वाला योगी कर्म को जीतकर शाश्वत आनन्द को प्राप्त करता है । (७२)
पाँचवा प्रस्ताव
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