Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीवीरनाथाय नमः। - जैन भारती - - - - - - लेखक:पृ० गुणभूल जैनुः कविरान प्रकाशक व मुद्रक. दुलीचंद परवार, मालिक-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय ने अपने "जवाहिर प्रेस १६१११, हरीसन रोड, कलकत्ता मे छापकर प्रकाशित किया। - - - Copy Right--Rcceried by Publisher प्रथमावृत्ति } जनवरी १६३६ { सादा २५ - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दो शुखद पाठक गण। आपके सामने यह जैन भारतो उपस्थित है मैने इसे सुन्दर और सरल बनाने की चेष्टा की है। इसमे मुझे कहा तक सफलता प्राप्त हुई है इसका निर्णय पाठकों पर छोड़ता हूं। मित्रवर पंडित सिद्धसेनजी साहित्य रत्न एक बार कलोल (गुजरात) उपदेशार्थ पधारे थे उन्होंने मेरा बनाया हुआ प्रद्युम्न चरित देखा । उस समय आपने कहा कि कोई ऐसा ग्रन्थ बनाइये जिससे हम भूत भविष्य और वर्तमान को सामाजिक परिस्थिति को जान सके, भूत खण्ड आप लिखिये। वर्तमान तथा भविष्य खण्ड मैं पूरा करूंगा। इधर मैंने भूत खण्ड पूरा किया परन्तु वे अनवकाश के कारण वर्तमान खण्ड को प्रारम्भ भी नहीं कर सके वाद मे उन्होने मुझे लिखा कि आपही इस कार्य को पूरा कीजिये और साथही विषयों की सूची बनाकर भेज दी तदनुसार कार्य मुझे ही करना पड़ा, वर्तमान पुस्तक के निमित्त उक्त पण्डितजी अवश्य ही धन्यवाद के पात्र हैं। __इस पुस्तक के प्रकाशकजीने अनेक कठिनाइयो का सामना करते हुये भी इसे प्रकाशित करने का कष्ट उठाया है अतएव वे भी धन्यवाद के योग्य हैं। विनीत :गुणभद्र जैन Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन भारती.. Poem wrot." .. * :- . E4 मनस SHRA MES २ श्रीमान् दानवीर श्रीमंत सेठ लखमीचंदजी, भेलसा आपने लाखों रुपया विद्या-दान में देकर जैन समाज का महान् उपकार किया है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची -oroteo मंगलाचरण शास्त्र प्रस्तावना अनेकांत अहिंसा समानता सार्वधर्म निष्पक्षता occ १ हमारा श्रद्धान १ हमारी नि.काक्षा १ निर्विचिकित्सा २ अमूढदृष्टि ३ उपगृहुन ४ स्थिति करण ४ वात्सल्य ४ प्रभावना ५ हमारी विद्या ६ श्रुतज्ञान ६ हमारे शास्त्र ७ सूत्र १० न्याय अध्यात्म ग्रन्थ आचार ग्रन्थ १६ नोति ग्रन्थ २३ व्याकरण जिन जैन पूर्वज भोगभूमि प्रभाव आदर्श पुरुष जैन स्त्रिया सीता Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख ) कोष पुराण ग्रन्थ चिकित्सा शास्त्र प्राकृत भाषा काव्य चित्र विद्या कवि जिनसेनाचार्य रविपणाचार्य समन्तभद्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर कुंद कुंदाचार्य गुणभद्राचार्य प्रन्थकारोंकी नम्रता स्तोत्र ३२ वैराग्य ३३ तपोवन ३४ अकृत्रिमता ३४ शक्तिका उपयोग ३५ हमारा सुख ३६ ग्रामीण जीवन ३७ नागरिक जीवन ३७ चारित्र ३७ रात्रि भोजन त्याग ३८ जल गालना ३८ मय मांस मधुका त्याग ३६ शुद्धि ३६ तीर्थ क्षेत्र ३६ सम्मेद शिखर ४० कैलाश ४० गिरनार ४१ चंपापुरी पावापुरी ४३ वीनाजी अतिशय क्षेत्र ४५ केशरियाजी ४६ ग्रहस्थाश्रम में ४८ विश्व सेवा ४६ वीर शासनका वीर मंत्र ५० उदारता स्तुतियें वीर पुरुप आचार्य उपाध्याय मुनिराज मूर्ति पूजन वक्ता श्रोता Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग ) प्रेम समाज प्रतिज्ञा पालन व्यापार प्रात काल अध्ययन गुरुदेव विद्यार्थी मध्यान्ह संध्या समय जिनालय देव प्रतिमा देव मन्दिरमे स्त्रिया ६२ जातियोंकी उत्पत्ति ६३ धर्म गुरुओका अन्याय ६३ तेरहपन्थ, वीमपन्य EY और भी पतन साधुओका बलिदान अत्याचार अवशेष सेठ भामागाह वस्तुपाल तेजपाल पण्डित गण सौख्यलता ६७ स्त्रियोंमे मूर्खताका प्रवेश , - - बालक तप वर्तमानः खंड वृतामा मार्थना दान मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ हमारा पतन श्वेताम्बर जैन हीनाचार लेखनी प्रवेश ७१ माधुनिक जैनी परिवर्तन जैन धर्मकी प्राचीनता Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) देव रोग दरिद्रता ८८ औषधालय ६१ पुस्तकालय दुर्भिक्ष १३ कविता व्यभिचार ६५ जन संख्याका हास ६७ सभायें और कार्यकर्ता हम व हमारे पूर्वज १८ उपदेशक धर्मकी दुहाई RE ब्रह्मचारीगण गृह कलह भट्टारक गृह स्वामी १०१ मुनिगण मूर्खता , पण्डित श्रीमान १.३ बाबू लोग श्रीमानकी सन्तान धर्मकी दशा हमारी शिक्षा ५०४ हमारी कायरता प्रतिष्ठायें और प्रतिष्ठा कारक १११ तीर्थोके झगड़े ११. मन्दिरोंका पूजन पञ्चायतें ११३ देव मन्दिरोंका हिसाब वहिष्कार ११५ निर्माल्य विक्रय बहिष्कृत १२६ जिनवाणीकी दशा समाचारपत्र ११८ स्त्रियां सम्पादक .११६ सुकुमारता संस्थायें १२० पुत्राभिलाषा ब्रह्मचर्याश्रम १२१ झातृ लिप्सा व्यायाम शालायें १२२ सासें पश्च Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोला (शोध) गृहणी और गहने विधवाओंकी दुर्दशा स्त्री महत्त्व पुरुषोंकी मान्यता हमारी भूल जैन समाज अस्य श्रद्धा अनमेल विवाह मल्या विक्रय वल विवाह वृद्ध विवाह मृतक भोज अन्तिम दान देखा देखी अपव्यय मात्सर्य स्वच्छन्दता नोवाजी साहित्यकी अवनति भक्ति ११६ भूचिचा खंड १६० १६१ एकता मधुर खान १६२ मनोकामना १६५ उत्तेजन १६६ स्वाधीनता " भविष्य स्त्री शिक्षा ५६७ स्थिती पालक " सुधारक " साहस १६८ देव १६९ सत्य १७० नवयुवको " छात्रगण ., जातिच्युत १७१ मुखिया , विधवा संवोधन " व्यर्थजीवन १७२ त्यागियो। १७२ धर्म धन १७३ आदेश प्रार्थना २४ तीर्थकरोकी १६७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलने को पाखण्ड लोक का, करने को जग का उद्धार प्रगट हो रहा । विश्व-गगन में, दिनकर-सम यह वीर कुमार विघट गई हिंसा की रजनी. गया अनेकों का अभिमान हुये सभी हार्षत तव इससे, बनी भूमि यह स्वर्ग-समान (श्रीमान् वाबू छोटेलालजी जैन के सौजन्य से प्राप्त) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ { ; , { ; ; ; ; ; ; ; ਜਿਵੇਂ ; ; ਬਦ-ਚਟ # # fਲੇ ! ਊ ; } ਜੋ ਦਿਓਲ , ਸਿਵਿ ਦੂ: SE ਲ ਯੂ ਏ ਕਿ , E ਨਿੱਝ FE 6 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In 2 1 1 سد Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-भारती है मंगलाचरणा । कार्यके आरम्भमें भगवानकी जय बोलिये, अन्तःकरणके दृढ़ कपाटोंको सहज ही खोलिये। प्रत्येक हृदयोंमें सतत जगदीश ही रहने लगें, उनके लिये सद्भक्तिकी नदियां सरस पहने लगे। शास्त्र जिस सांद्रतमपर सूर्यशशिकी भी नहीं चलतीमती, हे शारदे ! पलमात्रमें तू ही उसे संहारती।' जिनराज-निर्मल-मृदुसरोवरकीअलौकिक पद्मिनी, होता न किसका चित्तहर्षित देख तव शोभा घनी जो साधु सदुपदेश रूपी मेघ बरसाते यहाँ , जो भव्य रूपी चातकोंको तुष्ट करते हैं यहां । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान,तप,संयम,नियम जिनको सुहृद् सुखकार है, उन साधुओंकी पन्दना करता जगत शतबार है। प्रस्तावना होंगे सजग सबही मनुज पढ़कर हमारी भारती, पाषाण भी होगा द्रवित सुनकर हमारी भारती। सोये हुये निर्जीवसे उनको जगायेगी यही, सन्मार्ग विमुखोंको सदा पथमें लगायेगी यही । जो सड़ रहे हैं खेदसे आलस्यकी ही गोदमें, पढ़कर इसे वे नर सदा हंसते फिरेंगे मोदमें । होगा इसीसे ज्ञात सब क्या २ हमारा होगया ? सुविशाल इस भण्डारमेंसे रत्न क्या २ खो गया । यह काल वर्तन शील है या फिर न बदलेगा किसे ? पर कालको देता बदल जो 'वीर' कहते हैं उसे । नित दैवको ही दोष देना कायरोंका काम है, यो शूल धोनेसे कभी उगतान सुन्दर आम है। रविके निकलते ही मनोहर फैलता सुप्रभात है, छिपता प्रतापी सूर्य जब होती भयंकर रात है। हैं आज जो धनवान वे धनवान नित रहते नहीं, जो रंक है वे सर्वदा ही रंक तो रहते नहीं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ठीक ऐसी ही दशा संसारमें उत्थानकी, प्रत्यक्षमें अवलोकते कितनी दशाएं भानुकी ? हे लेखनी ! लिख दे प्रथम कैसे सुखी थे हम सभी, अवनतहुये संप्रति अधिक, अवशेष अवनति और भी जैनधर्मकी श्रेष्ठता । my 00000000 अनेकांत | संसारसे जिस धर्मने एकान्त बाद हटा दिया, है वस्तुनित्य- अनित्य यह जगको प्रगट बतला दिया अज्ञान होता दूर सब इस धर्मके ही नादसे, जीवित सदासे धर्म यह संसार में स्याद्वाद से | बहु धर्मवाली वस्तु जिससे काम हो वह मुख्य है, हम जैनियोंका तो सदा स्वाद्वाद सुन्दर तत्त्व है । बस, एक मानवमें सदा पुत्रत्व है, पितृत्व है, जिस काल जिससे काम हो रखता वही प्रमुखत्व है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -> अहिंसा | सबही अहिंसा धर्मको कल्याणकारी मानते, लेकिन न उसके गूढ़ तत्त्वांको कभा पहिचानते । जैसा अहिंसा धर्मका लक्षण कहा इस धर्ममें, वैसा अलौकिक लेख क्या, मिलता किसी के कर्ममें ? यह धर्मके भी नामपर आज्ञा न देता घातकी, वधसे दुराशा मात्र है सर्वत्र अपने शात १ की । होते न हर्षित देवता भी जीव-जीवन त्यागसे, वे तो मुदित होते सदा, बहु भक्तिगुण अनुरागसे । समानता । नित शक्ति सत्ताकी अपेक्षा सर्व जीव समान हैं, निज आवरणको दूरकर होते मनुज भगवान् हैं । सर्वेश होनेकी सभीके अन्तरंगमें शक्ति है, अतिही कठिनतासे सदा वह शक्ति होती व्यक्ति है सार्व धर्म | इस धर्मको तिर्यंच तक भी पाल सकते सर्वदा, सच पूछिये यह एकही जगमें सभीकी सम्पदा । १ कल्याण । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ མ》“ इस धर्मका धारक अधम मातंग १ भी पावन अहो, अपवित्र, धर्म विमुख मनुजयोगी भलेही क्यों न हो ! निष्पक्षता । सर्वज्ञ हो, निर्दोष हो, अविरुद्ध हो अनुपम गिरा, ये तीन गुण जिसमें प्रगर वह देव है, नहिं दूसरा | वह बुद्ध हो, श्रीकृष्ण हो या शम्भु हो श्रीराम हो, बस भेदभाव विना उसेकर जोड़ नित्य प्रणाम हो । सर्वोच हैं सिद्धान्त सव निष्पक्षताकी दृष्टिमें, इतिहास के पन्ने उलटिये आप इसकी पुष्टिमें । यह हो चुका है सिद्ध जगमें जैन धर्म अनादि है, स्वीकार करते श्रेष्ठता जगर को न वाद विवाद है । १ सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि, मात देहजम् । देवा देवं विदुर्भस्म, गूढागारान्तरौजसम् । ( श्रीसमन्तभद्राचार्य ) २ भारतके प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ विद्वान श्रीबालगंगाधर तिलककी सम्मति (देखो केसरी पत्र ता० १३ दिसम्बर १९०४ ) " ग्रन्थों तथा सामाजिक व्याख्यानोंसे जाना जाता है कि जैन धर्म अनादि है | यह विषय निर्विवाद तथा मतभेद रहित है । सुतरां इस विषयमें इतिहास के दृढ़ सबूत हैं और निदान ईस्वी सन्से ५२६ वर्ष पहलेका तो जैन धर्म सिद्ध है ही" "महावीर स्वामी जैन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन। मद,मोह,शोक,क्षुधा,तृषा इत्यादि जिनमें है नहीं, सर्वज्ञ राग द्वेष वर्जित,सर्व शास्ता 'जिन' वही। दिखतीं चराचर वस्तुएं जिनके अलौकिक ज्ञानमें, रहते सुरासुर मग्न नित उनके सुखद गुणगानमें। धर्म। जो प्राणियोंका दूर कर दुःख,सौख्य देता है अहा, धर्मको पुन. प्रकाशमें लाये इस वातको आज २४०० वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। बौद्ध धर्मकी स्थापनाके प्रथम जैन धर्मका प्रकाश फैल रहा था। यह बात विश्वास करने योग्य हैं। चौबीस तीर्थकरोंमें महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थ कर थे, इससे भी जैन धर्मकी प्राचीनता जानी जाती है। बौद्ध धर्म पीछेसे हुआ यह वात निश्चित है। (Mr T. W. Rhys Davids) मि. टि० डब्ल्यू रहिंस डेविड साने ( Rincyclopaedra Biuttanica Vol XXIX नामकी पुस्तकों लिखा है, "यह बात अब निश्चय है कि जैनमत घौद्धमतसे नि सन्देह बहुत पुराना है और बुद्ध के समकालीन महावीर अर्थात् वर्द्धमान द्वारा पुनः सजीवित हुआ है। और यह बात भी मले प्रकार निश्चय है कि जैन मतके मन्तव्य बहुत जरूरी और पौद्ध मतके मन्तव्योंसे विलकुल विरुद्ध हैं। ये दोनों मत न कि श्यमहीसे स्वाधीन हैं बल्कि एक दूसरेसे विलकुल निराले हैं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत् विज्ञ पुरुषोंने सुहृदू वर धर्म'१ उसकोही कहा हगर ज्ञान शुभ चारित्रका समुदाय ही सद्धर्म है, है मोक्षका पथ भी यही इसमें भरा बहु मर्म है। जैन पूर्वज। प्राचीन पुरुषोंके गुणोंको कौन कह सकता यहां? सम्पूर्ण सागर नीर यो घट मध्य रह सकता कहां? है जगत अब भी ऋणी उनके विपुल उपकारका, उनने पढ़ा था पाठ नित उपकारका उपकारका । वे विश्व सेवाके लिये प्रस्तुत सदा रहते रहे, पर हित अनेकों कष्ट वे आनन्दसे सहते रहे। मरना भवन में कायरों सम अति भयङ्कर पाप था, घनमें समरमें प्राण तजते कुछ न उनको ताप था। वे रिक्त कर आते यहां,पर रिक्त कर जाते न थे, सत्कार्य करने में कभी वे पूर्वज कायर न थे। जबतक यहां जीते रहे अद्भुत उन्हें कीर्ति मिली, १ संसार दुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । (स्वामी समंतभद्र) २ सदूरष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। (रत्नकरण्ड) . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . पश्चात् उनको स्वर्गमें देवेशकी भूति१ मिली। आलस्यमें जीवन विताना भूलकर भाया नहीं, संसारका दुर्भाव उनके चित्तमें आया नहीं। उनके सरल व्यवहारमें लवलेश भी माया नहीं, निज सत्य ही जगमें रहे चाहे रहे काया नहीं। आहार करके मिष्ट, चादर तानकर सोते न थे, वे एक क्षण भी व्यर्थमें अपना कभी खोते नथे। वे सह न सकते थे जगतमें धर्मके अपमानको, शुभकार्य हित वे तुच्छ गिनते थे सदा निज प्राणको उन पूर्व पुरुषोंसे सदा माता कहाई सुतवती, घस, लोकके कल्याणमें तत्पर रही उनकी मती । वे विश्वके सेवक रहे, पर विश्व प्रभु था मानता, कोई न था ऐसा मनुज उनको न जो पहिचानता। अपकारियोंका भी अहो! करते प्रथम उपकार थे, निज शत्रुके भी दुःखको करते मुदित संहार थे। लड़ते रहे मध्याह्नमें वे तो कठिन संग्राममें, मिलते रहे संध्या समय सप्रेम रिपुसे धाममें । था धैर्य उनको आपदामें अभ्युदयमें थी क्षमा, यो देखकर भीषण समर उत्साह नहिं उनका कमा । १ विभूति। d Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 』 निःशंक अति निर्भीक होके परिषदों में बोलते, यशके लिये उनके कभी भी मन सुमेरु न डोलते । त्रैलोक्यकी पा सम्पदा अभिमान वे करते न थे, यमराज से भी धर्म हित वे स्वप्न में डरते न थे । जिस कामको वे ठान लेते पूर्ण करते थे उसे, स्वप्न में भी जानते थे पथ पतन कहते किसे ? आदर्श उनके काम थे जिससे अभीतक नाम है, जीवित हमारा धर्म उनके कार्यका परिणाम है । अन्यायकारी अंग भी अपना नहीं था प्रिय उन्हें, निज पुत्रको भी दण्ड देना न्याय से था प्रिय उन्हें । निज धर्मपर बलिदान होते थे अहो ! हंसते हुये, सब प्राणियोंको आत्मवत् ही मानते थे वे हिये । ले के प्रतिज्ञा तोड़ना उनको कभी आता न था, उनके विपुल औदार्यका कोई पता पाता न था । संसारमें रहते हुये वे भोगियोंमें श्रेष्ठ थे, परमार्थमें रहते हुये वे योगियोंमें जेष्ठ थे । गृह शूर वन करके प्रथम तप शूर बनते थे वही, सहते उपद्रव थे मुदित विचलित न होते थे कहीं । दिविलोक१ में उनके गुणोंके गीत सुर गाते रहे, १ स्वर्ग । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रत्येक कामों में विजय पुरुषार्थसे पाते रहे । अभिमान तज करके हुये अमरेन्द्र उनके दास थे, संसारके सद्गुण सभी रहते उन्हींके पास थे । लक्ष्मी सदा उनके भवन पानी अहो ! भरती रही, जिह्वाग्रमें जग भारती आवास नित करती रही। उन पूर्वजोंके सामने मनकी व्यथा मरती रही, अवलोक उनके तेजको यों आपदा डरती रही । भोगभूमि अहा ! एक दिन मृगराज थे निज क्रूरता छोड़े हुये, वे भी हमारे कृत्य से सम्बन्ध ये जोड़े हुये । शूली न थी, फांसी न थी, नहिं मर्त्य कारागार १ थे, यस ! दंड दोषीके लिये हा ! मा ! तथा धिक्कार थे । जो सुख न था दिविलोकमें वह सौख्य था भूपर हमें, नमते रहे सुर प्रेमसे सिर, स्वर्गसे आकर हमें । सुर लोकके सुरतरु हमारे हेत धरणीमें रहे, अभिलाप अपनी पूर्ण हम उनसे सदा करते रहे । चिन्ना न धी, दुख, शोक, क्रोध विरोध भी रंचक न था आनन्दमें सब लीन थे यमराजका भी भय न था । १ जेट | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारमें ही देव दुर्लभ सौख्य उनको प्राप्त थे, इस लोकके उत्कृष्ट सुखसे चित्त उनके व्याप्त थे। प्रभाव। अवलोक करके शांति मुद्रा वैर तजते थे सभी, लड़ता नथा उनके निकट अहिसे नकुल लवलेश भी मार्जार करता था किलोलें हर्षसे ही श्वानसे, पशु देखते थे सौम्य आनन सर्वदा अति ध्यानसे। बनके हरिण मनमें अहो! वे स्थाणुकीही भ्रांतिसे, तनकी खुजाते खाज थे उनसे रगड़कर शांतिसे। सिंहनी-शावक अहा ! गौ-क्षीर पीता था यहां, गौ-वत्स निर्भय सिंहनीका क्षीर पीता था यहां। केकी पगोंके पास ही निःशंक विषधर डोलते, वे भूल करके भी कभी उनसे न कुछ थे बोलते। आश्चर्य जग भरको हुआ उनकी अलौकिक शक्तिसे, करते रहे गुणगान सविनय विश्वजन बहु भक्तिसे आदर्श पुरुष। आदर्श हों दो चार तो उनको गिनायें हम यहाँ, आकाशके तारे अहो ! किस विधि गिनायें हमयहां आश्चर्यकारी लोकको उत्कृष्ट उनके कृत्य थे, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमता विपुल समता दयासे युक्त उनके चित्त थे। दानी नहीं श्रेयांस१ सा इस भव्य भूतलपर हुआ, ज्ञानी कहो भरतेशरसा कब अन्य इस भूपर हुआ देखो, दशानन३ और बाली४से यहां बलवान थे, थे पार्थ से रणवीर भट,जिनके भयंकर वाणथे। १ कर्मभूमिको आदिमें श्रेयान्स महाराज दान-तीय के प्रवर्तक हुए हैं। इन्होने भगवान आदिनाथको इक्षुरसका दान दिया था। दान थोड़ा था परन्तु प्रगाढ़ भक्तिसे दिया गया था। जिससे देवोंने पंचाश्चर्य किये थे। २ चक्रवर्ती भरत त्रैलोक्य पति भगवान आदिनाथके पुत्र थे। इन्हें सभी सुख सुलभ थे। राज्य करते हुये महाराज भरत सदेव आत्म कल्याणपर विशेष लक्ष्य रखते थे। वे सांसारिक सुखोंमें आसक्त नहीं थे । इनको दीक्षा लेते ही केवलज्ञान उत्पन्न होगया था। शानन लडाका चिन्शाली अधिपति था। उसने अपने पराक्रमसे इन्द्रको (रावणके समयका पराक्रमी विद्याधर) जीव लिया था। बड़े २ शूरवीर इसका नाम सुनकर कांप उठते थे। इसने अपनी शकिसे पर्वतराज कैलाशको भी हिला दिया था। वालिदेव किस्किन्या नगरके अधिपति थे। इन्हें संसारसे बैराग्य हो गया। ये अपने छोटे भाई सुग्रीवको राज्य देकर तपस्या करने लगे। एक दिन वालि देव कैलाशगिरिपर ध्यानालढ़ थे। रावण कहीं भ्रमणा जा रहा था, उसका विमान वालिदेव मुनिराज Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *}... सुकुमाल १ से सुकुमारसे थी एकदिन शोभित मही, पर्यङ्कको तज भूलकर भूपर दिया पग भी नहीं । जब वे तपोवनमें गये पगसे रुधिर धारा बही, निश्चल रहे निज ध्यानमें तन गीदड़ी खाती रही। के ऊपर आके अटक गया जिससे लंकेश बहुत क्रोधित हुआ । "मैं इस बालिके साथ २ पर्वतको उखाड़ करके समुद्रमें फेक दूंगा ।" इत्यादि कहता हुआ पर्वतको हिलाने लगा । वालिदेव निस्पृही थे, उन्हें अपनी कुछ भी चिन्ता नहीं थी । "इस पर्वतपर अनेक प्राचीन चैत्यालय है वे सब नष्ट हो जायेंगे तथा अन्य कितने ही मुनियोंका नाश होगा" यही सोचकर उन्होंने अपने पगका अंगूठा धीरेसे नीचे को दबाया जिससे रावणका गर्व खर्न हो गया । पश्चात् रावणने अपने दुष्कृत्यकी कड़ी आलोचना की, अपराध क्षमा कराया । ५ जग प्रसिद्ध अर्जुनका वृत्तान्त किससे छिपा हुआ है? महाभारत के अन्दर शौर्य दिखला करके अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था । १ सुकुमाल बड़े ही सुकुमार थे, एक बार राजा इनको देखनेके लिये आया । उस समय इनकी माताने दोनोंकी आरती उतारी जिससे सुकुमालकी आंखोंमें अश्रु आ गये । राजाने सेठानीसे कहा, तुम्हारे पुत्रको यह कौनसी बीमारी है ? सेठानी- राजन् यह कोई व्याधि नहीं है, किन्तु यह सदैव रत्नके प्रकाशको देखता है, माज दीपकके प्रकाशको देखकर इसकी आखोंमें आसु आ गये। सुकुमाल स्वभावसे ही धर्मात्मा था, सेठानीको सदा यह रहता था कि यह Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scoom जिन दीक्षा ले लेवे, अतएव अपने घर मुनियोंका आना भी बन्द कर दिया था। सुकुमाल बत्तीस स्त्रियोंके साथ वत्तीस खण्डवाले भवनमे अपने सुदिन विताने लगे। देव योगसे इनके महलके पीछे वाले मन्दिरमें कोई मुनि चातुर्मास करनेके लिये ठहरे। एक समय मुनिराज त्रिलोक प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे। और उसकी आवाज सुकुमालको प्रगट सुनाई पड़ रही थी। उसके सुननेसे सुकुमालको जाति स्मरण हुमा तथा तत्काल वैराग्य रसमें लीन हो गया। वाहर मानेका कोई उपाय न देखकर उसने खिड़की (गवाक्ष ) मेसे कपड़ों की रस्सी बनाकर लटकाई और उसके सहारे मुनिके पास आके दीक्षा ले ली । मुनिने कहा कि तुम्हारो आयुके तीन दिन अवशेष हैं। सुकुमार सुकुमाल मुनि तप करने वनमें जा रहे हो उस समय उनके पगोसे रक्तकी धारा वह निकली थी, सुमन सुकोमल गान सुकुमालको इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी। वे गहन वनमें शान्तमनसे तपस्या करने लगे। अशुभ कर्मोका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। इतनेमे ही एक शृगालनी रुधिर धाराको चाटती २ बचो सहित मुनिराजके निकट आ पहुंची। उनको देख करके गालनीको बहुत कोप उत्पन्न हुआ। उसने मुनिका हाथ खाना प्रारम्भ किया तथा पञ्चाने पग साना शुरु किया तीन दिनतक वह गीदड़ी उनके शरीरको बड़ी ही निर्दयताले खानी रही । इतनी आपदामे भी मुनिराज सुकुमाल पर्वतराजमम अकम्प गे, उन्होने इस दुखको दुलही नहीं माना,ज्यों ज्यों गीदड़ी उनको खाती गई त्योत्यो वे आत्म ध्यानमें अधिक लवलीन होते गये। अंतमे सर्वार्थसिद्धि विमानम महमिद हुए। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28.00 श्रीपार्श्व१ प्रभुपर दैत्यने कितना उपद्रव था किया, साक्षात् हा! उसने प्रलयका दृश्य था दिखला दिया नाची पिशाचनी भीम वदना मेघसे ओले पड़े, सहते हुये उपसर्ग सब कनकाद्रिश्वत् प्रभु थे खड़े। यो देख जीवक३ को विपिनमें बोलती विद्याधरी, 'पाणिग्रहण मेरा करो मैं हूँ अलौकिक सुन्दरी'। उस काल क्या उत्तर दिया पाठक ! उसे सुन लीजिये मैं तो तुम्हारा बन्धु सम भगिनी न इच्छा कीजिये १ यद्न्दुर्जितधनौध मदभ्रमीम भ्रश्यत्तडिन्मुसलमासलघोर धारम् । दैत्येन मुक्तमथदुस्तरवारिध्र, तेनैव तस्य जिनदुस्तरवारिकृत्यम् ॥१॥ ध्वस्तो केशविकृताकृतिमय॑मुण्ड । मालम्बभृन्यवक्त्रविनियंदग्निः ।। प्रेतत्रजः प्रतिभवन्तमपीरितो यः। सोऽस्या भवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥२॥ (श्रीकल्याण मन्दिर स्तोत्र ) २ सुमेरु पर्वत। ३ जीवन्धर कुमार क्षत्रिय पुत्र थे। एक वैश्यके यहां पालन पोषण हुआ था। कुमार वाल्यकालसे ही अत्यंत तेजस्वी थे। विद्याभ्यास पूर्ण होनेपर गुरुने इनसे कहा "तुम क्षत्रिय वीर हो, तुम्हारे पिताको मार करके काष्टांगारने राज्य ले लिया है। यह Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Namo अपने पिताके हेत देखो भीष्म ने त्यागा सभी, क्या दूसरा दुःसाध्य ऐसा कार्यकर सकता कभी ? उनसा न कोई ब्रह्मचारी आज आता दृष्टिमें, यह देह तो नश्वर सदा गुण गूंजते हैं सृष्टिमें। सुनकर इनके शरीरमें भागसी लग गई, ये तत्कालही उसे मारनेको प्रस्तुत हुये, किन्तु गुरुने ऐसा करनेसे रोका। तुम अभी बालक हो तुम्हारे पास साधन नहीं हैं जिससे कि तुम उससे अभी युद्ध करो। धैर्य रखो! एक वर्ष बाद तुम उससे अवश्य राज्य लेनेमे समर्थ होगे। कुमार घर आ गये स्वयम्वरमे इन्होंने गंधर्गदत्ताको जीत लिया, लुटेरोंको वशमे किया, तथा एक दिन काष्ठागारका हाथी छट गया था उसको वशमें किया । इन सब कार्योंने काष्ठांगारकी क्रोधानलमें घीका काम दिया। उसने कुमारको पकड़ बुलाया। शूलीपर रखनेकी आज्ञा दी, शूलीपरसे एक देव उठा ले गया। पश्चात् कुमार भ्रमण करते करते एक सघन वनमें आये। थकावट दूर करनेके लिये एक वृक्षके तले बैठ गये। वहींका एक विद्याधर दम्पति ठहरा हुआ था विद्याधर पानी लेने गया कि विद्याधरी इनके पास आके प्रेमकी प्रार्थना करने लगी। कुमारने कहा कि तू मेरी बहिन समान है। इनका विशेप हाल जाननेके लिये क्षत्रचूडामणि या जोगंधर चम्पू देखना चाहिये। भीष्म-प्रतिज्ञा जग जाहिर है, अपने पिताके लिये ये आजन्म ग्रामचारी रहे थे। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अकलंक युतनिकलंकने व्रत वाल्यजीवनमें लिया, रहते हुये निज प्राण उसका अंततक पालन किया। करने लगे उनके पिता तैयारियां उत्साहसे, बोले तभी वे वीर हमको काम क्या इस व्याहसे? देखो ! पिता सर्वत्रही अज्ञान तम अति छा रहा, प्राचीन अपना धर्म दिन २ हा । रसातल जारहा । जीवन बिताऊंगा पिता निज धर्मके उद्धार में, उन्नति न करते धर्मकी वे भार हैं संसारमें । अतएव अपने पुत्र ये धर्मार्थ अब अर्पण करो, होगा हमारा क्या अकेले यह न तुम चिंता करो। नकलंक तो हंसते हुये बलिदान सहसा होगये, अकलंक अपने ज्ञानसे अज्ञान तमको घो गये । पाठक ! यहां बलिदानकी कैसी भयंकर थी प्रथा, सब जान लीजे आप उसको पर पुराणोंसे तथा । श्रीवीर प्रभु होते न जो हिंसा कभी रुकती नहीं, अपने हिताहितको कभी भी यह मही लखती नहीं । आदेश पालक वीर थे संसार में मगधेश १ से, पाके पिता आज्ञा कठिन सविनय गये जो देशसे श्रीराम लक्ष्मणसा किसीमें प्रेम क्या होगा हरे ? १ श्रेणिक २ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह मासतक निज बन्धु शव ले प्रेमसे व्याकुलफिरे मातंग भी देखो अहिंसा धर्मका धारी हुआ, धनदेवसा क्या अन्य कोई सत्य संचारी हुआ ? वह वारिषेण स्तुत्य है अस्तेय व्रत धारो सदा, कितना सुदृढ़ था शोलपर वह मीनकेननर सर्वदा। जयने किया परिमाण जो उसको कभी छोड़ा नहीं, अघसे कभी सम्बन्ध उसने स्वप्नमें जोड़ा नहीं। अपनी परीक्षाके समय वे सर्वथा निश्चल रहे. उपसर्ग जो आ आ पड़े आनन्दसे सहते रहे । उनके चरणमें शीश अपना इन्द्रको झुकना पड़ा, अन्याय और अनीतिको सर्वत्र ही रुकना पड़ा। जिस ओर उत्तेजितचले उस ओर सारा जगचला, आदर्श नर संसारका करते रहे निशिदिन भला। श्री बाहुवलसे एक दिन उत्तम तपस्वी थे यहां, श्रीकृष्ण या बलदेवसे उत्तम यशस्वी थे यहां । उनके गुणोंको आज भी गाता सकल संसार है, गुणगानका प्रत्येक नरको सर्वथा अधिकार है। १ चाडाल। २ प्रद्युम्नकुमार। ३ जयकुमार। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६: जैन स्त्रियां । थे देव यदि इस देशके तो नारियां थीं देवियां, यों कर न सकतीं थीं उन्हें पथसे चलित आपत्तियां अवला कहाके शील-रक्षणमें सदा सबला रहीं, विद्या तथा चातुर्यतामें वे सदा प्रबला रहीं । प्राणेशको तज अन्यको चाहा न उनने स्वप्रमें, तजना प्रभूको दुःखमें चाहा न उनने स्वप्न में । रहकर स्वपति के साथ में दुःखको न दुःख माना कभी, प्राणेश सेवामें सदा ही धर्म निज जाना सभी । मृदुदर्भ शैय्या थी उन्हें पति साथमें सुखकर बड़ी, उनके बिरहमें पुष्प- शैय्या थी धरासे भी कड़ी। अतिशय निपुण थीं देवियां अपने भवनके काममें, होती न थी किंचित् कलह उनसे कभी भी धाममें पति सेव कहते हैं किसे बतला दिया इस विश्वको, सतेज अपने शीलका जतला दिया इस विश्वको पति देव सेवामें प्रथम मैना सती आदर्श है, पावन हुआ सन्नारियोंसे भव्य भारतवर्ष है । अतिव हृदयों को पलटनेकी उन्हींमें शक्ति थी. निज इष्टदेवोंके प्रति उनकी सतही भक्ति थी। उन देवियोंसे एकदिन सुन्दर-सदन शुभस्वर्ग धा, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० उनकी कृपासेही सहज सधता यहाँ अपवर्ग था । मगधाधिपति किसकी कृपासे बौद्धसे जैनी वना, आता न वह सन्मार्ग पर होती नहीं यदि चेलना १ । 3 चलना महाराज श्रेणिककी मर्द्धाङ्गिनी थी, महाराज बौद्ध धर्मका पालक था और महारानी जैन धर्मकी सच्ची उपासिका थी । महाराज रानीको निजरूप बनाना चाहते थे और रानी महाराजको जैन बनाना चाहती थी। दोनोंमे ही खूब वाद विवाद होता था महाराजको उसकी प्रवल युक्तियोसे निरूत्तर हो जाना पड़ता था । एक दिन महाराजके प्रासादमें बौद्ध-गुरु आये, वे महारानी चेलना को जैन धर्मके विरुद्ध उपदेश देने लगे। जैन-गुरु नंगे रहते हैं उन्हें एक अक्षरका भी ज्ञान नहीं हैं। हम लोग सर्वज्ञ हैं अतएव कलसे हमीको मानना चाहिये । रानीने कहा, ठीक कलसे में आपको ही अपना गुरु मानूंगी। दूसरे दिन चे साधु फिर आये, आहार करनेके लिये राजमहलमे बैठे कि इतनेमे ही रानीने दासी द्वारा उनका एक जूता मंगाकर औरवारीक पीस करके भोजनमे परोस दिया । साधु लोग नया मिष्ठान्न समझ कर बड़े आनन्दले उसे खा गये । पश्चात् वे लोग मठमें जाने लगे, अपना एक जूता न देखकर बड़े ही हैरान हुये । तव रानीने कहा "आप लोग तो कल सर्वज्ञ वनते थे इस समय तुम्हारी सर्वज्ञता कहां चली गयी है ? वस्तु तुम्हारे पास ही है। वे ललित साधु चुपचाप चले गये । पर इस अपमानसे श्रेणिकको बड़ा ही दुःख हुआ वह जैन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 सहतीरहीद्र पदात्मजा दुःख नाथ संग वनके सभी, तजकर उन्हें चाहा न उसने पितृ-कुलका सुख कभी आजन्मके भी शीलवतको पाल सकती थीं यहां, ब्राह्मी तथा सुन्दरिसहश थीं पूज्य बालायें यहां गुरुओंके अपमानका अवसर देखने लगा। दैववशात् एक दिन , शिकार करते हुये राजाने दिगम्बर जैन मुनिको देखा । उसे देखकर क्रोधका ठिकाना नहीं रहा । अपने ५०० शिकारी कुत्ते उसने मुनि के ऊपर छोड़ दिये, किन्तु वे श्वान मुनिके पास जाते ही बिलकुल शान्त हो गये। महाराजका क्रोध और भी उत्तेजित हुआ उन्होंने मरा हुआ साप मुनिके गलेमें डाल दिया। सातवें नरककी स्थितिका बंध किया। ___ तीन दिन बाद अपनी पाप कथा रानीको सुनाई। रानीने राजाको खूब ही धिक्कारा! रातमें हो राजा रानी मुनिके पास गये, मुनिको निष्कम्प देख करके राजाको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। प्रातःकाल होते ही मुनिने दोनोंको धर्मवृद्धि दी। जिससे राजाके मनमें मुनिके प्रति अपूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गई। __चेलनाके ही प्रभावसे मनिराजके दर्शन हुये। विशेष हाल जाननेके लिये श्रेणिक चरित या महारानी चेलना देखना चाहिये। लेखक। १ बाझी और सुन्दरी भगवान आदिनाथकी पुत्रियां थीं भगवानने स्वयं इन्हे विद्याभ्यास कराया था। दोनो ही वाल प्रक्षचारिणीरहीं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानने सप्रेम ही उनको पढ़ाया था अहो ! हा। क्या अशिक्षित नारियोंसे भी भला होता कहो जीवनमयी ! अागिनी! हृदयेश्वरी प्राण-प्रिये ! ये कोषके मृदुशब्द सवही थे सदा उनके लिये। हम मानवोंके भी हृदयमें नारियों का मान था. हर एक बातों में हमें उनका बड़ा ही ध्यान था। गंधर्वदत्ता, अंजना, श्रीदेवकी, सुरमंजरी, . सीता, सुभद्रा, उत्तरा, नीली तथा मन्दोदरी। राजुल शिवा श्री चन्दना कुन्ती तथा शीलावती, - विजया,सती,दमयन्ति ब्राह्मी, सुन्दरी,पद्मावती। पतिदेवके आगे उन्हें प्रिय पुत्रकी चिन्ता न थी. आपत्ति भयकर शीलसे अपकार कुछ करतीन थी हाहा! सतीका एक बालक अग्निमें था गिर पड़ा, यह अग्नि चंदन समहुई आश्चर्य यह जगको पड़ा। १ एक रात्रिको वेष बदलकर धारा नगरी ( राजधानी ) घमते हुये राजा भोजने देखा-एक ब्राह्मणी अपने पतिकी सेवामें उपस्थित थी। अनायास उसका अल्प व्यस्क बालक खेलते २ हवन करनेके अग्निकुण्डमें गिर पडा, प्राझणी यह देखकर भी प्रसन्न चित्तसे पति की सेवामे तत्पर रही। उसके इस पतित्रत धर्मक प्रभावसे वालकको अमिने कुछ भी हानि नहीं पहुंचायी। . - - - - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता । अपनी परीक्षाके समय जनकात्मजा बोली यही, मनसे वचनसे कायसे परको कभी चाहा नहीं । यदि हे अनल ! मिथ्या बचन हों भस्म कर देना मुझे, कैसी सदा में विश्वमें हूँ यह बताना है तुझे ? for शील सन्मुख देवियोंको राज्य वैभव तुच्छ था, पतिप्राण था पतिज्ञान था, पति ध्यान था सर्वोच्चथा । शिक्षित अनेकों देवियों होतीं रहीं जिस देशमें, बस टिक सकी होगी कहां अज्ञानता उस देशमें । इम अद्भ ुत और अपूर्ण चमत्कारको देखकर राजा भोजने दूसरे दिन अपने सभा पण्डितोसे यह प्रश्न ( समस्यारूप ) किया कि- " हुताशनश्चन्दन पंकशीतला. ' कवि शिरोमणि कालीदासने उत्तर दिया सुतं पततं प्रसमीक्ष्य पावके, नवोधयामास पतिं पतिवृता । पतिव्रताशापभयेनपीडितो, हुताशनञ्चन्दन पङ्कशीतल. ( काव्य प्रभाकर ) हमारा श्रद्धान | होवे अनल शीतल कही योगी चलित हों ध्यानसे. होते न थे विचलित कभी हम धर्मके श्रद्धानसे । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ác सर्वज्ञका पथ विश्वमें मिथ्या कभी होता नहीं, ऐसा सुदृढ़ श्रद्धान क्या उन पूर्वजों को था नहीं ? हम अन्ध श्रद्धालु न थे नित मानते थे बस वही, जिस बातको सप्रेम सादर सत्य कहती थी मही । श्रद्धानमें ही देव है इस बातका विश्वास था, सत्यार्थ विश्वाससे पाता न कोई त्रास धा । हमारी निःकांक्षा । करके अलौकिक कार्य हम करते न थे फल चाहना, रहती रही जागृत हृदयमें धर्मकी सद्भावना | निज कार्यका परिणाम जगमें सर्वदा मिलता स्वयम्, अवलोककर आदित्यको पंकज - विपिनखिलतान किम् निर्विचिकित्सा | देख कर अपवित्रताको हम न करते थे घृणा, अपने हृदयमें सोचते थे, गात्र यह किससे बना? तज न सकनी वस्तु अपने भावको किञ्चित् कहीं, यो ग्लानिकरना वस्तुसे सार्थक हमारा है नहीं । मृढ़ दृष्टि 1 नमते न थे महमा कभी भी हम किसी को भेष१ से, १० रियर पण्डित बनारसीदासजी परी जोव Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वको कब मानते थे हम किसी भी क्लेशसे कब पूजते थे हम कुदेवों को कुगुरुओं को अहा, सबके हृदयमें सत्यका ही ध्यान रहता था महा। उपगृहन। निज धर्मकी निन्दा हमारे कान सुनते थे नहीं, उत्तर हमी देना कभी भी चूक सकते थे नहीं। करना प्रगट अवगुण किसीका धर्म करता है मने, करते रहो उपकार जगमें आपसे जितना बने । थे। एक दिन दो मुनि मन्दिरके दालानमें एक झरोखे ( गवाक्ष } के निकट बैठे हुये थे। कविवर उस बगीचे, और झरोखेके समीप खड़े हो गये। जब किसी मुनिकी दृष्टि उनकी ओर आती थी, तब वे अंगुली दिखाके उसे चिढ़ाते थे। वे भक्तजनोंकी ओर मुंह करके बोले, देखो तो वागमें कोई कूकर ऊधम मचा रहा है । लोगोंने देखकर मुनियोंसे कहा. महाराज! वहा और तो कोई नहीं था, हमारे यहाके सुप्रतिष्ठित पण्डित वनारसीदासजी थे, यह जानकर कि यह कोई विद्वान परीक्षक था, मुनियोंको चिन्ता हुई, और दो चार दिन रहकर वे अन्यत्र विहार कर गये। कहते हैं कि कविवर परीक्षा कर चुकतेपर फिर मुनियोंके दर्शनोंको नहीं गये। (वनारसी विलास) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 स्थितिकरण । मद,मोह,तृष्णावश मनुज जो धर्मसे गिरते हुये, हमही उन्हें सन्मार्गमें स्थित पुनः करते हुये। स्थिति करणही देश अथवा धर्मका प्रिय अङ्ग है, इस अङ्ग घिन सर्वत्र हो प्रिय-धर्म होता भङ्ग है। वात्सल्य । निज-बंधुओंपर ही हमारा निष्कपट अति प्यार था, सुख दुःखमें निज धर्मियोंकाही बड़ा आधार था। उनसे सतत मिलकर हमें आनन्द होता था महा, संसारमें साधर्मियोंका प्रेम मिलता है कहाँ ? प्रभावना। जिन धर्मकी महिमा प्रगट हम शक्तिभर करते रहे, बहु मूढ़ उसके तत्व जगके सामने धरते रहे। आडम्बरोंसे धर्मकी होती न बढ़वारी कभी, इम यातको अच्छी तरहसे जानते थे हम मभी। हमारी विद्या। माता मदा बह गनु है परी जनक जगमें बही, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तानको जो प्रेम वश विद्या पढ़ाते है नहीं। यह ध्यान में रखकर हमी विद्या पढ़ाले थे यहां, हमसे प्रबल विद्वान थे इस विश्वमें बोलो कहां। विद्या हमारी थी सभीको बोध देने के लिये, इससे सतत उपकार हमने विश्वके कितने किये। पढ़कर इसे आजीविकाका लक्ष्य रखते थे नहीं, आशा भरी मृदु दृष्टिसे परमुख न लखते थे कहीं गुरु१ भूल भी बतला सकें इतना यहांपर ज्ञान था, छह मासतक शास्त्रार्थकर किसने बढ़ाया मान था? भगवान तककी भी उपाधि विश्वमें नित प्राप्त थी, 'जिह्वाग्रमें यह शारदा रहती सदा ही व्याप्त थी। श्रुतज्ञान। है ज्ञात इस संसारको कैसे प्रथम ज्ञानी हुये, हम एकसे बढ़कर यहांपर नित्य विज्ञानी हुये। श्रत केवली सम्पूर्ण विद्या पारगामी थे यहां, सबोध जो करुणासदन सर्वत्र देते थे यहां। १ अकलंक खामीने विद्यार्थी अवस्था बौद्ध-गुरुकी पुस्तक ठीक की थी। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी चन्द्र१, रवि प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति यहां, थी द्वीप-सागर २ अतिगहन व्याख्या सुप्रज्ञप्ति यहां माया३ गता जल थलगता इत्यादि विद्यायें रहीं, दुर्भाग्यसे अब ग्रन्थ उनके प्राप्त हा! होते नहीं। वे गूढ मनकी बात सब सद् भांति बतलाते रहे, वे भूत और भविष्यको प्रत्यक्ष जतलाते रहे। सब वस्तुयें दिखती रहीं उनके अलौकिक ज्ञानमें, अव आन सकना ध्यान भी उनका किसीके ध्यानमें हमारे शास्त्र। सवही विषयके शास्त्र थे शोभित यहां भंडारमें, नहिं अन्य उनकी जोड़के थे ग्रन्थ इस संसारमें। निज २ विषयमें एकसे बढ़कर यहाँपर ग्रन्थ थे, पढ़कर उन्हें मानव सदाहो देखते निज पन्य थे। १ चन्द्र प्रज्ञनिमें चन्द्रमा सम्वन्धी सूर्य प्रज्ञप्तिमें सूर्य सम्वन्धी विमान, पूर्ण गृहण, अर्ध गृहणका वर्णन है। र द्वीप सागर प्रतिमें असंख्यान द्वीप और समुद्रीका वर्णन है। ३ माया गामें इन्द्रजाल सम्वन्धी वर्णन है। ४जल गठामें अलगमन आदिका वर्णन है। (गोमनार जीवकाण्ड) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानकी अनुपस्थितिमें वे हमें भगवान् थे, उनके मननसेही थने हम एक दिन विद्वान थे। सब प्राणियोंका नेत्र अद्भुत शास्त्र कहलाता सही, सम्पूर्ण घातों को सतत प्रत्यक्ष बतलाता वहीं । छोटे हमारे सूत्र हैं भावार्थ अतिशय ही भरा, यों कर न सकता अर्थ जिसका स्वप्नमें भी दूसरा। तत्वार्थ सूत्र विलोक लीजे भाष्य हैं उसपर बड़े, अधुनान मिलते पूर्ण हा ! हा!! बंदतालोंमें पड़े। तत्वार्थ रच आचार्यने उपकार जगका कर दिया, निज दक्षतासे ही सहज घट मध्य सागर भरदिया। निज-धर्मके सिद्धान्त यो संक्षेपमें सब आ गये,. धनते रहे जिसपर यहाँपर शास्त्र नित्य नये नये। न्याय। 'गंधहस्ति' जैसे भाष्य निज सत्ता यहाँ रखते रहे, जिससे सदा हम जीव पुद्गल भेदकोलखतेरहे । श्रीश्लोकवार्तिक ग्रन्थकी किससे छिपीप्राचीनता ? क्या न्यायकुमुदोदय तथा मार्तडकीविस्तीर्णता? १ गंधहस्ति महाभाष्य । २ प्रमेय-कमल-मार्तण्ड। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOON होते न यदि ये ग्रन्थ तो रहत्ते सभी अज्ञानमें, इस जीवका आता न लक्षण भी किसीके ध्यानसें। षड् द्रव्य जगमें कौनसे हम जान सकते थे नहीं, इस जीवका अस्तित्व मानव मान सकते थे नहीं अध्यात्म ग्रन्थ। अध्यात्म विद्याके विपुल सद् ग्रन्थ जितने हैं यहां, अहा ! अन्यलोगोंके यहांपर ग्रन्थ उतने हैं कहां? जबतक न अपने रूपमें नल्लीन नर होता नहीं, तबतक न वह लवलेश भी हा! कर्मरज धोता नहीं अध्यात्म विद्याका प्रचारक ग्रन्थ 'प्रवचनसार है, बतला दिया उसने सकलमद, मोहही ससार है। करके जगतके कृत्य नर पड़ता स्वयं जंजालमें हा। मानता है देहको अपना यहां त्रयकालमें । प्राचार-ग्रन्थ। विस्तीर्ण इस साहित्यमें नहिं धर्म-ग्रन्थों की कमी, कल्याणहित शुभ शान्त्र कितने रच गये हैं संयमी, 'अनगार धर्मामृत'नया सागार धर्मान्त' अहो ! 'श्री भगवनी आराधना से ग्रन्थ हैं किसमें कहो ? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा शास्त्र। श्रीपूज्यपादाचार्यश्कृत अनुपम चिकित्सा शास्त्र हैं, वाग्भट्ट जैसे अन्य धरणीमें अधिक विख्यात हैं। करते रहे सब ही चिकित्सा शास्त्रके अनुसार ही, छोटे. बड़े सब रोग मिटते थे सदा सोचो यही। है वैद्यगाहार ग्रन्थ अद्भुत और औषध-कल्प है, हममें चिकित्सा शास्त्रका साहित्य भी कव अल्प है? उस काल इस संसारमें थी कौन सी ऐसी व्यथा, जिसपर हमारी औषधी जातीकदाचित् हो वृथा। प्राकृत-भाषा। कितने यहांपर अन्ध इसके मोद-प्रद उपलब्ध हैं, अवलोक जिसकी रम्य रचना विज्ञ होते स्तब्ध हैं। गोमहसार त्रिलोकसारादिक उसीके रत्न हैं, उन पूर्वजोंके ही सदा ये सर्व योग्य प्रयत्न हैं। १ रस तन्त्र, गद्यकसार संग्रह और वैद्यकयोग संग्रह ये तीन ग्रन्थ उक्त आचार्यके बनाये हुये हैं। २ यह गून्य कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ है। ३ इन्द्रनन्दिमहारक कृत। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B काव्य। सारे हमारे काव्य हैं परिपूर्ण बहु-पाण्डित्यसे, सौन्दर्य मंडितरस अलंकृत पद प्रबल लालित्यसे। जिसके पठनसे नर-हृदय होता रहा हर्षित सदा, है काव्य अतिशय मोद-प्रद सबको जगतमें सर्वदा। सचमुच हमारे काव्य जग-विश्रुत अपूर्व अपार हैं, नहिं अन्य काव्योंकी तरह शृङ्गारके आगार हैं। इन जैन काव्योंमें सदा नव रस यथास्थल हैं अहा! पर अन्तमें प्रत्येकके बैराग्यका सोता बहा । नहिं काव्य हैं उत्कृष्ट जगमें मन लुभानेके लिये, हैं किन्तु वे तो पुण्यकी महिमा बतानेके लिये। अवज्ञात होती है उसे इनमें विशेष विशेषता, निष्पक्ष हो साहित्यकी ही दृष्टिसे जो देखता। है गद्यकी रचना अलौकिक विश्वमें कादम्बरी, वह गद्य चिन्तामणि विपुल पांडित्यसे पूरी भरी। क्या है न चन्द्रप्रभ-चरित रघुवंशकी ही जोड़का, है ग्रन्थ अन्योंमें कहां पुरुदेव चम्पू जोड़का । उस अभ्युदयके सामने क्या वस्तु काव्य किरात है? पद रम्यता,उपमा तथा गुरुता विपुल विख्यात है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m. uty चम्पू सरीखे काव्य तो दो चार भी होंगे नहीं, शृङ्गार रस भरपूर जो थोड़े बहुत मिलते कहीं । पांडित्य दर्शक देखलो वह काव्य द्विःसन्धान हैं, जिसको सकल साहित्य में नित प्राप्त उच्च स्थान है । प्रत्येक छन्दोंके अहो ! चौवीस होते अर्थ हैं, ऐसे गहन सद् ग्रन्थ हममें ही सदैव समर्थ हैं । चित्र विद्या । हम चित्र विद्यामें परम नैपुण्य रखते थे यहां, निज लेखनीके ही चलाते चित्र लखते थे यहां । अंगुष्ठको अवलोक कर सर्वाङ्ग अङ्कित कर सके, अपनी कालसे विश्व भरका मन विमोहित कर सके। देखो यशोधर ग्रन्थमें मन मुग्धकारो चित्र हैं. अङ्कत हमारे ही किये मिलते यहाँ पर चित्र हैं । अवलोकके आँखें उन्हें चाहें पुनः अवलोकना, उस चित्रकारीकी न कोई कर सकेगा कल्पना । रचतेन नारद रुक्मिणीका चित्र यदि जगमें कहीं, संग्राम में शिशुपालका संहार भी होता नहीं । बिरही प्रियाका चित्रका लखकर धैर्य नित धरते रहे, हम चित्र अनुपम विश्वमें अङ्कित सदा करते रहे । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज ग्रन्थके प्रारम्भमें वे वाक्य लिखते थे यही. यस शब्द एकत्रित किये कुछ भी किया हमने नहीं। स्तोत्र। कल्याणमन्दिरकी कहो महिमा छिपी क्याआपसे ? प्रगटित हुई थी पार्श्व प्रतिमा स्तोत्र सत्य प्रनापसे । भक्तामरादिक तेजको सब लोग अबतक जानते, हैं मंत्र इसमें बात यह विद्वान सब ही मानते । कैसे स्वयंभू स्तोत्रका गुणगान नर मुखसे करे ? उसकी कथा इस विश्वमें आश्चर्यको पैदा करे। वे स्तोत्र क्या वस मंत्र थेनिजकार्य होताथासमी, देतेन थे जिसके पठनसे त्रास व्यन्तर भी कभी। श्रीवादिराज प्रणीत 'एकीभाव' भक्तीमय अहा! आचार्यका जिससे कलेवर कोड़ सबजाना रहा। यदि भक्ति भावोंसे करें हम देवकी आराधना, होनी सहज ही शोध पूरी चित्तकी शुभकामना । स्तुतियें। संकटहरण विन्नी लबालब भक्ति भावोंसे भरी, मानों ननोहर भूपोंसे युक्त ही हो सुन्दन । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Creo वह ही दुखित इसचित्तको देती अधिकतर शांति है, होते प्रगट भगवान मनमें दूर होती भ्रान्ति है। वीर-पुरुष। निज शक्तिसे संसारपर अधिकार जो करते रहे, अवलोक जिनकी वक्र भ्रकुटी शत्रु सवडरतेरहे। ललकारसे मानी नपति होते रहे वशमें सभी, लेना न पड़ती थी उन्हें तलवार भी करमें कभी । उनके मनोहर चक्षओंमें तेज इतना था भरा, अभिमानसे ऊंचा न करता था कभी सिर दूसरा। वन-केहरीसे सैकड़ों मृग भाग जाते हैं यथा, ओह ! अद्भुत वीरसे सब शन्नु डरते थे तथा । संसारमें वे वीरवर यमराजले डरते न थे, निज शक्तिका वेस्वप्नमें अभिमानपर करतेन थे। लाखों भटोंकाथा अहो! बल एक अनुपमवीरमें, होते नथे व्याकुल कभी भी वीर अतिशय पीरमें। थे कोटि-भट श्रीपालसे इस रम्य धरणीपर अहो! जो तिरगये निज शक्तिसे भीषण-दुखद सागर अहो करना करीन्द्रोंको स्ववश यह तोसदाका खेल था, करके कठिन सग्राम भी उनके न मनमें मैल था। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पन्नग तथा मृगराजसे भी वे कभी डरते न थे। अपने हृदयमें व्यर्थकी शंका कभी करते न थे। दैत्येन्द्रसे करते समर होते न थे भयवान वै. करते रहे नित दीन दुखियों का अधिकतरत्राण थे। उनके अलौतिक पूर्ण बलका कौन पानाथा पता? यह देश पाकर वीर नरको भाग्यथा निज मानता। लंकेशने कैलाशको कैसे अहो! विचलित किया,? सचीरता कहते किसे यह भीमने वाला दिया। श्रीनेमि प्रभुकी कृष्ण भी अंगुलिन टेढ़ी कर सके, अभिमन्युके विकराल सरसे द्रोण कैसे थे छके ! लव और कुशकी देखकर रणमें प्रवल यों वीरता, क्या तुच्छ लगती थी नहीं सौमित्रको निजशूरना। जिस युद्ध में वे नर गये उनको जय-नीने वरा, उनकी अलौकिक वीरतापर मुग्ध होता दूसरा। रणमें मरेंगे पायेंगे स्वर्गीय सुख सिद्धान्त था, बस: बीर भावोंसे भरा रहता सदाहीस्वान्न था। उनके परम वीरत्वमें किंचित् नहीं थी करता, संग्रानमें थी शत्रुता पन्नात् थी प्रिय मित्रता । छलसे किसीको जीतना उनने कभी जाना नहीं. विध्वंस करके न्यायका, संग्रामको मना नहीं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PORN जिसको दिया आश्रय प्रथम वे अन्त तक देते रहे, अपने मनुजके तुल्य ही सुधि-बुधिमुदित लेते रहे। होने न पावे कष्ट कुछ इसका बड़ा ही ध्यान था, निज आश्रितोंके भी लिये उनके हृदय में मान था। भगते हुओंपर भूल करके वार वे करते न थे, वीरत्वके अभिमानमें पर-सम्पदा हरते न थे। सम्पूर्ण पृथिवीपर सदानिशंक निज शासन किया, दी सम्पदा नित रंकको विद्वानको आसन दिया। सुखशान्तिपूर्वक नीतिसे जीवन बिताते थे यहाँ, तिर्यश्च तक भी कष्ट किंचित् तोन पाते थे यहां। सर्वत्र समता राज्य था, अघ,भय, अनय सब दूर थे, यम, नियम द्वारा हाँ सभी दुष्कर्म करते दूर थे। आचार्य। आचार्य कैसे थे हमारे ध्यानसे सुन लीजिये, फिर पूज्य पुरुषों का सदा गुणगान सादर कीजिये। थी एक दिन शोभित मही आचार्य नेमीचन्द्रसे, सिद्धान्तके ज्ञाता विकट आचार्य अमृतचन्द्रसे। उनकी तपस्या सदा आश्चर्यकारी शक्ति थी, इहलोक विषयों में कभी उनकी नहीं आशक्ति थी। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करदी शिला कंचनमयी निज पगतलेकी धूलसे, आचार्य श्रीशुभचन्द्रने चाहा न रसको भूलसे । कल्याण प्रद संसारको उनके अलौकिक कार्य थे, सिद्धान्त औ साहित्यके सम्पूर्णतः आचार्य थे। क्या मंत्रमें, क्या तंत्रमें, क्या छन्दमें संगीतमें, क्या काव्यमें,इतिहासमें क्या चित्र विद्या,नीतिमें? तर्क, ज्योतिष विश्वके थे शास्त्र, हृदयागारमें, उनसा न था विद्वान कोई एक दिन संसारमें। उनके विपुल पांडित्यकी नर कौन कह सकता कथा, वे शास्त्र विद्या पारगामी विश्वमें थे सर्वथा । अतिशय निपुण थेसर्वदावैद्यक तथा आख्यानमें, अमृतवरसताथासहज उनके मृदुल व्याख्यानमें। वे वायु सम निःसंग थे सागर-सदृश गम्भीर थे, शशितुल्य चित्तविशुद्धथे गिरिराज समवेधीर थे। पाषाण भी मृदु-मूर्ति लखकर स्तब्ध होता था अहो, निर्जीव होता मुग्ध जवस्तब्ध मानव क्यों न हो? उनके विरोधी भी अहो! उसकाल कहते थेयही, इनसा हुआ होगान साधू और अब होगा नहीं। अपने विरोधी प्रतियहां कितना सरल व्यवहार है, ये मर्त्य है या देव हैं, थल स्वर्ग या संसार है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ दीक्षा तथा शिक्षा हमें देते सदा आचार्य थे, वे विश्व भरके सद्गुणों से सर्वथा ही आर्य थे। दुखसे बचाते थे हमें उपदेश दे आदेशसे, कहते न थे निष्ठुर बचन वे तो किसीसे द्वेषसे। वे मोहके वशवत्ति होकरते न थे लौकिक क्रिया, सन्मार्ग-पर्वतसे कभी भी च्युतन होता था हिया। सेवा न अपनी दूसरों से वे कराना चाहते, वे शत्रुकी निन्दा न करते, मित्रको न सराहते। है वृत्ति-भिक्षाकी तथापि वे न करते याचना, देवेशके साम्राज्यकी भी है न मनमें कामना । विधिसहित यदि लोकने मुनिराज पड़गाहन किया, तृष्णा-रहित होके खड़े आहार किंचित् ले लिया। वह भी लिया निज हाथमें यदि दोषकुछ आया कहीं, उपवास करनेसे हृदय उनका न अकुलाया कहीं। उपाध्याय। पढ़ना, पढ़ाना शिष्यको ही मुख्य जिनका काम है, निग्रन्थ जो मुनितुल्य हैं पाठक उन्हींका नाम है। थे पूर्वमें ऐसे यहां जो चित्त संशय हर सकें, जो शास्त्र, तर्क,प्रमाणसे मुख चन्द परका कर सकें। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्धादकी वे मूर्ति थे प्रतिमा गहन सिद्धान्तकी, जिनके उदयसे शीघ्र हटती थी घटा एकान्तकी। व्याख्यान करते तत्त्वका मानों सुमन भूपर गिरे, जिनके वचन सुनकर प्रवल मिथ्यात्वियों के मन फिरें मुनिराज। तिलतुष बराबर भी परिग्रह नित्य उनको पापथा, सहते उपद्रव घे कठिन मनमें न पर सन्ताप था। संमार भोगों से कभी उनको न कोई काम था, प्रिय-राज मन्दिर त्यागकर बनको बनायाधामथा। निस्पृह अहो ! मुनिराज वे उपकार करते थे सदा, रिपु, मित्र, कचन, कांचमें ममभाव रखते थेसदा। पीड़ा न हो मुझसे किसीको ध्यान रहता थायही, आग्य उनके आज तक पद पूजती सारी मही। जिनके हृदय जागृत रही कल्याणकी ही भावना, इन व्यर्थक ऐहिक मुग्वोंकी थी न उनको चाहना। अपने महशी प्राणियों के प्राण वेधे मानते, उपकार करते लोकका उपकार अपना मानते। पाठकानोग्य था उनकोजगनके त्यागमें, उससाक्षांश भी रुग्वधान-अनुराग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे राज- मन्दिर कष्टप्रद कानन सुहाता था उन्हें, यो पूर्वका अनुमुक्त सुख नहि याद आता था उन्हें । रहती जहांपर व्यग्रता सुख टिक न सकता नामको, दुख मानते थे सर्वदा वे विश्वके आरामको । सुन्दर, असुन्दर भावको तो दूरसे ही तज दिया, शम, दस, नियम इत्यादिसे परिपूर्ण रहता था हिया । जिस कामके आधीन हैं संसारके मानव सभी, उस कामका मुनिराजपर चलता न था चल भी कभी । पर वस्तुओं से राग अथवा द्वेष उनको था नहीं. वे शत्रुके संयोग से व्याकुल न होते थे कहीं । मृगराजके सन्मुख ऋषी निर्भीक रहते थे खड़े, अतिशान्त मुद्रा देखकर मृगराज उनके पग पड़े । यो चित्त - चंड- विहङ्गका करते सदा अवरोध जो, देते जगत भरको मुदित निष्काम सुखप्रद घोष जो । ध्यानाग्निसे ही कर्म वनको दग्ध करना है जिन्हें, अपना प्रबल संसारका सन्ताप हरना है जिन्हें । जो साधु सदुपदेश रूपी मेघ बरसाते यहां, जो भव्य रूपी चातकोंको नित छकाते हैं यहां । विंध्याद्रि १ जिनका है नगर, पर्वत- गुफा प्रासाद २ है, १ विध्याचल पर्वत । २ महल | Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POCOOR पाषाण ही पर्यक१ है आती न घरकी याद है। है चन्द्रमा दीपक मृदुल करुणा हृदयकी कामिनी, कल्याण वे करते रहैं सर्वत्रा ही संयम-धनी । मृदु-तूल शैयापर प्रथम जिनको विनोला था गड़ा, कर्कश घरापर हर्षसे उनको अहो ! सोना पड़ा। यह चंचला लक्ष्मी तजीपर ज्ञान लक्ष्मीको नहीं, बस, आत्म साधन इष्ट है मन-अन्य अभिलाषा नहीं मूर्तिपूजन। जवतक हमारे सामने प्रभु मूर्ति मृदु होगी नहीं, तबतक हृदयमें भक्ति भी उत्पन्न यों होगी नहीं। प्रभु तुल्य बननेके लिये करते मनुज आराधना, आदर्श बिन मनमें कहो उत्पन्न हो क्या भावना? हम भक्तजन प्रभु मूर्तिको नहिं मानते पाषाण हैं, हां, मानकर भगवान उनका नित्य करते ध्यान हैं। जैसे नृपतिको मूर्तिका करना अवज्ञा पाप है, प्रतिमा अनादरसे पुरुष पाता अधिक सन्ताप हैं । सन्तान आदिक मांगना उससे निरर्थक है सदा, देती नहीं निर्जीव प्रतिमा आपदा या सम्पदा । १ पलंग। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ साक्षात् ईश्वर भी हमें सुत पौत्र दे सकता नहीं, निष्काम है वह तो सदा धन धान्य ले सकता नहीं । उनके गुणों के रागसे परिणाम होते शुद्ध हैं, फिर पाप होते दूर तब सब कार्य होते सिद्ध हैं । यों निष्कपटकर भक्ति जो करते जगत सुख चाहना, भट प्रतिफलित होती प्रभूकी भक्तिसे वह कामना । प्रभु मूर्ति पूजाका यहां आदेश ऋषियों ने दिया, सविनय सकल संसारने स्वीकार उसको था किया। ज्यों चित्र होता हमें है ज्ञान उसकी मूर्तिका, भगवान- प्रतिमा से हमें हो ज्ञान उनकी मूर्तिका । वक्ता । वक्ता जितेन्द्रिय थे यहाँ निर्दोष थी जिनकी गिरा, श्रद्धान था प्रभु मार्गका उपदेश था अमृत भरा। वे धीर थे, गंभीर थे, अत्यन्त प्रतिभावान थे, वे सूर्यसे तेजस्वि थे गुणवान थे, विद्वान थे । उनके हृदय में थी दया, संयम, नियम थे पालते, पाषाण हृदयों को अहो ! वे फूलसा कर डालते । आगम-सहित जलसे धुले उनके हृदय अतिस्वच्छथे, मानस सरोवर में न उनके पाप रूपी मच्छ थे । ४ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०. श्रोता। विद्वान पुरुषों का सदा करते रहे सत्कार वे, निज शक्तिभर इस लोकका करते रहे उपकार वे। जो कुछ सुना उसको मुदित हो कार्यमें परिणत किया, निज धर्मके श्रद्धानसे आलिप्त था उनका हिया। वैराग्य। कृत्रिम न था वैराग्य, हम उसमें सदाही लीन थे, वैराग्य-वारिधिका हमें सब लोग कहते मीन थे। उच्छिष्ट सम जिस वस्तुको हमने मुदित होतज दिया, उसके लिये फिर भूलकर व्याकुल न होताथा हिया। करते हुये गृहकार्य सब उनमें न मन आसक्त था, पापाचरण अथवा कषायोंमें न कोई लित था। वे मानते थे विश्व सुख सब सान्त कर्माधीन है, आत्मीक-सुख सर्वत्र ही अविचल परम स्वाधीन है रहता हुआ जलमें अहो ! निरपेक्ष पंकज है यथा, अनपेक्ष इन संसार-कार्यासे हमी तो थे तथा। आलिप्स कीचड़से कनक ज्यों शुद्धता तजता नहीं, ज्ञानी पुरुष तज शुद्धता त्यो मोहको भजता नहीं। भगवान मनमें थी यही निर्जन-विपिन आगार हो, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तोषधन हो सन्निकट प्रियमित्र सम संसार हो। मनमें न हो दुर्वासना तनपर न तिलभर वस्त्र हो, निर्भीक हो यह आत्मा करमें न कोई शस्त्र हो । तपोवन । योगीश्वरों के वाससे शोभित तपोवन थे यहाँ, सब दुःखले संतप्त मानव शान्ति पाते थे वहां । अध्यात्म अमृतकी वहां धारा बरसती थी अहो, सुन्दर तपोवनमें कहो फिर मुग्ध किसका मन न हो निग्रंथ ऋषियोंके तपोवन शांतिके शुभधाम थे, संसार त्यागी साधुवर वे सर्वदा निष्काम थे। अमरेन्द्र-काननसे अधिक सुख शांति थी उद्यानमें, था देखते बनता ऋषीश्वर लीन हों जब ध्यानमें। अकृत्रिमता। उन पूर्वजो के चित्त-मन्दिरमें न कृत्रिमता रही, चिरकाल कृत्रिमता जगतमें क्या कहोटिकती कहीं यो तज नहीं सकती कदाचित् वस्तु अपने धर्मको, क्या सिंह,कहलाया गधा परिधानकर तचर्मको ? उस चक्रवर्ती से कहा था दिव्य-देवों ने यही, १ ओढ़ कर । २ चक्रवर्ती सनत्कुमार अत्यन्त सौन्दर्य-शाली थे। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ Dan स्वाभाविकी वह चारुना इन मंडनों में है नहीं। अवलोकिये कोरी बनावट विश्वमें दो दिन रहे, हा। तुच्छ सरिता ग्रीष्म ऋतुमें सर्वदा कैसे वहे ? वे पूर्व भूपति लोकमें सचमुच प्रजाके प्राण थे, वे मानते निज प्रिय-प्रजाको सर्वदा सन्तान थे। हरते न थे अपनी प्रजाका द्रव्य वे अन्यायसे, मुख मोड़ सकते थे नहीं वे स्वप्नमें भी न्यायसे। था सर्व भारतवर्ष सुन्दर सर्वदा अधिकारमें, विख्यात थे अपने गुणों से वे नृपति संसारमें। जिनकी मृदुल-यशवल्लरी इस विश्वमें थी छागई, उन न्यायनिष्ट नृपालगणसे वह महीपावन हुई। जब चंद्रगुप्त महीपका था शान्तिपद शासन यहां. जीवन वितातेथे सभी सुख शांतिसे अपना यहां। करते रहे वे न्यायनित यों पोल कुछ चलती नथी. हा । चापलूसीकी वहांपर दाल कुछ गलती न थी। करते हुये शासन उन्हें निज आत्महितकाध्यान था, है राज्य-क्षणभंगुर-सुखद इस घातका बहुज्ञान था। अवलोकके अवसर अहो ! वे छोड़ देते थे सभी, फिर कामिनी या राज्यकी इच्छा न करते थे कभी। श्रीभद्रबाहके पदोंका चन्द्र कितना भक्त था ? Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GADEngs जिनसेन गुरु-पद-पंकजों में 'वर्ष१ मन अनुरक्त था भद्रेशको शिवकोटिने क्या पूज्यनिज माना नहीं? गुरुविन किसीने भी कभी सन्मार्गक्या जाना कहीं? यों जो न विधवा द्रव्य२ लेते थे कभी भंडारमें, जो सम्पदा करते रहे व्यय धर्म, कर्म प्रचारमें । दुर्व्यसन३ प्रायः सभी ही राज्यमेंसे दर थे. उनके बृहद साम्राज्यमें पापीन थे नहिं कर थे। उनने अहिंसा धर्मकी सर्वत्र फहरा दी ध्वजा, पापी दुराचारी नराधम हिंसकोंको दी सजा । संकट निवारणके लिये थीं दान शालायें४ खुली, शुभज्ञान वर्द्धन हेतु ही तो पाठशालायें खुली । १ श्रीअमोघवर्ण । २ कुमारपालने विधवाओंका द्रव्य लेना पाप समझा था । ३ दुर्व्यसन लगभग दूर ही हो गये थे। ४ गरीबोका दुख दूर करनेके लिये कुमारपालने एक बड़ी भारी दानशाला खुलवाई थी जिसका प्रबन्धक सेठ नेमिनाथका सुपुत्र अभयकुमार श्रीमाली" था। कुमारपाल बहुत ही स्वदारसन्तोषी था इसलिये इसे परदार-सहोदर, शरणागत वपंजर. जीव दावा आदि अनेक पदवियां प्राप्त हुई थीं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शक्तिका उपयोग। बल था हमारा दुर्बलोंकी दुख रक्षाके लिये, धन था हमारा दीन जनको दान देनेके लिये। करना अनुग्रह भूलते थे हम न जीवों पर कभी, सत्कार्य हित करते रहे तन,मन हमी अर्पण सभी। उन्मार्ग पोषणके लिये वक्तृत्व शक्ति थी नहीं, उपकार करनेके लिये प्रभुकी न भक्ति की कहीं। जिस भांति हमको भूल करके निज अनिष्टन इष्टथा, घस! आत्मवत् सिद्धान्त था देतान कोई कष्टथा। हमारा सुख। अवलोक करके सुख हमारा देव ललचाते रहे, निज कार्य-पढ़तासे जगतके सौख्य हम पाते रहे। सय वस्तुयें मिलती रही,सुख-शान्तिपूर्ण सुभिक्षथा, उसखर्गका ही दृश्य तो दिग्डता यहाँ प्रत्यक्ष था। ग्रामीण जीवन। था कौनसा हमको न मुग्व पहले यहांपर ग्राममें, निश्चिन्न निन आगमसे मोते न थे क्या धाममें? बोया यहां जितना अहो! उमसे अधिक पैदा हुआ योग्यसे व्याकुल कभी हां.पैलतक मीनदिमुआ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दर्शनों से शीघ्र ही मिटता हृदयका खेद है। वह शैलपति सचमुच अहो क्या शान्तिका आगार है ? या पूर्वजों की कीर्तिका अविचल-वृहद्-आधार है। नित पूजने लायक हृदयसे शैलका पाषाण है, क्या लोहको पारसमणी करती न हेय समान है। पाया वहांसे पूज्य ऋषियों ने परम निर्वाणको, आश्चर्य अपने साथ ही पावन किया सव स्थानको, श्रीकैलाश। श्रीआदि विभु निर्वाणभू विश्रुत विपुल कैलाश है, स्वर्गीय शोभाका अहो! जो पूर्णतः आवास है। बन दृश्य अति रमणीक जिसके, इन्द्रका मन लोभते, ऐसे हमारे तीर्थ अनुपम लोक भरमें शोभते । श्रीगिरनार। श्रीनेमि प्रभु पद-स्पर्शसे पावन हुआ गिरनार है, सविनय सतत उस भूमिको भी वन्दना शतवार है। श्रीकृष्ण सुत प्रद्युम्न, शंभू. वीरवर अनिरुद्ध हैं, इत्यादि अगणित मुनि वहांसे हो गयेप्रभु सिद्ध हैं। चम्पापुरी और पावापुरी। हैं पुण्यदात्री नगरियां चम्पापुरी पावापुरी, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ commanch विध्वंस करके यत्र अघशिव-कामिनी प्रभुने वरी। क्या न कहलायी जगतकी सुरपुरी चम्पापुरी, किस बातमें यों कम रही थी पूर्वमें पावापुरी ? श्रीबीनाजी अतिशयक्षेत्र । श्रीक्षेत्र अतिशय रम्य है शुभ ग्राम बीना अतिमहा, प्रति वर्ष मेला होत हैं, यात्री बहुत आते वहां । प्राचीन मन्दिर तीन हैं अतिही विशाल सुहावने, श्रीशांति प्रभुकी भव्य मूर्तिके दरश सुख पावने । केशरियाजी। मेवाड़ प्रान्तरगत बिराजित श्रीकेशरिया क्षेत्र है, श्रीआदि प्रभुकी भव्यमूर्ति दर्श सुखके हेतु हैं। अखिल भारतवर्ष में यह क्षेत्र अति विख्यात है, बतला रहे हैं लेख भी प्राची दिगंबर ख्यात है। गृहस्थाश्रममें। स्वाध्याय, पूजा, दान, तप, संयम गृहस्थी-कृत्य थे, कर्तव्य अपना मानकर उनमें सभी अनुरक्त थे। उपकारका जो पाठ हमने बाल्य-जीवनमें पढ़ा, १ चम्पापुरीसे वासुपूज्य, पावापुरीसे महावीर मोक्ष पधारे हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० चरितार्थ उसको प्रेमसे सम्मति हमें करना पड़ा । है मोहका जबतक उदय चारित्र घर सकते नहीं, पांचों अघोंका पूर्ण जबतक त्यागकर सकते नहीं । तवतक सदा शुभकार्यमें जीवन बिताना चाहिये, माया तथा दुर्वासना से मन हटाना चाहिये । केवल विरक्तों से अकेले चल नहीं सकती मही, यह सोचकर सम्पूर्ण जगके काम करते हैं गृही । जिस वस्तुकी इच्छा हुई पुरुषार्थसे वह प्राप्तकी, आराधना करते रहे सुख दुःखमें वे आप्तकी । मर्मज्ञ थे, तत्त्वज्ञ थे, दानी तथा निष्पक्ष थे, वे दुर्व्यसन त्यागी मुद्रित निजकार्यमें अतिदक्ष थे। थे सत्यभाषी, वृद्धसेवी, धर्मसे अनुराग था, मनसे वचनसे कायसे मिथ्यात्वका नित त्याग था । सागार१ उत्तम थे वही संसारके सद्गुण रहे, अन्यार्थ २ उनने हर्षसे आये हुये सुख दुख सहे । निजगेहमें रहते हुए सुख था उन्हें दुख था नहीं, सहधर्मिणी श्री शिक्षिता आज्ञाविमुख सुन था नहीं उत्पन्न नित करते रहे वे सद्गुणी सन्तानको, फिर प्राप्त वे होते रहे निज आत्महित उद्यानको । १ गृहस्य | २ दूसरोंके लिये । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुक सदनके द्वारसे यों रिक्त जाता था नहीं, पातान था यदि द्रव्य तो आहार पाता था सही। विश्व सेवा। । की विश्व-सेवा किन्तु इच्छाकी न प्रत्युपकारकी, सबका सदा कहना रहा सेवा करो संसारकी । इस विश्वसेवामें सतत खर्गीय-सुख आनन्द है, सत्कार्य करनेके लिये संसार भर स्वच्छन्द है। संसार-सेवासे सदा होता अधिक शीतल हिया, करके सुसेवा लोककी शशिने बदन उज्वलकिया। सेवा करोगे विश्वकी मेवा मिलेगी आपको, जो दूर कर देगी सहजही चित्तके सन्तापको। वीर शासनका वीर मंत्र। श्रीवीर शासनके अलौकिक बोध-प्रद सदमंत्रसे, सक्षम हम आते रहे यमराजके भी दन्तसे। उसकी प्रखरतर ज्योतिसे पर्दा हटा अज्ञानका, मगटिन हुआ सपके हृदयमें सूर्य सम्यग्ज्ञानका । है मंत्र शासनका यही, मत सत्यकी हत्या करो, अपना हदय पावन कभी मत दुट भावोंसे भरो। ५साली। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवांगनाओंपर कभी भी वे नहीं मोहित हुये, अपने नियमसे लोकमें सर्वत्र ही शोभित हुये। व्यापार । है बास लक्ष्मीका सदा हे पाठको ! व्यापारमें, चरितार्थ करते थे कभी यह बात हम संसारमें। द्वीपान्तरों में जा सदा सम्पत्ति ही लाये यहां, करते हुये व्यापार उत्तम हम न शरमाये यहां। व्यापारके कारण हमारा देश सचमुच स्वर्ग था, अमरेन्द्रसा ही सौख्य अनुपम भोगता नर वर्ग था हस्त गत करने इसे सब लोग ललनाते रहे, पर भाग्य बिन इसको कभी भी वे नहीं पाते रहे। प्रात:काल। प्रत्यूषश्में हमको जगानेके लिये घण्टी बजी. इच्छामि ही कहते हुये हमने सुखद निद्रा तजी। झर हाथ मुख धोकर पुनः भगवानकी की बन्दना, होने लगी आनन्द ध्वनिसे मोद दात्री प्रार्थना । १ गुजरातमे जगनाइ नामका एक बडा भारी जैन सेट हो गया है। इनका फारस और अरबस्तानसे व्यापारिक सम्बन्ध था। २यद विद्यार्थी अवस्थाका वर्णन है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000 अध्ययन। बैठे हुये हैं शान्त निर्जन प्रान्तमें गुरुवर कहीं, करने लगे विद्याध्यन आ छान्न बाहिरसे वहीं । जिनकी मनोहर उच्च ध्वनिसे गंजता था बन अहो, करके श्रवण उस नादको किसका हृदय हर्षित न हो? गुरुदेव। गुरुदेव वे निःशुक्ल ही विद्या पढ़ाते थे हमें, कल्याण-पथ-पर प्रेमले वे ही चलाते थे हमें। सम्पूर्ण शास्त्रोंका उन्हें था ज्ञान,नहिं अभिमान था, संसार उनको सब कलाका मानता विद्वान था। विद्यार्थी। विनयी सदाचारी यहांके पूर्णतः सब छात्र थे, वे दुर्व्यसनसे दूर थे सब भांति विद्या पान थे। पढ़ते रहे सानन्द निर्भय श्रावकों के दानसे, करते रहे उद्योत वश भर तत्त्वका निज ज्ञानसे। मध्याह्न। मध्याहमें सबने मुदित हो नित्य सामायिक किया, असमक्ष तबही भक्तिसे भगवानका चन्दन किया। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COOS वे हो गये फिर लीन अपने नित्यकेही कार्यमें, आलस्य था उनके न सन्निधि ध्यान था शुभकार्यमें। संध्या समय। संध्या समय सब छात्रगण मिल घूमने जाने लगे, सवही परस्पर प्रेमसे निजकार्य बतलाने लगे। छाया तिमिर संसारमें जव ओटमें रवि हो गये, धार्मिक कथा करते हुये तब छात्र सारे सो गये। जिनालय। सचमुच हमारे देव-मन्दिर शान्तिके आगार हैं, सविनय प्रभूको पूजते नित भक्त थारम्बार हैं। उत्पन्न होती है हमें उस देवगृहमें भावना हां, करन सकता सौख्य कोई भक्ति रसका सामना कोई कहीं पढ़ते रहे पूजा मनुज मृदु-गानसे, कोई कहीं सुनते रहे जिन-शास्त्रको अति ध्यानसे। योगीन्द्र तट धैठे हुये हैं पूछते श्रावक कहीं, मृदु शान्ति प्रसरित होरही उस काल चारों ओरही देव-प्रतिमा। जैमी हमारी देव-प्रतिमायें मनोहर है यहां, अन्यत्र बसी रम्यप्रतिमायें भला रकग्नी कहाँ ? Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .00 जिनको विलोके शीघ्र ही सन्ताप होता दूर है, आता हगोंमें भक्तिसे हर्षाश्रुओंका पूर है । श्रीवाहुबलिसी दीर्घ प्रतिमा है न जगमें दूसरी, प्राचीनताके साथ जो पतला रही कारीगरी । मृदु भव्यताके साथ रचना दीर्घ दुष्कर काम था, वह तो हमारे घोर श्रम या भक्तिका परिणाम था। देव-मन्दिरमें स्त्रियां। नूपुर मधुर झंकार करतीं सीढ़ियां चढ़ने लगी, वे मन्द स्वरमें भक्तिसे प्रभु-संस्तवन पढ़ने लगी। मानों प्रभू पूजार्थ भूपर आ गई सुरनारियां, साक्षात् किन्नर नारियां, श्री ही सकल सुकुमारियां सद्य लेके भक्तिसे की ईशकी अर्चा वहाँ, पश्चात् विद्वत्ता भरी की धर्मकी चर्चा वहाँ । पतिको प्रथम भोजन करा करके पुनः भोजन किया, भोजन करानेसे प्रथम कुछ दान पहले कर दिया। बालक। वयसे अहो ! बालक रहे पर ज्ञानसे बालकन थे, निज धर्मके पालक रहे पर-धर्मके पालक न थे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनने प्रभू-पद-पंकजोंमें शीश अपना धर दिया, नर-भव मुदित पावनकिया पावनकिया! पावनकिया तप। होना न वशमें इन्द्रियोंके वश उन्हें करना अहा. तप कर्मक्षयकारण सदा ही शास्त्रकारोंने कहा । कर्तव्य अपना मानकर तपको हमीं तपते रहे, जिससे हमारे सर्वगुण जगमें प्रगट होते रहे । दान। देते रहे हम दान जगमें सर्वदा निज शक्तिसे, थोड़ा दिया आहार हमने पात्रको सद्भत्तिासे । कुछ दान देना प्रति दिवस प्रत्येकका कर्तव्य था, देतान था जो दान नर वह शव समान अवश्य था। थोड़ा दिया भी दान अनुपम सौख्य देता था कहीं. बोया गया वट बीज क्या सुविशाल तरुहोतानहीं । मिलता इसीसे मोक्षफल यह बात जगविख्यात है, पाता कृषकर जब धान्य तय भूसा कठिन क्या बात है १ पात्र दाने फलं मुख्यं मोक्ष. सस्यं कृपेरिव । पलालमिव भोगास्तु, फलं स्यादानुपङ्गिकं ॥२॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REAST मैत्री। संसार भरके प्राणियोंसे श्री हमारी मित्रता, सद्भांति यह सब जानते थे 'कष्टप्रद है शत्रुता'। मरना सभीको एक दिन रहना नहीं संसारमें, की जाय फिर क्यों दुष्टता इम लोकके व्यवहारमें? प्रमोद । होता रहा पुलकित सकलतनु सजनोंके दर्शसे, सम्मान सब करते रहे उनका हृदयके हर्षसे। थी दृष्टि अवगुणपर नहीं हम तो गुणोंको देखते, करके उचित प्रतिपत्ति उनकी भाग्यथे निजलेखते कारुण्य । करना अनुग्रह दीनजन पर यह महीका कार्य था, जिसके हृदय करुणा नथी वह आर्य एक अनार्य था धनवानसे ले रंकतक संसारमें सब ही दुखी, रहती यही थी भावना 'कैसे जगत होवे सुखी?' माध्यस्थ। जो था हमारा शत्रु भी उससे न हमको द्वैष था, १ सम्मान। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिपुकी विपुलअज्ञानता लख चित्तमें कुछ क्लेश था। करके कृपा हे ईश, अब सवुद्धि रिपुको दीजिये, मोहमद मात्सर्य सवका दूर भगवन् कीजिये। हमारा पतन। इस भांति अतिशय ही समुन्नतथे यहाँ प्रारम्भमें, फंसने लगे फिर वेगसे हम लोग ईर्ष्या दम्भमें । जाने लगा सब ज्ञान हा ! आने लगी अज्ञानता, गृह युद्ध भी ऐसा मचा जिसका नहीं अवलों पता। पावन हृदयमें स्वार्थने हा! गेह अपना कर लिया, क्षण मात्रमें उसने हमारे सद्गुणोंको हरलिया। निज बन्धुओंसे ही अहो! तब तो घृणा करने लगे, सत्कर्म करते भी सकल हम लोकसे डरने लगे। हम एक हो करके यहांपर तीन तेरह हो गये, क्षमशीलता, उपकार, करुणा भाव सारे सो गये। इतनी बढ़ाई भिन्नता निज गेह भी न्यारा किया, हमने न अपने यन्धुको दुखमें सहारा भी दिया। हा! उत्तरोत्तर भिन्नता प्रतिदिन यहां बढ़ती गई, इस भव्य भारतवर्ष पर संकट लता चढ़ती गई। हावट गये हम तोसहज ही फिर अनेक विभागमें, क्यों देवने यों लिख दिये दुर्दिन हमारे भागमें ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैन। उस एक ही सद्धर्ममें दो भेद दुर्दिनसे पड़े, फिर हो गये हैं भेद उनमें भी यहां कितने खड़े। देखो प्रभेदोंमें सहज ही भेद अब भी हो रहे, अवशेष जो कुछ एकता उसको सदाको खो रहे। हीनाचार। सत्कार्यमें भी तो यहांपर फिर शिथिलता आ गई, बस मानकी आंधी यहां सबके हृदयमें छा गई। यो मान वशमें आ तभी सग्रन्थ-गुरु बनने लगे, हा। हंस भी विधि दोषसे मानों चने चुगने लगे। इन धर्म गुरुओं का यहां प्रतिरोध भी जिसने किया, उनको गुरूके भक्त गणने नास्तिक बतला दिया । तब ही समाजोंमें मुदित बैठी अनेक कुरीतियां, कहने लगे उनको सहज ही पूर्वजोंकी रीतियां । जातियोंकी उत्पत्ति । अपने विभागों के अहो! ये नाम भी धरने लगे, दो चार जन मिलकरप्रमुख नियमादि भीरचने लगे। होके नियमसे बद्ध सब व्यवहार टोलीमें किया, यों दूसरों की अवनति पर ध्यान नहिं हमने दिया। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ carabeoben जिस संघमें थोड़े मनुज थे, नष्ट सहसा हो गया, लाचार' होके अन्तमें या दूसरों में मिल गया। इस विश्व विश्रुत वर्णको तब तो कहीं माना नहीं, उससे कभी निज धर्मका कल्याण भी जाना नहीं। हो संघकी अति वृद्धि नित उत्कट यह इच्छा रही. अतएव अपनी वालिका परको न देते थे कहीं। विख्यात होनेके लिये इल जातिकी रचना हुई, पर आज वह बहु अड़चनोंसे हाय ! जाती है मुई। धर्म गुरुओंका अन्याय। - सग्रन्थ गुरुओंका यहाँ अन्याय नित्य अनल्प था, पर उस समय श्रद्धान भी हमको न उनमें अल्प था उनके बचनको भक्त गण सर्वज्ञ वाणी मानते, हा अन्ध श्रद्धामें मनुज अपना न हित पहिचानते। करते रहे ये तंग जगको पग पुजानेके लिये, धनते रहे ये गुरु यहां नृपसम कहानेके लिये। जो बात हां होगी नहीं भूपालके दरवारमें, वह वात थी इन भ्रष्ट गुरुओंके विपुल दरवारमें। तेरह पन्थ और वीस पन्थ। तब तो यहाँ रचना हुई सप्रेम तेरह पंथकी, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ मिथ्या गुरु इनको कहा पंक्ति बता सद् ग्रन्थकी। उस काल पक्षापक्षमें दो भेद सहसा पड़ गये , यों एक हीरेके यहां दो खण्ड योंही जड़ गये । और भी पतन। योतो प्रथमसे ही अधिक हम हो रहे कमज़ोर थे, तिसपर विधर्मी कर रहे अन्याय हमपर घोर थे। निःशेष करनेमें इसे किस धर्मने की है कमी, उस काल भारतमें विकट कैसी कटाकट थी जमी? ८००० जैन साधुनोंका बलिदान । हा ! धर्मके ही नामपर अन्याय नित होते रहे, धर्मिष्ठ मानव धर्म हित निज प्राणको खोते रहे। देखो हमारे साधुओंको पेल घानीमें दिया, धर्मान्धता वश पापियों ने क्या नहीं उनका किया? हंसते हुये सानन्द वे मुनि तीक्ष्ण शूलीपर चढ़े, हा! चीथते थे श्वान तनको पर रहे अविचल खड़े। है देह क्षण भंगुर नियम है,धर्म फिर मिलता नहीं, जो धर्मपर रहता अटल मरकर सदा जीता वही। अब भी भयङ्कर चित्र ये मीनाक्षि मन्दिरमें वने, १ मदुराका मीनाक्षी मंदिर। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जव क्रूरताका दृश्य वह आता हगोंके सामने । कहना हमें पड़ता यही तब वे मनुष्य अवश्य थे, पर पामरोंके राक्षसोंसे भी बड़े दुष्कृत्य थे। अत्याचार। की अन्य लोगों ने हमारे धर्म प्रति अति धृष्टता. लेकिन विदा नहिं हो सकी जिन धर्मकी उत्कृष्टता अन्याय अधमों ने किये यों ओट ले परमार्थकी, हा! राक्षसोचित कार्यद्वारा पूर्तिकी निज स्वार्थकी तुड़वा हमारे देव-मन्दिर रम्य निज मन्दिर किये, वोले कहीं मुखसे बचन तो शूलिपर ही धर दिये। यदि जान पावें जैन हैं तो मौत सिरपर ही खड़ी, कैसे रहेगा धर्म भूमें थी हमें चिन्ता बड़ी ? उस काल अत्याचारियों से गुप्त ही रहना पड़ा, अपमान प्यारे धर्मका हमको दुःखित सहना पड़ा। प्रभु-पूज्य प्रतिमायें हमारे सामने तोड़ी गई, अथवा अतल गम्भीर जलमें नित्यको छोड़ी गई। अव भी अनेकों ठौरहा! हा! देख भग्नावशेषको, उन पामरों के कृत्यसे मन प्राप्त होता क्लेशको। होता रहा कितना यहांपर नित्य अत्याचार था, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO0000 जो देखता था दृश्यको देता वही धिकार था। हा! नर पिशाचों से हमारे ग्रन्थ नष्ट किये गये, यो शास्त्र जलवा कर यहां आहार बनवाये गये। छह मास तक उनकी यहां होली मुदित होती रही, पर पापियों के भारसे पृथिवी व्यथित होती रही। पाया जहांपर ग्रन्थ जो वह अग्निमें डाला गया. अथवा नदीकी धारमें ही द्वष बश डाला गया । हा! हो चके कितने हमारे ग्रन्थ जगतीसे विदा, उनको गिनाने में यहां असमर्थ हैं हम सर्वदा । अवशेष । जिस समय दुखसे हमें जीवन यहां निज भार था, बलहीन थे इससे हमें सब कह रहा संसार था। निर्मल मुखों पर लग चुकी थी पूर्णतः तब कालिमा, वह सूर्य अस्ताचल गया तो भी प्रगट थी लालिमा । सेठ। सम्पत्ति रहती है जहांपर शील टिकता ही नहीं, यह बात प्रायः सर्वदा मुखसे कहा करती मही । लेकिन शुदर्शन सेठने इस बातको मिथ्या किया, धनशील दोनों रह सके यह विश्वको वतला दिया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gopastep COO. श्रीमान् माणिकचन्द्रजोसे दानवीर सुसेठ थे, विद्या तथा सौजन्यतासे लोकमें जो श्रेष्ठ थे। जात्रालयों को द्रव्य पूर्वक जन्म इनने था दिया, यह सम्पदा रहते सभीका दीर्घ होता नहिं हिया। भामाशाह । फिर भी हुये उत्पन्न दाता शूर भामाशाहसे, देदी अतुल धन राशि जिसने देश हित उत्साहसे। श्रीमान् राणाने उसे पाकर मिटाया क्लेशको, सानन्द, हर्पित शीघ्रही पाया पुनः निज देशको। वस्तुपाल, तेजपाल। सन्मार्ग दर्शक वस्तुपाल मदृशमचिव तय भी हुये, हा तेजपाल समान भी धीराग्रणी हममें हुये । जिनने गुणों का गान सादर शत्रु भी करते रहे, पापी दुराचारी नद्रा ही नाम सुन उरते रहे। पण्डित गण। पण्डिन यहां मर्मज्ञ थे जयगन्द्र भूधग्द्वानसे. श्रीमान् टोटग्मल्ल. दौलनगम, श्रीस्नुबदामसे। कयि भी पनारमिनाम, याननसे ये हममें कभी, गोरालदाम सुत्री पर्रया विश न्वायन मनी । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ जिनके विपुल पाण्डित्यसे सब ही चकित होते हुये, हम उठ पड़े थे घोर निद्रासे अहो ! सोते हुये । सदसत्य कहने में उन्हें संसारका कुछ भय न था, निज धर्म हित वे भोग सकतेथे सभीभीषण व्यथा। सौख्यलता (वस्तुपालकी धर्मपत्नी) ये देवियां ही तो लगाती थी प्रभूको पन्थमें, इनकी अनेकों आज भी मिलती कथायें ग्रन्थमें । वह सुखलता जगमें हुई पतिके लिये सुखकी लता, जिसने सहज उद्धारका पथ था दिया पतिको बता। तलवार भी कुछ देवियां देखो ग्रहण करती रहीं, निज शत्रुओं के सिंहनी लस प्राण वे हरती रहीं। जिस ओर वे संग्राममें सोत्साह जाकरके लड़ी. उस ओर रणमें देखलो रिपु पक्षकी लाशें पड़ी। . स्त्रियोंमें मूर्खताका प्रवेश। इन देवियों में मूर्खता उस काल जो आके जमी, उनकी अविद्यामें सहायक सर्वदा भी थे हमीं। गृह-कार्यके कारण उन्हें मिलता नहीं अवकाश था, अतएव कुछ दिन विदुषियों कातोयहाँपर हास था। ॐ भूतखण्ड समाप्त Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान-खण्ड। - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? Счете Р लिख चुके हैं ईश! कुछ लिखना अभी अवशेष है, लिखते हुये सम्प्रति-दशा होता हृदयको क्लेश है। हे पूज्यत्तम जिनराज मेरे चित्तमें जब आप हो, दुःसाध्य ऐसा कार्यक्या है जोन अपने आपहो। चाहक-चकोरोंके लिये हो आप अनुपम चन्द्रमा, निर्दोष हो, गुणकोष हो, सर्वज्ञ हो परमातमा । उत्कृष्ट हो, जगइष्ट हो, सबलोकके भगवान हो, निष्काम हो, सुखधाम हो, बलवान हो, विद्वान हो। सब विश्व-जीवों को सदा सद्बोधके दाता तुम्ही, मद,मोह, मत्सर,लोभ,तृष्णा, क्रोधके घातातुम्हीं। हम आपकी सन्तान होकर आज हा । कैसेगिरे? शुभ दिन हमारे देवसे सर्वेश । क्यों ऐसे फिरे? वैभव गया सब रंक हैं, विद्या गई अज्ञान हैं। हा!हो गया सबही विदारूखा यहाँ अभिमान है । हम आज कोई कामके भी योग्य इस जगमें नहीं, स्वयमेव रक्षा कर सकें इतना सुघल तनमें नहीं। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ५ यह मनुज चाहे मरे सबको पड़ी है निज स्वार्थ की, कोलों हुई है दूर हमसे बात अब परमार्थ की । प्रभु आपही बतलाइये, हम दुःख कथा किससे कहें, बालक पिताको छोड़कर मनकी व्यथा किससे कहें ? ६ 44 क्यों आपने कोमलहृदयको कर लियाअनिशचकड़ा ? हे देव! किस दुर्भाग्य से ऐसा समय लखना पड़ा । करते परिश्रम रातदिन मिलतान शुभ परिणाम है. हा ! हो रही भीषण अधोगति नाम है नहिं धाम है । ७ जब बढ़ रहे सब लोग जगमें तब हमारा ह्रास है, हमको न अपने बन्धुओंका ही रहा विश्वास है । मृदुना, सरलता, सत्यता, मैत्री, सुशान्ति थी जहां, देखो कुटिलता, नीचना, भीषण अशान्ति है वहां । ܟ जो जो पढ़ाया था हमें वह आज सब विमरादिया, आदेश अनुपम आपका सर्वेश ! हा ! ठुकरा दिया | जिस मार्गपर पहिले चलाया हमनअब उसपर चले, चरितार्थ तथ कहत हुई हम मूर्खनरसे पशुमले । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनी | हे लेखनी निर्भीक लिख दे अब हमारी दुर्दशा, कैसा फंसा ! प्रत्येक मानव रूढ़ियों के जालमें करना पड़ेगी बन्धु कृत्यों की तुझे आलोचना, प्रियवर ! हमारे क्या कहेंगे यह न मनमें सोचना । 1 १० प्रिय - सत्य लिखनेमें तुझे त्रैलोक्य पतिका डर नहीं, जो सत्यसे डरता जगतमें नर नहीं, वह नर नहीं । लज्जा-विवश यदि दोष हम कहते नहीं तो भूल है, भीषण तनिक सी भूल वह सर्वत्र अवनति मूल है । ११ जबतक न दोषोंकी कड़ी आलोचना की जायगी, तबतक न यह नर जाति अपने रूपको भी पायगी । कर्तव्य वश करना पड़े जो कार्य इस संसारमें, वह कार्य कर, आधार प्रभु कर्तव्य पारावारमें । प्रवेश । लिखती रही जो लेखनी निज पूर्वजोंकी गुण-कथा, वह लिख सके कैसे हमारे दुर्गुणोंकी अब कथा | जिसने लिखा था पूर्वमें हर्षित हृदय आनन्दको, लिखने चली है आज वह रोकर अहो ! दुख- द्वन्दको । cre Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साहसे जिसने अनेकों पूर्वमें भूषण लिखे, दुर्भाग्यही है मुख्य जोइस भांति अबदृषण लिखे। जिसने लिखाथा स्वर्गपहिले नर्कको लिखने चली, जिसने लिखाथा दीर्घ-सर वह गर्तको लिखने चली। आधुनिक जैनी। है हर्ष इतना ही हमें कुछ आज है जीवन यहाँ, पर शोक होता है प्रचुर उसमें न जैनीपन यहां । जीवन विना मानव जगतमें है न कोई कामका, जैनत्व बिन जैनी कहाना रह गया बस नामका । यों तो कहानेके लिये हम आज घारह लाख हैं, सच्चे न बारह भी मिलेगें,बससमझ लोराख हैं। कहते यही सब लोग सुखसे देखकर व्यवहारको, क्या जैनियोंने ही समुन्नत था किया संसारको? पर उन्नतीका एक भी दिखता न उनमें चिन्ह है, निज धर्मसे तो सर्वथा व्यवहार उनका भिन्न है। यदि पूर्वके आदर्श भी ऐसे रहे होंगे कहीं, तो जैनियोंने विश्वकी उन्नति न की होगी कहीं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम पूर्वजों के मार्गपर जबतक मुदित चलते रहे, तबतक हमारे कार्य सब संसारमें फलते रहे । उनको सहज विसरा दिया पड़कर प्रबल आराममें, पड़ना न चाहें सौख्य तज सौजन्यताके काममें । जिनको गले पहिले लगाया आज हैं वे शूलसे, जिनको सदा जगसे भगाया आज हैं वे फूलसे। वह सर्व तो मुखरूप सुन्दर धर्मका भी है कहाँ? जब हम गिरेतो धर्मकैसे हाय! टिक सकता कहां? ईर्षा,कलहका आज घर घरवीज हा! बोया हुआ, अज्ञानकी मदिरा पिये प्रत्येक नर सोया हुआ । निज बन्धुओं प्रति सर्वदारहता अधिक कलुषित हिया, करते मुदित वह कार्यजो उनकेनप्रतिपहिले किया। २० हा ! जैन कहनेमें हमें आती अधिकतर लाज है, ऐसी अवस्था कब हुई जैसी अवस्था आज है। यो जैन कहते हैं किसे ? पूछे कभी यदि दूसरा, घस! पण्डितों से पूछिये मुखसे निकलती है गिरा। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ २१ जैसे हुये जगमें पतित हम दूसरे वैसे नहीं, अवलोक कर ऐसी दशा यह क्यों न फट जाती मही । अब अन्यको जैनी बनाना सर्वथा ही दूर है, निज धर्मका श्रद्धान हमसे हो रहा अति दूर है । २२ जिनके हृदयमें थी यहाँपर एक दिन विस्तीर्णना, उनके हृदयमें पूर्णतः स्थिर हुई संकीर्णता । जिस धर्मके धारक मनुज सबको लगाते थे गले, वे खा रहे हैं ठोकरें हो आज मिट्टीके डले । २३ हा! हा! तनिक सी बातपर मिथ्या वचन भी बोलते, पर कामिनी या द्रव्यपर भी तो यहां मन डोलते । जिस कृत्यको संसारमें हा! नर न कर सकते कभी, निर्भीक हम नित पाशविक दुष्कृत्य कर सकते सभी २४ अज्ञानता प्रिय मूर्खतामें आज कैसे हें पड़े, हा ! खा रहे हैं लात घूसे हो नहीं सकते खड़े । अपने हिताहितका यहाँसे ज्ञान सब जाता रहा, मद मोह मत्सर द्रोह ही अब ठौर पाता है अहा ! Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम तो स्वयं ही मूर्ख हैं पर दूसरा हमसे बने, जिसमें सना गृह पति यहां परिवार भी उसमें सने। कुछ भी नहीं है सन्निकट पर इन्द्रियोंके दास हैं, सुख धूलमें सब मिल गये दूने हमारे त्रास हैं। परिवर्तन । यह देख परिवर्तन विकट होता बड़ा आश्चर्य है, हे वीर सन्तानो ! कहाँ जाके छुपा ऐश्वर्य है। है है कहां सम्प्रति तुम्हारी दक्षता निष्पक्षता, व्यापारमें कोई हमारी कर सका समकक्षता ? हे देव ! हम ऐसे गिरे किस पापका परिणाम है ? सुखकासदन किस पापवश हा होरहा दुख धाम है स्वर्गीय सुख जाता रहा नारकीय है अति यंत्रणा, जिनके न वैभवका पता था वे चबाते हैं चना । जिनकी निकलती थी सवारी, आज नङ्ग पांव हैं, जोथे सशक्त अरोग अतिशय,आज तनमें घाव हैं। थे जिस सरोवरमें कमल अब शेष उसमें पङ्क है, ' जिसके निकट था इन्द्र-वैभव हाय अब वह रङ्क है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्मकी प्राचीनता। इस धर्मकी प्राचीनताके चिह्न मिलते जा रहे, उपलब्ध मथुरा-स्तूप अरु उदयागिरी बतला रहे। प्राचीनता इसकी जगत भर कर रहा स्वीकार है, इस धर्मका ही आजलों देखो ऋणी संसार है। हां,जव न पृथ्वी पर कहीं भी,बौद्ध.वैदिक धर्म थे, कल्याण प्रद सर्वत्र तव इस धर्मके शुभ कर्म थे। जितने पुराने जैन-मन्दिर आज मिलते हैं यहां, उतने पुराने अन्य धौके भला मिलते कहां ? ३१ था राष्ट्र धर्म कभी यही सिद्धान्त अति अभिरामथे, बलवान थे, विख्यात थे,गुणधाम,थे शिवधाम थे। इस धर्मका ही मुख्यतः नित केन्द्र भारतवर्ष था, क्या ज्ञानमें क्या ध्यानमें सबमें बढ़ा उत्कर्ष था। चमका न धर्मादित्य केवल सर्व हिन्दुस्तानमें, १खंडगिरी उदयागिरी क्षेत्रपर २५०० वर्षका महाराजा खारवेल के समयका प्राचीन शिला लेख है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000. फैली प्रभा चिरकाल इसकी एशिया, यूनानमें । कार्थेज, अफरीका,२ तथा वो मिश्ररोम फिनीशिया, जाके यहाँसे भी वहांपर घास जैनोंने किया। १ "जब बौद्धमत और हिन्दू मतके लोगोंमें सारे हिन्दुस्तानमें संग्राम हो रहा था, तब बौद्धमत और जैनमतके लोग यहासे निकल कर यूनान कार्थेज, फिनीशिया, फिलस्तीन, रोम और मिश्र आदि देशोंमें पहुंच कर आवाद हुये।" ___ २ अब हम देखते हैं कि जैन धर्म अफरीकामें भी फैला हुआ था इसके लिये भी "हिन्दुस्तान कदीम" पुस्तक साक्षी है। इसके पृष्ठ ४२ पर इस प्रकार लिखा है। जिस प्रकार यूनानमें हमने साबित किया कि हिन्दुस्तानके हमनाम शहर और पर्वत विद्यमान है उसी प्रकार मित्र देशमें भी जानेवाले भाई अपने प्यारे वतनको नहीं भूले , उन्होंने वहां एक वर्तमान Merse (सुमेरु र रक्खा । दूसरे पर्वतका नाम Caela (कैलास) रक्खा। एक सूवा गुरना है जिसमें मन्दिर और मूर्तियां गिरनार जैसी आजतक मिलती हैं, जो अवश्य वहांके ही (जैनी) लोगोंने वसाया होगा । इत्यादि" (दिगम्बर जैन वीर सम्बत् २४५२ अङ्क ४) यूनानके अथेन्स नगरमें आज भी एक जैन श्रमणकी समाधि जैन धर्मके प्रभावको प्रगट कर रही है। सीलोनसे (लंका) में भी भगवान महावीरका धर्म प्रचलित हुआ था, वह वात स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रगट है। वहाके प्रसिद्ध नगर अनुरुद्धपुरमें एक निरमन्थ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगके पुरातन वेद भी अस्तित्व इसका मानते, इतिहास वेत्ता धर्मकी प्रचीनताको जानते । जो वौद्ध-मतसे जैनियोंकी मानते उत्पत्तिको, निष्पक्ष हो देखें तनिक इतिहासकी सम्पत्तिको । दरिद्रता। क्यों हाय! इस दारिद्रने अव वासघर में किया ? प्रियप्राणियोंका प्राणधन हाचिस सवइसने लिया। आनन्दमें जो लीन थे वे आज फांके मस्त हैं, धनके बिना सबलोगहा! हा त्रस्त हैं अतिव्यस्त हैं। अपने सदनकी हीनता भी हम न कह सकते कहीं, दो-चार पैसे भी किसीसे मांग हम सकते नहीं। रूखा तथा सूखा यहां आहार जो कुछ पा लिया, करते हृदय सन्ताप अधिकाधिक उसेही खा लिया। अमणोका मन्दिर बतलाया गया है। (दिगम्वरजैन वीर सम्वत् २४५६ अङ्क १, २) जैनियोंमें एक कनक मुनि सन् ई० से २० वर्ष पहले हो गये हैं उनका शिखर बन्द सुन्दर मन्दिर डाक्टर फुहारने नेपालके हिमालयकी तटकी ओर निजलिवा प्राममें देखा है। (दिगम्बरजैन) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ಇಂಾಂಡ್ ३६ यो कौनजन चाहे कहो संसारके दुख भोगना, पर भोगने पड़ते विवश त्रयतापनित धनके बिना। आभूषणोंसे जो मनुज दिखता यहांपर है बड़ा, उसके भवनमें भी विकट दारिद्रयका डेरा पड़ा। ३७ होती न पूरी आज आशा एक भी इस चित्तकी, होती नहीं जनपर कृपा हा ! हा ! कभी भी वित्तकी । भाती नहीं खादी कभी बारीक मलमल चाहिये, पैसा बिना उसके लिये मनमें सदा ललचाइये । ३८ परिवार पोषण भी यहां पर हो रहा अतिभार है, धनके बिना निस्सार जीवन मृत्युमें ही सार है । करके कठिन दिनभर परिश्रम जो यहां पैदा किया, मिलकर उसे दोनों जनोंने प्रेम पूर्वक खा लिया । ३६ निद्रा न आती रातमें कर याद प्रातःकालकी, हा ! स्वप्नमें दिखता उसे दारिद्र्य भीषण पातकी । अपनी दशापर सर्वदा रहते दुखित परिणाम हैं, उन दीन दुखियोंसे कभी होते न धार्मिक काम हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.o. रख द्रव्यको आशा हृदय जाते मनुज परदेशमें , परक्या कमाते हैं कहो रहकर कठिनतर क्लेशमें । फिरते रहे सारे दिवस रख शीशपर वे खोमचा, जब शामको आये सदन कुछ भी नहीं उनकोवचा । इस भांति कुछ ही कालमें पंजी सकल स्वाहा हुई, उसकाल उनकी दुर्दशामृत-तुल्यसीहा! हा! हुई। मिलती न कोई नौकरी मजदूरियां करने लगे, जैसे बना तैसे अहो। वे पेटको भरने लगे। आते अनेकों पत्र गृहिणीके महादुखके भरे, खर्चा न भेजा आपने जाते यहां भूखों मरे। हा ! सेजपर पाला पड़ी है घोर दैहिक तापसे, मिय पुत्र भी कितने दिनों से नहिं मिला है वापसे। रना सुताकी औषधि पैसे बिना कैसे करें, हा! हा! क्षुधातुर लाल ये धीरज कहो कैसे धरें। रहती रही पाकिट सदा जिनकी मिठाईसे भरी, आहार अब उनको कठिन ये भाग्यकी महिमाहरी। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 झट भेजिये खर्चा नहीं तो नाथ इस क्षण आइये, दो चार बढ़िया साड़ियां भी साथ लेते आइये । तब दुःखप्रद यह पत्र पढ़ दो चार आंसूपड़ गये, हा ! दीनताकी वेदनासे प्राण सहसा उड़ गये। हा! एक तो सर्वत्र ही इस दीनताका राज है, तैयार खेती पर यहाँ पड़ती भयंकर गाज है। आता नदीका पूर भी हमको सतानेके लिये, रोते हुएको और भी अतिशय रुलानेके लिये। धन-जन तथा पश्चादि उसमें सर्वदाको बह गये, हम हाय, विछुड़े वनहरिण समही अकेले रह गये। मिलता कठिन सारा परिश्रम आज सहसा धूलमें, किस पापके परिणामसे अब दैव है प्रतिकूलमें । होती कहीं अतिवृष्टिहै जिससे भयंकर त्रास हो धन नाश हो जन नाश हो, हा! सर्वसत्यानाश हो। हा। तैरने लगते मनुज-शव नीरमें फुटवालसे, जो थे बदन सुषमा भरे वे दीखते विकरालसे । ४७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Orgam सूखे हुए सारे सरोवर नीर आवश्यक जहां, हा। दैवके ही रोषसे होती नहीं वर्षा वहाँ। तन धारियोंका विश्वमें जल-अन्न प्राणाधार है, जिसठौर दोनों ही नहीं उस और क्या आहार है? हिम सन्ततिसेम्लान अतिशयदेख सुन्दर क्षेत्रको, अतिकष्ट क्या होगानहीं बोलो।कृषकके नेत्रको। हा ! खेतकेही सूखते सूखी हृदय-आशा-लता, कहते नहीं बनती कभी दुर्दैवकी अदयालुता । लगती कभी सहसा भयंकर दुखदाई आग है, करना तभी पड़ता विवश घर द्वार अपना त्यागहै। यों भस्म क्षणभरमें हुआ सामान सारा आगमें, लिखदी जगतकी आपदा किसने हमारे भागमें । तव घर न घाहरके रहे पूरे रजकके श्वान हैं, यस तुच्छ भिक्षापर यहां टिकते हमारे प्राण है। फिर धर्मसे नितके लिये भी वन्दना करना पड़ी, हम मिल गये पहिनी जहांपर सान्त्व वचनोंकी लड़ी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...ma Boo. दुर्भिक्ष । सब गैरका दुर्भिक्ष आकरके यहांपर जम गया, शम, दम, दयाके साथमें धन भी यहांका सब गया दुष्काल पीड़ित मानवोंकी ध्यानसे सुनिये कथा, हा । चीर डालेगी हृदयको वेगसे उनकी कथा। है न सुन्दरता तनिक भी कृष्ण कर्कश गान है, उनके वन्दनपर जीर्ण छोटीसी लंगोटी मात्र है। उनका पराई रोटियोंपर ही यहाँ गुजरान है, हम कौन हैं क्या कर सकें इसका न उनको ज्ञान है। हा । अन्न हा, हा, अन्नका रव कान फोड़े टालता, डर जायगा नर दूलरा उनकी विलख विकरालता। वे नर नहीं हैं किन्तु सच दुर्भिक्षके ही रूप है, रीले पड़े उनके उदर ज्यों नीर बिन हा। कूप हैं। जगदीश ही जाने क्षुधातुर प्राण कितने खो रहे, निज धर्मसे या कर्मसे भी हाथ कितने धो रहे । नहिं देखता है नर पिपासाकुल रजकके घाटको, कब छोड़ सकता है क्षुधातुर हाय । जूठे भातको। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.00 बस अस्थियां अवशेष हैं तनमें न किञ्चित् रक्त है, हा! जल रही जठराग्नि अन्दर पेट उनका रिक्त है। आंखें सहज अन्दर धंसी चहरा हुआ कङ्काल है, दुर्भिक्ष पीड़ित-मानवोंका वृत्त अतिविकराल है। ID भाई। तुम्हारा हो भला चिरकालतक सुखसे जियो, तुम नीरके बदले सदा ही क्षीर या अमृत पियो। सुख हो यहां दिन रात दूना, आपकी सन्तानको, उच्छिष्टही दे दान कुछ राखो हमारे प्राणको । सब कुछ तुम्हें प्रभुने दिया हमको मिली है दीनता, करुणा करो। करुणा करो। अवलोकके यह हीनता । अब न ठुकराओ पदोंसे हम तुम्हारे दास हैं, सब जानते हैं आप की आवास नहिं अतित्रास हैं। पीड़ित पड़े हैं दीन सड़कों पर कहीं रोते हुए, __ हा ! राजसेवक मारते मनमें मुदित होते हुए। किसको सुनायें वे व्यथा उनका यहां कोई नहीं, दुर्भिक्ष पीड़ित मानवोंसे भर गई भारत-मही। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 कैसे बिताते दीन वे रजनी भयंकर फूसकी, घस, एक चिथड़ा अङ्गपर नहिं झोपड़ी है पूसकी। सी-सी दुखित करते हुए वे रातभर हैं जागते, मिलता न रक्षण हेत फटा वे घरोघर मांगते । जब सूर्य तपता है प्रचुर निकलें न कोई धामसे, होती व्यथा तब दीनजनको पेटसे भी घामसे । पगमें नहीं हैं चप्पलें, छत्ता नहीं हैं हाथमें, हा। फिर रहे भिक्षार्थ वे प्रस्वेद बूदें माथमें । पडता यहां पानी अधिक वे वृक्षके नीचे पड़े, शीतल पवन आघातसे हैं रोंगटे उनके खड़े। असहाय वे नर सर्वदा धनहीन हैं तन क्षीण हैं, हा गिड़गिड़ाते ही गिराको बोलते वे दीन हैं । व्यभिचार । रोती रहे चाहे निरन्तर गेहमें निज सुन्दरी, वाराङ्गनाकी प्रेमसे जाती यहाँ थैली भरी। जीवन मयी सुखदायिनी वेश्या हृदयकी वल्लभा, सहधर्मिणी पाती नहीं उसके नखोसम भी प्रभा। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c करते सभी कुछ शक्तियों का नाश उसके हाथमें, हम सौंप देते हैं सकल सम्पत्ति उसके हाथमें । निज कामिनीके आभरण देते उसे ला हर्षसे, मानों यहांपर आ गई है अप्सरा ही स्वर्गसे। ६५ खोते पत मुग्ध दीपक पर हुये निज प्राणको, हम रूपपर मोहित हुये खोके सकल सन्मानको । उनकी कटाक्षोंमें सदा देखो विकट जादू भरा, जिसको निहारा प्रेमसे वह तो व्यथित होके मरा। ἐξ शृङ्गार कर अपनी छतोंपर अप्सरासी शोभतीं, संकेत करके जो विविध नित पन्थियों को मोहतीं। है स्वच्छ वस्त्राच्छन मानों एक विष्ठाका घड़ा, वह तो अपावन हो गया जो भी तनिक इससे अड़ा। ६७ होते प्रमेहादिक यहाँ वाराङ्गना-सहवाससे, नर छोड़ देते प्राण अपने रोगके ही त्राससे । होता न इससे लाभ कुछ अपकीर्ति होती है घनी, रहता दुखी परिवार सव, माता, पिता प्रियकामिनी । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ booo इसे फूटसे होगा कदाचित् ही भवनं कोई बचा, इसकी कृपासे कौरवों से पांडवों का रण मचा । ८० लड़ते यहां देखा गया है पुत्र अपने वापसे, व्याकुलं सदा रहते पितोजी मानसिक सन्तापसे। इस गृह-कलंहसें आज सत्यानाश जंगका हो रहां, हा! सद्गुणोंसे हाथ अपना शीघ्र भारतखों रहा। दो बन्धुं भी आरामसे एकत्र रह सकते नहीं, वे दुसरेका प्रेमसे उत्थान सह सकते नहीं। जितने मनुज हो गेहमें उतने यहां चूल्हे घने, अभिमानमें आकर किसीको भी नहीं कुछवेगिने। निज बंधुओं के साथ देखो शत्रुसा व्यवहार है, अवलोक इस व्यवहारको जग दे रहा धिक्कार है । दो बैल भी आनन्दसे एकत्र खा सकते यहां, पर एक थाली में यहाँ दो बन्धु खा सकते कहां? ।। ६२ कोई कलहसे इस जगतमें मिष्ट फल क्या पायगा, 'लंकेशसा भी राज्य भूमें शीघ्र ही मिल जायगा । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन-फुटसे तो पेटको मिलती जरासी शान्ति है, गृह-फूटसे तो लोकमें मचती सदैव अशांति है। गृह-स्वामी। आश्चर्यकारी आजकल गृह-स्वामियों का हाल है, निज प्रेयसी अनुसारही सम्पूर्ण उनकी चाल है। सहवासियोंको वे समझते गर्ववश निज दासही,' परिवार पालन रीतिको वे जान सकते हैं नही। वे अपहरण करते सहज ही बन्धुके अधिकारको, हा! त्रास देने में नहीं वे चूकते परिवारको । सब लोग जावें भाङमें बस, स्वार्थसे ही काम है, मुख धाम अब ऐसे नरों से बन रहा दुख-धाम है। ' मूर्खता। सर्वन ही कैसी समाई आज यह अज्ञानता, यों खोजनेपर भीन मिलता हाय! विद्याका पता। अज्ञानताका.राज्य ही दिखता यहां चहुं ओर है, प्रासाद या बनकी कुदी कोई न खाली ठोर है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी सदा प्रतिमा जगत-भर पूजताहै प्रेमसे, तीर्थंकरों के नाम भी नहिं बोल सकते क्षेमसे। हा ! जीव कहते हैं किसे यह बड़ी ही बात है, निजधर्मका सिद्धान्त अब कुछ भीनहमको ज्ञात है। हा! शास्त्रतकका नाम भी आता नहमको बाँचना, आतान हमको सत्य और असत्यका भीजांचना। तत्वार्थ सूत्र अपूर्वको अधिकांश सूत्तरजी कहें, वे धर्मको भीतो अहो! अथ शुद्ध हा ! कैसे कहें। विद्वान और अविज्ञको जब एक दिन मरना यहां, रहता नहीं कोई अमर तप व्यर्थ है पढ़ना यहां। अशानियों के कार्य भी संसारमें रुकते नहीं, मनमें समझ करके यही हम ग्रन्थ पढ़ सकतेनहीं। जो जनगण संसारमें तत्वान्वेषी थे खरे, आँखें उपाहो देखलो वे आज अज्ञानी निरे। पों एक दिन मशान सागरमें ममीही लीन थे, महिं दीन धे विद्धान भी किम बातमें हम हीन । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्रीमान् । स्वर्गीय सुखमें लीन सारे आधुनिक श्रीमान् हैं, हों मूर्खही चाहे अधिकपर विश्वमें विद्वान् हैं । चहुंओर उनके गेहमें गद्दे तथा तकिये पड़े, हथियार सज्जित द्वारपर दो चार सेवक भी खड़े | ६२ देखो चंदोबे रेशमी फानूस जिसमें जगमगे, बाजा पड़ा है पासमें दर्पण वहां अगणित टंगे । उनके पलंगोंपर मनोहर एक मच्छर-दान है, भूलोकमें उनका अहो ! स्वर्गीय सुख-सामान है। ६३ उनके निकटमें चापलूसोंकी विषम भरमार है, ताम्बूल हुक्केको लिये नौकर खड़ा तैयार है । संकेत करते सेठजीके काम हों पूरे सभी, नहि पहिनना पड़ता अहो ! निज बूट भी करसे कभी [ ६४ बीभत्स कितने ही टंगे हैं चित्र शयनागारमें, यहते रहेंगे सर्वदा शृङ्गार रसकी 'धारमें। चिन्ता नहीं कुछ भी उन्हें कोई मरे अथवा जिये, आलस्य अपना पूर्णतः अधिकार उनपर है किये । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज ठौरसे आश्रय बिना किंचित् न हिलसकते नहीं, मोटर बिना दो चार पग भी वेन चल सकते कहीं। निज देह भी देखो किसीको हो रहा अति भार है, श्रीमान् लोगोंका यहां अब दास ही आधार है। आसामियों पर वे कृपा करना कभी नहिं जानते, वे स्वार्थ साधनकी कलायें सर्वथा पहिचानते । हा! एक रुपया दे सहज जबतक न दो लेंगे सही,, न्यायालयोंका पिण्ड भी तबतक न छोड़ेंगे कहीं। देंगे न पाई एक भी श्रीमान् विद्या दानमें, क्या बांधकर ले जायंगे सव सम्पदा श्मसानमें ? यदि जोर देकरके कहो उत्तर कुरा देंगे यही, श्रम संचिता यह सम्पदा हमको लुटाना है नहीं। वे मार धक्के भिक्षुकोंको दूर करते द्वारसे, धर्मार्थ देना पाई भी जाना न उनने प्यारसे । लाखों उड़ा देंगे सहज ही व्यर्थ अपने नामको, रमणीक कृत्रिम वस्तुसे भरते रहेंगे धामको । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदवी मिले किस भांति हमको यत्न वे करते रहें, वे साहबोंके पद-कमलमें पएडियाँ धरते रहें। निज भक्ति दिखलाते हुये यो गारडन पार्टी करें, करते हुये ये कृत्य सब नहिं ईशसे मनमें डरें। १०० उनके मनोहर कण्ठमें मणि मोतियोंका हार है, सम्पत्तिवालोंका अहो ! साथी सकल संसार है । कहते किसे जातीयता है द्रव्यका उपयोग क्या ? परलोकमें भी जायंगे ये भोग या उपभोग क्या ? १०१ वंसी बजाते हैं. यहां वे सर्वदा आरामकी, कोई नहीं मर्याद उनके दीर्घतर विश्रामकी । निज़ कार्य करनेमें उन्हें होता प्रचुर संकोच है, सम्पत्तिवालोंकी दशापर आज जगको सोच है। १०२ चाहें कहीं श्रीमान तो वे क्या न कर सकते कहो? निज़ जातिका दारिद्रय सब इस काल हर सकते अहो! पर कौन झंझटमें पड़े किसको यहांपर की पड़ी, उनके निकटमें तो सदा अज्ञानता देवी खड़ी। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान की सन्तान । अवलोक लीजे आपही दश बीस दुर्गण युत नहीं, ऐसे यहां श्रीमान सुत होंगे अहो! विरले कहीं। वे जान सकते हैं नहीं क्या वस्तु शिष्टाचार है ? अपने पिताके साथ भी उनका दुखित व्यवहार है। १०४ करना अवज्ञा पूज्य पुरुषोंकी उन्हें मंजूर है, विद्या, विनयके साथ ही उनसे हुई अति दूर है! पड़के कुसंगतिमें कभीवे स्वास्थ्य धन खोते अहो! वे पूर्वके दुष्कृत्य पर, पर्यत पर रोते अहो! संसारमें यों तो सदा ही जन्म लेते हैं सभी, उनसी शुश्रूषा क्या कराता विश्वमें कोई कमी! वे जन्मसे ही कष्ट देते हैं सकल परिवारको, होते बड़े ही भूल जाते मातृ-ऋणके भारको । १०६ सब खेलते है खेल अपने साथियों से मोदमें, लेकिन रहे उदण्डता श्रीमान पुत्र विनोदमें। वे पालकों में जोर दिखलाते अधिक निज द्रव्यका, हा! भान कुछ भी है नहीं अपने परम कर्तव्यका। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ थोड़ा परिश्रम भी पिता उनसे कराते हैं नहीं, रखते उन्हें वे लाइसे किंचित् डराते हैं नहीं। अपराध सारे बालकों के शीघ्र हँसकर टालते, श्रीमान् अपने पुत्र प्रति कर्तव्यको कब पालते ? १०८ फिरते सदा स्वच्छन्द वे सर्वत्र सुखसे धमते, निःशंक देखो रण्डियों के मुख-कमलको चमते । अवलोकके सुतकी दशामाता दुखी हा! होचली, "ऐसी बुरी सन्तानसे थी मैं सदापन्ध्या भली।" १०६ पाती सदन सम्बाद माता पुत्रके दुःखसे भरे, हा! सोचसे उसके अचानक उष्ण दो आंसू गिरे। जब वक्र तरुवर होगयातव सोचसे भी कामक्या, होताअशिक्षाका नहीं भीषणदुखद परिणामक्या? दिखते उन्हें स्कूल बोर्डिङ्ग तीव्र कारागारसे, होते दुखी अतिशय कुंवर वे पुस्तकों के मारसे। निश्चिन्त हो दो चार घण्टे पैठ वे सकते नहीं, लेटे विना दिनमें उन्हें आराम मिल सकता नहीं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E0000 ज्यों वे बड़े होने लगे त्यों शौक भी बढ़ने लगे, संध्या समय भ्रमणार्थ मोटर नित्य ही चढ़ने लगे। जाने लगे दश पांच अनुपम मित्र भी तो साथमें, आनन्द आता है सदा दश पाँचके ही साथमें.! मन मोहते उनका अधिक बस रंडियोंके गीत ही, इज्जत न जिनकी है कहीं दो चार ऐसे मीत ही। रखते सदा ही पासमें निज द्रव्य देकर पालते, विपरीत इनके ही सदा दुष्काम जो कर डालते । अध्यात्म विमासे इन्हें कुछ पूर्व भवका रैर है, बस , वाहनोंसे भूलकर नीचे न पड़ता पैर है । फैशन बढ़ायेंगे सदा वे साहबोंसे भी बड़ी, तकदीरका ही खोर है लाइन न इङ्गलिशकी पड़ी। गाली बिना वे शब्द भी मुखसे निकालेंगे नहीं, ' दो चार रुपये व्यर्थ भी उनको न सालेंगे कहीं। निज साथियोंको पेटभर मोदक सदैव खिलायेंगे, , सरकस तथा नाटक उन्हें सप्रेम वे दिखलायेंगे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOME इस लोक निन्दाकी उन्हें मनमें न कुछ परवाह है, माता पिता निज बन्धुओंकी भी न उनको चाह है। वे मस्त रहते हैं प्रबल अपने निराले रंगमें, रहना नहीं वे चाहते पलभर कभी सत्संगमें। ११६ निज पेट भी वे भर सकें इतना न उनमें ज्ञान है, उनके वचनमें देख लो कितना भरा अभिमान है। है द्रव्य अपने पासमें लो चापलूसी यार हैं, वे मित्रको ही लूटनेको तो सदा तैयार हैं। हमारी शिक्षा। उस पूर्व शिक्षाका जगतसे नाम जबसे उठ गया, तबसे हमारा धार्मिक श्रद्धान सारा हट गया। विद्यासदन निःशुल्क भी प्रतिदिन यहांपर बढ़ रहे, रहकर जहांपर छात्रगण सोत्साह विद्या,पढ़ रहे। ११८ अइउणऋलुकरटकर किसी विधि पासकर ली कौमुदी तुम तिर चुके सम्पूर्ण मानों संस्कृत विद्या नदी। दश साल श्रम करके कठिन हम न्यायतीर्थ हुये कहीं, चालीसकी भी नौकरी ढूंढे अहो! मिलती नहीं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विद्यालयोंसे भी निकलकर जातिहितक्या कर सके, अध्यापकी करके विवश यह पेट पापी भर सके। हा ! अन्यके आधीन ही सचमुच हमारा प्राण है, इस दासताके सामने रहता कहां अभिमान है। १२० हा खेद व्यावहारिक उन्हें शिक्षानदीजातीकहीं, प्रिय स्वावलम्बनपर कभी दृष्टि दी जाती नहीं। सेवक धनाना चाहते माता पिता सन्तानको, भू में मिलाना चाहते क्यों पूर्वजोंके मानको ? सय सद्गुणोंके साथमें यह शिल्प विद्या है जहां, जोड़े हुये कर-पल्लवों को प्राप्त हो लक्ष्मी यहाँ । अय लक्ष्मिसुत हम वैश्य ही करने लगे, नौकरी, तोसोचिये सेवक जनों को क्या दशा होगी हरी ? १२२ हा! आधुनिक जीवन हमारा सर्वथा परतंत्र है, शिक्षा विना परतंत्रताका आ न सकता अन्त है। विद्यालयोंकी पद्धति जयतक न बदली जाएगी, तपतकपतितयह जाति भीउत्थानको नहिं पायगी। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये लोग लेते लोभवश श्रीमान्से अति द्रव्यको, पर कब निभाते हैं वहाँ सम्पूर्णतः कर्तव्यको। वे खर्चसे भी तो अधिकलें खर्च अपने सेठसे, घर बांध ले जाते मिगई मुफ्तमें ही पेटसे। सद्धर्म-मूर्ति मानवोंका एक यह व्यवसाय है, होती ने पाई पासको व्यय और खासी आय है। पञ्च । यों न्याय करनेके लिये बनते सभी ही पञ्च हैं, उपकार करुणा आदिके नहिं भाव उनमें रंच हैं। वस, रूढ़ियोंको पुष्ट करना आज उनका लक्ष्य है, है मूर्खतासे ही भरा देखो यहां अध्यक्ष है। १२६ नर आयुमें जितना बड़ा वह पंच है उतना घड़ा, उनका यहां सब ठौर ही अज्ञानसे पाला पड़ा। रहते हजारों कोश वे तो दूर सुन्दर-नीतिसे, देते नहीं हैं दण्ड वे सम्बन्धियोंको प्रीनिसे। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ १३० इन चार बातोंपर सदा इनका अधिक अधिकार है, आचार है, व्यवहार है, व्यापार है, आहार है । मनके विचारों पर अहो ! सत्ता जमाना चाहते, अपने पुराने रङ्गकी सरिता बहाना चाहते । १३१ शुभ न्यायके ही हेत पंचोंकी यहाँ सृष्टि हुई, परिणाम है विपरीत अब अन्यायकी वृष्टि हुई । ये मानवोचित कार्य में भी पाप बतलाते हमें, हां ! रातमें भी सूर्यका सन्ताप घतलाते हमें । १३२ करते हुये भी पाप इनके साथमें चलते रहो, हँसते रहो, मिलते रहो, नित हाथ पग मलते रहो । यदि चापलूसीमें जरा भी जायंगी रह गलतियां, उड़ जायंगी तत्काल ही फिर तो तुम्हारी धज्जियां । पञ्चायतें । कोई दिवस पंचायतों का विश्व बीच महत्व था, तब मानवों में भी परस्पर एक दिन एकत्व था । वे न करतीं थीं कभी भी खून विश्रुत सत्यका, पथ पुष्ट वे करतीं न थीं अन्याय और असत्यका । ८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ १३४ हा ! आज इन पंचायतों की हो रही है दुर्दशा, इन पंचराजोंपर चढ़ा है पक्ष-मदिराका नशा । निष्पक्ष होके न्याय करना स्वप्न में आता नहीं, हा ! दीन मानव आज इनसे न्यायको पाता नहीं । १३५ अन्याय रूपी चक्क हा ! हा ! यहाँ हम पिस रहे. होके व्यथित पंचायतों से बन्धु कितने खस रहे । बस, स्वार्थ साधनके लिये होती सकल पंचायतें, अन्याय और स्वपक्षसे पूरी अखिल पंचायतें । १३६ जो कुछ प्रथम मिलकर सदन दो चारने निश्चय किया, उनही विचारों को अहो ! पंचायतों में घर दिया । वे पुष्ट सहसा हो गये सम्बन्धियों की रायसे, कृत्कृत्य नितको हो गये पंचायतों के न्यायसे । १३७ बच जायगा जन विश्वमें तलवारकी भी धारसे, हा ! बच न सकता किन्तु वह पंचायतों की मारसे । निष्पक्षता तो सर्वथाको हो चुकी उनसे बिदा, जानें प्रभो ! पंचायतों के भाग्य मेंही क्या बदा ? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ १३८ अह केश कर्तनपर यहाँ पंचायतें होतीं कहीं, सुख शान्तिके दिनमें अहो दुख बीज वेषोत्तीकहीं। पंचायतें तो आज कलकी मान्यताको खो चुकीं, अपने हृदयसे सर्वथा सौजन्यताको धो चुकीं। बहिष्कार। इन पंचराजो के निकट अपमान ही हथियार है, लेकिन समयके सामने वह शस्त्र भी बेकार है । पापी जिन्हें कहते अभी धर्मिष्ठ वे कहलायंगे, उन पापियों की धारमें सवही सहज वह जायंगे । १४० अपराध बिन भी बन्धु कितने जाति च्युत होते यहाँ, अपमानसे होके दुखित वे पाप रत होते यहां । बिछुड़े हुये निज बन्धुओं को फिर मिला सकते नहीं, उपदेश धारा भूल करके हम पिला सकते नहीं। प्रति वर्ष कितने ही मनुज रोते हमारे त्राससे, होते विधर्मी प्रेमसे जाके हमारे पाससे । १ वाल बनवानेपर। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा! हा! जरा सी बातसे व्यवहार होता बन्द है, जो मानवोंकी दृष्टि क्या पशु दृष्टिसे भी निन्ध है। १४२ भूदेवपके भी हाथका आहार तुमने कर लिया, मानों भयंकर घोर पापाचार तुमने कर लिया। वस, जोड़ कर दोनों करों को दण्ड लेना चाहिये, आजन्म, नहिं तो वन्धओं से दूर रहना चाहिये । यदि रातमें कुछ खालिया भागी हुये तुम पापके, मन्दिर तुम्हारा बन्द.क्या प्रभु भी किसीके वापके। जबतक न मीठे मोदकों से पेट इनका भर सको, तबतक जिनालयमें न अपना एक पग भी धर सको बहिष्कृत। जिनको निकाला धर्मसे उनकी कथा कहना हमें, हा! हा वहिष्कृत बन्धुओं का कष्ट भी सहना हमें। उनका नहीं कुछ भी गया वे दूसरों में मिल गये. । मुरझे हुये पंकज-हृदय तत्काल उनके खिल गये। १मा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ porani हाँ ! मानवोंका तो यहांपर खूनतक भी माफ है, पर औरतोंका सूक्ष्मतः होता यहाँ इन्साफ है । इन धर्म भ्रष्टा नारियोंकी जो विकट होती दशा, यों लिख न सकती लेखनी जी धाम करके दुर्दशा। दुष्कर्म करनेके लिये करते विवश मानव उन्हें, पुरुषत्वसे वे दूर, कहना चाहिये दानव उन्हें । वेश्या बनाते नारियों को हम निजी अधिकारसे, करते पृथक उनको जरासी घातपर आगार से । १४७ हा जातिच्युत निज जातिसे करने लगेसवही धृणा, निर्वाह क्या होतान उनका इस जगतमें हम पिना? तैयार रहते दूसरे उनको मिलानेके लिये, सप्रेम अपने साथमें उनको खिलानेके लिये। १ वर्तमानमें पञ्चायतोंका अन्याय जो जोर-शोर पर है। चे दिन निकट ही है जय फि इनको अपने दुरत्यौपर परवाना होगा। जो दशा मध्याहके सूर्यफी होती है वही दगा इनकी भी होगी। मनुष्य न्यायका सापीहे अन्यायका नदी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार-पत्र । हा, कर रहे काले यहाँ कागज चलाकर लेखनी, द्वेषाग्नि बढ़ती आज पत्रोंसे यहांपर चौगुनी । होते न यदि ये पत्र तो इतनी कलह बढ़ती नहीं, यह जाति पक्षापक्षके भी पाठको पढ़ती नहीं। १४६ होता नहीं मतभेद इतना आज जितना दिख रहा, शास्त्रोक्त लिखता एक तो पर अन्य कुछही लिख रहा साहित्यका रहता नहीं है लेख उनमें नामको, होते दुखी ग्राहक इन्हींमें डालकरके दामको। घस, बस, हृदयके दुर्विचारोंकी अधिकतर पुष्टि है, अपने प्रयोजन-सिद्धि-हित इनकी हुई अब सृष्टि है। निज धर्म सेवाका प्रथम आदेश होना चाहिये, कटु शब्द लिख विद्वोषका क्या बीज बोना चाहिये ? आचार्य वचनोंका उलंघन अव किया जाता यहां, विपरीत उनका अर्थ भी समझा दिया जाता यहां। से के किसी भी पंक्तिको स्वयमेव लड़ने लग गये, अपशब्दका उपयोग करके और बढ़ने लग गये। . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १५२ जो आ गया निज चित्तमें तत्काल लिख डाला वहीं, कागज, कलम, मसिपात्र अपने हाथके, परके नहीं । फैला वितंडावाद इससे आज जैन समाजमें, हा, शान्ति भी तो रो रही है शान्तिताके राजमें । १५३ उत्पन्न होते पत्र नूतन, जीर्ण तजते प्राणको, थोड़े दिवस जीकर यहां वे प्राप्त हों अवसान १ को । निष्पक्ष लिखना तो किसीने आजतक सीखा नहीं, निष्पक्षता बिन लोकमें यह सत्य भी देखा नहीं । १५४ निजद्वेष दिखलाते हुये लिखते कभी नास्तिक जिन्हें, वे भी कड़े हो धर्म-ठेकेदार लिखते हैं उन्हें । इच्छा यही है तीव्रतर संसार में सन्मान हो, प्रियधर्मका अपमान हो या जातिका अवसान हो । सम्पादक । भाषा न आती शुद्ध लिखना पत्र सम्पादक बने, बस, पूर्णत: वे जातिमें संक्लेश उत्पादक बने । १ अन्त । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० निजमान हित संसारमें क्या क्या नहीं करना पड़े, लेखक, कवि, कविराज, भी सेवक कभीबनना पड़े। संस्थायें। हैं जैन संस्थायें यहां पर पूर्वजों के भाग्यसे, मिलते नहीं हैं कार्यकर्ता योग्य हा, दुर्भाग्यसे । सौभाग्यसे यदि कार्य-वाहक योग्य मानव है जहां, वह क्या अकेला कर सकेगाद्रव्यकी कमतीवहां। १५७ श्रीमान् लोगोंका न इनकी ओर किंचित् लक्ष्य है, करता निरीक्षणतक नहीं जो कि बना अध्यक्ष है । घस, मुख्यकर्ताकी वहां चलती निरन्तर पोल है वाहर दिखावट देख लो, क्या रिक्तही यह ढोल है। १५८ है द्रव्यकी कमती घड़ी अखबारमें छपवायेंगे, जनता समक्ष न कार्य करके भी कभी बतलायेंगे। क्या अभ्रभेदी विल्डिंगोंसे संस्थाका नाम है, प्रिय है न कृत्रिमता तनिक प्यारा जगतको काम है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ 0000 Doo. १५६ आता प्रचुर रोना हमें विद्यालयों के काम पर, होते दुखीवहुछात्र हा, आजीविका पिन धामपर। पंडित निकलते जा रहे पर है जगह खाली कहां, निजपेट भरना भी उन्हें हा! हो रहा मुश्किल महा। ब्रह्मचर्याश्रम । अब आश्रमोंकी भी दशाकोआपकुछ अवलोकिये, धनवान पुत्रोंकी नहीं सत्ता वहां पर देखिये। वह पूर्व-शिक्षा पूर्णतः दुर्भाग्यमें मिलती नहीं, मुरझी हुई मनकी कली उनकी कभी खिलती नहीं। हैं आज भी दो चार यों तो ब्रह्मचर्याश्रम यहां, पर छात्र पढ़ने के लिये पूरे अहो ! मिलते कहां । सन्तान केवल रह गई है अब सगाईके लिये, हम भेज सकते आश्रमों में कर पढ़ाई के लिये। प्रिय ब्रह्मचर्या भावमें कितनी कठिनता प्राप्त है, १ प्रचार्या भावसे, कैसा हुमा कुरा गाथ । मक्खियां फैसे उन्हें १ उठते नहीं हैं हाथ ।। -मैथिलीशरण गुप्त। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 हाय, असमयमें यहां जीवन सदैव समाप्त है। चश्मा बिना हम पासकी भी वस्तु लख सकते नहीं, आधार बिन दशपांच पग स्वयमेव चल सकते नहीं। १६३ देखो जवानीमें यहां कैसा वुढ़ापा आ गया, अब तो हगों के सामने कैसा अंधेरा छा गया । सर्वांगमें निशिदिन यहां होती भयंकर वेदना, . जो दुःख हों थोड़े सभी ही एक शक्तिके बिना। व्यायाम शालायें। व्यायामशालायें अहो, अस्तित्व निज रखती यहां व्यायाम करनेके लिये घर कौन जाता है वहां । आरोग्य रहना सर्वदा यह बालकों का कर्म है, व्यायाम करनेमें गृहस्थों को बड़ी ही शर्म है। १६५ सामान ले दो पांव भी चलना कठिनतर हो गया, यों जग रही है क्लीवता१बल वीर्य सारासो गया। जव लाजमें आके सकल व्यायाम हमने तज दिया, तब देखकर अवकाश मनमें भीरताने घर किया। १ -१ नपुंसकता। - -- Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ Goocy हम आत्म रक्षा कर सकें इतना न तनमें बल कहीं, मुरदार चहरों पर तनिक भी वीरताकाजल नहीं। हम देख करके चोरको जगते हुये सो जायेंगे, हल्ला करेंगे जोरका सर्वस्व जब ले जायेंगे। अन्यायियों के सामने हम कांपते हैं तूलसे, सुकुमार अतिशय हो रहे देखो, सुकोमल फूलसे। अह, सहन सकते हैं कभी मध्याह्नके भी घामको, तांगे विना जाते नहीं दूकानसे भी धामको। १६८ फिर भी न लायेंगे यदि व्यायामको उपयोगमें. आजन्म ही सड़ते रहेंगे हम भयंकर रोगरें । व्यायामशालाजातनिक इस देहकोसुगठित करो, सुख-शांतिके हित विश्वमें व्यायामको नियमितकरो __ औषधालय । हैं औषधालय भी यहां उपचार करनेके लिये, जड़से न सत्यानाश कोई रोग जाते हैं किये। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवही स्वदेशी औषधीका ढोंग वे फैलायेंगे, प्रच्छन्न१ कितनी ही दवायें डाक्टरों से लायेंगे। १७० उनकी दवासे पेटका भी रोग मिट सकता नहीं, बीमार-मानव भी अहो चिरकाल टिक सकता नहीं। विज्ञापनों को देखकर तारीफ जो जाते वहां, कुछ कालमें पैसा लुटाकर लौट आते हैं अहा ! पुस्तकालय। है पुस्तकालय भी सभीको ज्ञानके दाता सदा, स्वाध्याय करनेसे वहां कल्याण होता सर्वदा । आधुनिक-ग्रन्थालयोंमें ग्रन्थ जैसे चाहिये, अति यत्न करने पर न उनमें अन्य वैसे पाइये। १७२ नाटक, सिनेमा घर यहां ऐसे मिलेंगे आपको, जो शान्तिके बदले यदायें चित्तके सन्तापको । है एककी उनमें कथा यस | आप पढ़ते जाइये. यह दरकपाजी सीग्विये दिन २ बिगड़ते जाइये। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ कविता | यह जानते हैं नहीं कहते गणागण भी किसे ? करने लगे कविता, जगत फिर क्यों न कविता पर हंसे ? पिंगल पढ़ा नहिं नामको तुकबन्द कोरा छंद है, हरिगीतिकामें गीतिका चलता सदा स्वच्छंद है । १७४ होगी न सुन्दर उक्ति उसमें पदललित होंगे नहीं, टूटे हुये अक्षर भला क्या शोभ सकते हैं कहीं। है अर्थ साधारण सदा सब ही पुराना भाव है, निज नाम हो जावे जगतमें यह हृदयकी चाव है । जनसंख्याका ह्रास | हा ! धर्मसे धनसे तथा जनसे हमारा ह्रास है, अवलोक करके नाश निज होता न किसको त्रास है । जब हम न होंगे लोकमें तब धर्म भी होगा नहीं, आधार बिन आधेय भी पलभर न रह सकता कहीं । १७६ इस हासकी भी ओर क्या जाता किसीका ध्यान है ! जन-नाशही सबके लिये अतिशय भयंकर वाण है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीस१ प्रतिदिन घट रहे हैं देख लो जैनी यहां, क्यों चल रही है कालकी हमपर कठिन छेनीयहां। १७७ एक दिन संसारमें सर्वत्र थे हम ही हमी, पर आज सबसे भी अधिक होती हमारी ही कमी। सम्राट अकबरके समय हम एक कोटि रहे यहाँ वे धर्म-बन्धु छोड़ हमको हाय, आज गये कहाँ ? १७८ हा, देखकर घटती विकट बहता हगोंसे नीर है, जिसके हृदय होती व्यथा होती उसीको पीर है। अस्तित्वक्या उठ जायगा अव सोचहोता है यही, क्या अन्य लोगोंकी तरह हमसे रहित होगी मही। १६ भूगर्भ स्थित मूर्तियां अस्तित्व फिर बतलायेंगी, था जैन धर्म कभी यहांपर वात ये प्रगटायेंगी। होंगे हमारे देव मन्दिर दूसरों के हाथमें, विचरा करेंगे हम कहींपर दूसरों के साथमें। १ तीस वर्ष में जैन समाजके दो लाख भादमी कम हो गये। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० १६२ रहते यहां व्याख्यान सारे सामयिक निन्दा भरे, उपदेशकोंसे पिण्ड छुटेगा हमारा कव हरे। दस पांच रुपये फीसके वे तो सहज ही मांगते, अपनी दुरंगी चालको वे स्वप्नमें कब त्यागते ? परको लुभानेके लिये चे ढोंग क्या करते नहीं, अपवाद अथवा पापसे मनमें तनिक डरते नहीं। श्रीमान् लोगोंकी बड़ाईका विपुल पुल बांधना, आता इन्हें अच्छी तरहसे स्वार्थ कोरा साधना । उपदेशकों की देखलो चहुंओर ही भरमार है, क्या जाति अथवा धर्मका इनसे हुआ उपकार है ? ये तो परस्पर द्वेषका दुर्वीज चोना जानते, परकी भलाईमें नहीं अपनी भलाई जानते। १५ इस पेट पोषणके लिये करने पड़ें उपदेश सव, इसके लिये संसारमें धरने पड़ें दुर्वेश सव । सुनते रहे श्रोता प्रथम उपदेशको जिस भावसे, सुनते नहीं हैं आज वे उसकोकभी निजचावसे। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है हे सज्जनो, करके कृपा अब आप आलू छोड़िये, निज पूर्वजोंकी रीतियोंको स्वप्नमें नहिं तोड़िये । खाते स्वयं आलू तथा हा! अन्य भक्ष्याभक्ष्य वे, अपने वचन ऊपर कभी देते नहीं हैं लक्ष्य थे। ब्रह्मचारीगण। पत्नी नहीं है गेहमें इस देहमें पल भी नहीं, पाणिग्रहण भी दूसरा अब हो नहीं सकताकहीं। जो कर नहीं सकते तनिक भी लोकमें पुरुषार्थको, वे बन रहे हैं ब्रह्मचारी सिद्ध करने स्वार्थको । १६८ बस, लोक पूजा चाहिये निज धर्मसे क्या काम है, हैं ब्रह्मचारी पर हृदयमें कामिनीका नाम है। चिन्ता न है उनके हृदयमें लेश भी परमार्थको, मर जांय चाहे दुसरा उनको पड़ी है स्वार्थकी, । १६४ आहार सुन्दर मिष्ट अथवा पौष्टिक होता जहां, मनमें मुदित होते हुए वे जीमने जाते वहां। हैं ब्रह्मचारी दूसरोंको ही दिखानेके लिये, ऊपर रंगे हैं, वस्त्र लेकिन श्याम है उनके हिये। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० करते हुए जिस कृत्यको श्रावक-हृदय शरमायेंगे, उपदेश देकर दूसरोंसे वे उसे करवायेंगे। हा. हा. लजाते आजकल सब ब्रह्मचारी वेषको, नित शान्तिके ही नामपर पैदा करेंगे क्लेशको । २०१ थों बन गये हैं ब्रह्मचारी कर्मको जाना नहीं, जिस धर्मके पालक स्वयं सचा उसे माना नहीं। जो आ गया इस चित्तमें उपदेश वह देने लगे, वाग्वीर धन करके कलहके बीजको धोने लगे। २०२ हैं ब्रह्मचारी और यह यौवन भरा है गातमें, अवलोकने निज-कामिनीको वे अन्धेरी रातमें। रहते व्यथित अत्यन्त ही हा, मारकी दुारसे, प्रच्छन्न तब वे जोड़ते सम्बन्ध इस संसारले । भट्टारक। एक दिन अकलकसे विद्वान् भट्टारक हुये. निज शक्तिसे जो लोकमें प्रभु-धर्म संचालकहुये। अह, आज महारक यहां रखते परिग्रह भारको, भगराजकी उपमा अलौकिक मिल रहीमारिको। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ २०४ अब नाम भहारक यहां सब कृत्य उनके नीच हैं, जो थे सरोवरके कमल वे हो गये अब कीच हैं । हा, जान कुछ पड़ता नहीं यह कालका ही दोष है, अथवा हमारे धर्मपर विधिने किया अति रोष है। २०५ अब धर्म रक्षक नामपर ये धर्म भक्षक बन रहे, संसारके आडम्बरों में यों अधिकतर सन रहे । हैं वस्त्र इनके देख लो रंगीन रेशमके बने, पीछी कमंडलु भी अहो, इनके सदा मन मोहते । २०६ गद्द तथा तकिये भरे रहते सुकोमल तुलसे, सादा नहीं आहार करते हैं कभी भी भूल से । पस. पुष्ट, मिष्ट गरिष्टही इनका सदा आहार है, पड़ती भयंकर रातको इनपर मदनकी मार है । २०७ प्रत्येक भहारक यहां पर धर्मका आचार्य है, पर धर्मके अनुरूप तो होता न कोई कार्य है । कितनी लिखी रहती घड़ी शुभ पदवियाँ चपरासमें, रखते परिग्रह सर्वदा संसार भरका पासमें । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पाखंडियोंको भूपसम सामान सारा चाहिये, भगवान-प्रतिमा सामने तकिया सहारा चाहिये। पूजें कुदेवोंको अहो, निज मार्गमें श्रद्धा नहीं, ऐसे कुगुरुओंसे जगतका क्याभला होगा कहीं ? सग्रन्थ ये पापी बड़े निर्ग्रन्थसे पुजते यहां, हा! स्वार्थ साधनके लिये सवढौंग भी रचते यहां। परनारियोंके हाथको लेते अहो ! निज हाथमें, अवकाश पा कर बैठते अन्याय उनके साथी । २१० मुनि धर्मका भी स्वांग धरना प्रेमसे आता इन्हें, उल्लू बनाना श्रावकों को भी सदा आता इन्हें । निज यंत्र मन्त्रोंसे डराना दूसरों को जानते, हा ! धर्मकेही नामपर ये पाप कितना ठानते। २११ हैं भक्त इनके आज भी बागड़ तथा गुजरातमें, कर पैठते प्रभुकी अवज्ञा आ इन्हींकी वातमें। हे आवको! होते हुए हग तुम-नहीं अन्धे धनो, आके किसीकी यातमें अघ-पक्ष में मत तुम सनो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कर प्रेरणा अत्यन्त ही पूजा करायेंगे कभी, निःशंक तब निर्माल्य अपनाही बनायेंगे सभी। पूजा प्रतिष्ठा एक भी होती नहीं इनके विना, होती बड़ी ही ठाटसे इनकी मनोहर भावना१ । २१३ दश पांच नौकर तो गुरू, रखते सदा ही संगमें, हा, हा, रंगे रहते अलौकिक ही निराले रंगमें। ये श्रावकों को दे सकेगे हाय कारागार भी, प्रभुने इन्हें क्या दे दिया है विश्वका अधिकार भी। गिरते कुएं में तो स्वयं पर अन्यको लेके गिरें, जब हैं यहांपर भक्तगण तब क्यों अकेलेही मरें। अपने कुकर्मोंसे सहज पातालमें ये जायेंगे, सहने पड़ेंगी वेदना तब तो अधिक पछतायेंगे। मुनिगण। जिनसाधुओंका आजकल हमको अधिकतर मान है, १ये (भट्टारक) जिसके घर भावना (आहार ) करते हैं। उसका तो दिवालासा निकल जाता है। कभी कभी दो दो तीन तीन सौ रुपया खर्च पड़ जाता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उनकी दशाको देखकर होता हृदय क्यों म्लान है । वे साधु हैं लेकिन हृदयमें साधुता थोड़ी नहीं, तन वस्त्र-त्यागा किन्तु ममताकी लता तोड़ी नहीं । २१६ अब भी अहो! उनके हृदय ऐहिक-विषयकी चाह है, निर्वाण सुखसिद्धयर्थ क्यालवलेश भी उत्साह है वे मान या अपमानका रखते बड़ा ही ध्यान हैं, मद,मोह,ममता, पक्षता, उनके प्रवल महमान हैं। यहमार्ग यद्यपिहै सुगमती भी कठिन इसकी क्रिया, पर आज तो यस मानमें मुनिव्रत यहां जाता लिया वे मूल गुण भी पालनेमें सर्वथा असमर्थ हैं, असमर्थता वश साधु गण करते अनेक अनर्थ हैं। २१८ हो दूर वे निज गेहसे फंसते जगतके जालमें, सौभाग्यसे मिलते कहीं सच्चे गुरू कलिकालमें। तनपर कभी रखते नहीं निल तुप परापर चेल१को, पर कौन कह मकतामनुज उनके हृदयमलको। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GODROOF •००४ २१९ सिर केश-लुंचनके लिये जाता यहां मेला भरा, विज्ञापनों से व्याप्त होती है सकल विश्वम्भरा । छयालीस दोषोंको कहो कब पूर्णतः वे टालते, दोचार बातें छोड़,क्या शास्त्रोक्त विधि वे पालते। २२० पूजा तथा अभिमानमें उनका हृदय आसक्त हैं, तप,ज्ञान,संयमसे तरल१ मन सर्वदा ही रिक्त है। आ मानमें धारण करें ये श्रेष्ठ संयमकी धुरा, पर अन्तमें अवलोकिये परिणाम आता है बुरा। ___ २२१ आधीन नहिं हैं इन्द्रियें सब इन्द्रियोंके दास हैं, हा! व्यर्थ ही निज देहको यों दे रहे अति त्रास हैं। मार्जार सम लजा जनक संसारमें इनकी कथा, शीतोष्णकी किंचित् कभी भी सह नहीं सकते व्यथा २२२ जग चित्त-रंजनसे इन्हें गुरुता हुई अव प्राप्त है, संसार-चिन्तासे हृदय विस्मय! अधिकतर व्याप्त है। १ चंचल। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुखमें सहज ही छोड़ देते आज कल मुनि धैर्यको, यों चाहने लगते व्यथित संसारके ऐश्वर्यको। २२३ चिन्ता उन्हें रहती विकट नित शिष्य गणके वृद्धिकी, इच्छा नहीं परमार्थकी अभिलाष लौकिक सिद्धिकी अज्ञान रूपी व्याध दिन २ कर रहा हा! घात है. आदर्श सुन्दर साधुओं का हो रहा क्यों पात है ? २२४ कोई मुनी निज नामसे चन्दे यहां कर वायंगे, निज नामकी कोई अहो! छतरी यहां बनवायंगे। वे गुप्त बातों को कहेंगे भक्तजनके कानमें, ने खिन्न प्रमुदित हों यहांपर मान या अपमानमें। परिडत। जिन पण्डितों का एक दिन संसारमें सन्मान था, निज धर्मके उत्थानका जिनको बड़ा ही ध्यान था। करते रहे जगमें प्रकाशित धर्मको निज ज्ञानसे, हा! आज उन विद्यार्णवोंका व्यासमन अभिमानसे र स्तूप वगैरह स्मारक चिह। - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ देखो ! परस्परकी कलहमें आज उनका धर्म है, अब उठ गया उनके हृदयसे धर्मका सब मर्म है। निष्पक्ष होके वस्तु निर्णयकी उन्हें सौगन्ध है, कहते प्रथमसे रूढ़ियों का धर्मसे सम्बन्ध है। २२७ शुभ ज्ञानके बदले हमें अज्ञान धारा दे रहे, उद्देश बिन ये लोग यों ही धर्म नौका खे रहे । कचरा हटाने में तनिक अब ये समझते पाप हैं, आश्चर्य कारी पण्डितों के आज कार्य-कलाप हैं। २२८ हठ भूतके आधीन होकर सत्यकी चोरी करें, हा! सत्यमें भी व्यर्थकी ये लोग मुंह जोरी करें। निन्दा तथा बकवादसे कुछ काम चलता है नहीं, हे पण्डितो! तुम सत्य बोलो सत्यकी सारी मही। बाबू लोग। इन बावुओंने भी यहां कैसी मचाई क्रान्ति है, जिससे समाजोंमें विपुल सर्वत्र क्रूर अशान्ति है। सबको मिटा करके अहो । ये एक करना चाहते, थे निन्ध बातें भी बहुत सी हाय आज सराहते। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ anmaan 00000 २३८ सिद्धान्तके जो गूढ़ भावोंको जरा समझा नहीं, अपने निराले पंथकी कर डालता रचना वहीं। कितनों विभागोंमें अहो ! यह धर्म दिन २ वट रहा, अतएव इसका वास्तविक भी रूप इससे हट रहा। २३६ प्यारा अहिंसा धर्म तो है आज ग्रन्थोंमें यहां, अपना लिखाना चाहते हैं नाम सन्तों में यहां। वह सार्च भौमिकता कहांपर छिप रही है धर्मकी, करता रहा जगभर प्रशंसा धर्मके सत्कर्मकी। २४० उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रभृति तो आजकल दुष्कर्म हैं, मिथ्या वचन, परिवाद, हिंसा नित्यके सद्धर्म हैं। दुष्कृत्य बढ़ते जा रहे सद्धर्मके ही रूपमें, क्या लीन हो जाता नहीं पाषाण निर्मल कूपमें ? २४१ अन्याय पक्षोंको अहो ! धर्मान्धतावश खींचते, होते हुए भी नेत्र दोनों आज उनको मींचते । कैसी मची भीषण कलह सर्वत्र प्रभु सन्तानमें, हम मौन हैं संसारमें निज धर्मके अपमानमें। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ हम धर्मको तजने लगे वह होगया हमसे विदा, अब धर्म है सत्कर्म है केवल हमारी सम्पदा । यों कर लिया करते कभी हम वंदना जिनराजकी, कैसे लिखे यह लेखनी धार्मिक अवस्था आजकी। हा! घूमता है धर्म प्यारा कौनसे उद्यानमें, जाता यहाँ जीवन हमारा भी किसीके ध्यान में । जिस धर्मकी उत्कृष्टतासे ज्ञात थे जगजन कभी, सिद्धान्त उसके उच्चतर अज्ञानसे सोये सभी। २४४ जो जैनमत संसार धर्माका सुभगसिर मौर था, इस धर्मका धारक न हो ऐसा न कोई ठौर था। वह हो रहा है संकुचित विधिकी कृपासे ही यहां, थोड़े यहां हैं वैश्य ही इस धर्मके पालक यहां। हमारी कायरता। रहना न चाहें हम कभी वंचित जगत आरामले, तब क्या भलाई कर सकेंगे हम किसीकी कामसे। यो हाय, नस नसमें हमारे क्रूर कायरता भरी, ओजस्विनी वह पूर्वजोंकी शक्ति हा, किसने हरी ? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Program २४६ हम तो कहानेके लिये अब ईशकी सन्तान हैं, सप्राण मुखमंडल सभीके शव सदृशक्योंम्लान है। यदि इन हमारी नाड़ियों में पूर्वजों का रक्त है, तो शुरता, गंभीरतासे क्यों हृदय यह रिक्त है। श्रीराम सोचो सह सके कब जानकी-अपमानको ? वे शान्त स्थिर थे हुये हरकर दशाननके प्राणको। भारी सभामें कौरवों ने कष्ट कृष्णाको दिया, होके दुखी तब पांडवों ने नष्ट उनको कर दिया। २४८ गुण्डे हमारी भगनियों की कर रहे घेइज्जती, इन पापियोंकी बढ़ रही देखो यहां दूनी गती। कुछ दंड उनको दे सकें इतना न तनमें जोर है, अपराध हीनाके प्रति अनरीति होती घोर है। २४४ अपने भवनमें नारियों को ही सतानेके लिये, संग्राम वीरोंसे अधिक उद्दीत होते हैं हिये । हा, देखते लोचन अभागे नारियों की दुर्दशा, पंढ्त्व आकरके कहांसे इस तरह मनमें घसा । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ Poon हा! तोड़ते लुच्चे लफंगे देव-प्रतिमायें यहां, अवलोक करके दृश्य भीषण भीरूता छोड़ी कहां। इसका नमूना देखिये बहु दूर तो कुड़ची नहीं, जाने हमारा भार कैसे मह रही है यह मही ? २५१ होता हमारे उत्सवों पर घोर पत्थरपात है, क्या वह सहारनपुर-कहानी आपको अज्ञात है ? नर-राक्षसोंने गेहिनीका शील धन कैसे हरा, अङ्कित रहेगी चित्तमें घटना हुई जो गोधरा । रोकी गई रथ-यात्रायें विश्वमें किसकी कहो, . उत्तर मिलेगा सर्वदा इन जैनियोंकी ही अहो । सम्मुख बयाना कांड है हा! और शिवहारा यहाँ, अपमान जैनों का जगतमें आज होता है महा। २५३ चुपचाप बैठे देख लो खाकर तमाचा गालपर, हँसते जगतके लोग इस आश्चर्यकारी हालपर । हमने अहिंसा शब्दका अब अर्थ कायरपन किया, अपना हमींसे तो कभी जाता नहीं रक्षण किया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकोक्ति गुड़ गीला यथा वनिया रहे ढीला तथा, निज कार्यसे इस बातको हम कर रहे हैं सर्वथा । केवल तराजूमें हमारी आज सारी शक्ति है, उत्थानकी चिन्ता नहीं है सम्पदामें भक्ति है । होती नहीं अपनी वसूली भी पठानोंके बिना, षंढत्व वह वाकी रहा जिसकी न भी थी कल्पना । अब नामके ही हैं पुरुष हममें न कुछ पुरुषत्व है, संसारमें मनुजत्व विन निष्काम ही अस्तित्व है, तीर्थों के झगड़े। भगवान सम ही पूजते हैं भक्त तीर्थ स्थानको, पाया वहाँसे ईशने अनुपम सुखद निर्वाणको । उन तीर्थ क्षेत्रों में सदासुख शान्ति मिलती है बड़ी जाती विखर पल मात्रमें सम्पूर्ण पापोंकी लड़ी। अब तीर्थ क्षेत्रों के लिये बढ़ता सदा ही बैर है, करना पड़े उनके लिये अव कौंसिलों की सैर है । यह जाति हा,हा, विश्वमें शुभ शक्तियों से भ्रष्ट है, जो शक्ति कुछ अवशेष है उसका मिटाना इष्ट है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्जार-द्वयका देख लो क्या न्याय बन्दरने किया, आहार उनका दक्षतासे शीघ्र उसने हर लिया। लड़ते जहां घर दो मनुज होता वहां परका भला, जयचन्द्रके ही द्वषसे तो राज्य यवनों को मिला। सप्रीति हम तो धर्म साधन तक नहीं अब जानते, भूले अहिंसा तत्वको उसको न कुछ पहिचानते। २६३ जिसकाल सारे विश्वमें बढ़ती दिखाती एकता, उस काल हममें बढ़ रही है मूर्खता, अविवेकता। सबही दिगम्बर और श्वेताम्बर प्रभूके पुत्र हैं, क्यों बन रहे हैं आज वे ही तीर्थ कारण शत्रु हैं ? ये तीर्थ जगमें हैं सभीको तारनेके ही लिये, संग्राम क्षेत्र बना रहे नर मारनेके ही लिये। हाहा! निहत्थोंपर कठिन पड़ती पुलिसकी मार है, इस पामरोचित कार्यको जग दे रहा धिक्कार है। __मन्दिरोंका पूजन। यों हो रहा है दूर हमसे आज पूजा-पाठ सब, हा! बढ़ रहा देखो विलासों का नयाहीगाठ अव । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा करें भगवानकी इतना कहां अवकाश है, सत्कृत्यका प्रतिदिन यहांपर होरहा अतिहास है। २६६ सर्वेश-पूजनके लिये मिलते पुजारी भी यहां, वे शुद्ध पूजा बोल लें, है ज्ञान इतना भी कहाँ ? वे द्रव्य पा भरपूर भी कर्तव्यको कब पालते, अति सौख्यप्रद इस कार्यकी बेगारसी वे टालते। २६७ जो जानते तक हैं नहीं पूजन प्रयोजनको जरा, अन्त:करण जिनका सदा ही क्षुद्रभावों से भरा। तीर्थंकरों के नामतक पूरे जिन्हें आते नहीं, संसारमें जो दूसरा भी कार्य कर पाते नहीं। २६५ वे द्विज अपढ़ अब तो यहां बनते पुजारी सर्वथा, कैसे लिखे अब लेखनी इस दुर्दशाकी सब कथा? है और की तो बात क्या यह आरती आती नहीं, उनकी क्रियाओं को कहीं भी पूछने वाला नहीं। २६६ सुन्दर प्रसूनों से प्रभूकी मूर्ति ढंक देते यहाँ, सर्वाङ्गमें भगवानके केशर चढ़ा देते यहाँ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानों प्रभूको भी अभी संसार दुःख अवशेष है, उनकी अवस्थापर विचारों को बड़ा ही क्लेश है । २७० श्रीमान् लोगों ने सदनसे द्रव्य कुछ भिजवा दिया, धोके पुजारीने उसे सर्वेश-पूजन कर लिया । बैठे हुए अपने भवनमें पुण्य उनको मिल गया, जगकर्म सबशुभरूप होक्योंकि वहां श्रीकीदया। देव मन्दिरोंका हिसाव । देवालयोंके द्रव्यकी भी अव्यवस्था हो रही, जिसके निकट यह द्रव्य है यस पास उसहीके रही। जो बाप दादोंको दिया था द्रव्य उनके साथ है, क्यों दानका दें द्रव्य यों अब तो हमारा हाथ है। ૨૭૨ विश्वाससे जिसके यहाँ रुपया जमा जाते किये, प्रस्तुत पुनः होते नहीं वे शीघ्र देनेके लिये। देवालयोंका द्रव्य तो जगमें सदा भगवानका, दाता सभीका है वही,वावें न क्यों धनवानका । लक्ष्मी! - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके हृदयमें आजकल अतिशय अविद्या राज्य है, पीहर सुखों के सामने प्राणेश भी हा! त्याज्य है। वे पत्र पतिका पढ़ सकं इतना नहीं उनने पढ़ा, माता-पिताओंपर यहां अज्ञान भूत अहा! चढ़ा। इन बालिकाओं को पढ़ाकर क्या कराना नौकरी, विद्या पड़े विन पालिका जाती नहीं भूखों मरी। यह तो पराई वस्तु है इससे हमें क्या काम है, थोड़े दिनों के ही लिये इसका यहां यह धाम है। २८७ करके सुताका व्याह हम निश्चिन्त नित होते अहा! पर बालिकाके नामपर परिजन सभी रोते अहा ! गृह कार्य करना भी उन्हें अच्छी तरह आता नहीं, हृदयेश भी पाकर उन्हें आरामको पाता नहीं । २८८ निज गुरुजनों की तो विनय उनके हृदयसे दूर है, यस! मूर्खता, अज्ञानता, अविवेकता भरपूर है। निज सासको देना विकट उत्तर नहीं वे भूलती, वे जान करके ही हृदयमें वाक्य-भाला हूलतीं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्राणेशको देना नहीं वे जानती हैं सान्त्वना, पूरी न कर सकती कभी उनके हृदयकी भावना। प्रत्येक बातों पर उन्हें आला बड़ा ही रूटना, अपराध करने पर सुत्तों को खूब ही तो पीटना। २६० छोड़ें न अपनी हठ प्रबल आजाय परमेश्वर कहीं, निज पूज्य पुरुषों का तनिक उनके हृदयमें डर नहीं। कर बैठती हैं रोषवश दो चार दिनकी लंघनें, आहार सुन्दर छोड़ करके वे चबायेंगी चनें । २६१ जाने वला उनकी सभी प्रिय पति मरे अथवा जिये, प्राणेशके भी कष्टमें रहते मुदित उनके हिये। पहिली सरीसी देवियों का अब न इनमें भाव है, हा, पड़ रहा है जन्नसे ही आज अन्य स्वभाव है। २६२ समुचित न कर सकतींकभी पालन निजी सन्तानका, अब ध्यान भी उनको नहीं है मान या अपमानका। आके जगतकी भीरुता उनके हृदय में उस गई, गृहदेवियोंसे रम्य भवनोंमें कलह ही बस गई। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सुकुमारता । देखो अकेली वे कभी गृहसे निकल सकती नहीं. मोटर तथा तांगे बिना दो पांव चल सकती नहीं, । उनके भवनके काम सारे दास या दासी करें, वे काम कर सकतीं नहीं पतिदेव तक पानी भरें। २६४ द्विजराज सेवक हैं भवन- भोजन बनानेके लिये, दो चार सुन्दर दासियाँ हैं तन सजानेके लिये । पनिदेव सेवाके लिये उनके न कोमल हाथ हैं, श्रीमान् सतियों के यहां बस दास सम ही नाथ हैं। २६५ है कौन ऐसा काम जो इनको नहीं निज-कामिनी आदेश पानेके लिये उनके सुपुत्रों को यहापर धायगण ही ये फैशनोंमें लीन हैं सुतपर न दृष्टी पुत्राभिलाषा । करना पड़े, रहते खड़े । पालतीं, डालतीं । पुत्राभिलापासे यहांकी नारियां करती न क्या ? सादर कुदेवों के चरणमें शीश निज धरतीं न क्या । विज्ञापनों की कौनसी शुभ औषधी इनसे बचे, सुतहेत जगका नित्य अनि दुष्कृत्य भी इनको रुचे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Poot जो नारियां जितना बड़ा धंघट सदैव निकालती, उतना अधिक प्राणेश प्रति कर्तव्य अपना पालतीं। इस राक्षसी पर्दा-प्रथासे आत्म बल जाता रहा. हममें नहीं जबबल अहो, तोनारियोंमें हो कहां। चलती हुई वे मार्गमें खाती अनेकों ठोकरें, समथल न होनेसे कहीं वे हाय, ओंधे मुख गिरें। खसता सरस अंचल कहीं पड़ता अहो, नूपुर कहीं, उन बन्द नयनों से निकटकी वस्तुलख सकतीनहीं। सोला (शोध) हे पाठको, सुन लीजिये सोला प्रथाको भी कहा, सुनकर यही कहना पड़ेगा यह प्रथा बिल्कुल वृथा । अति शुद्धताके हेत ही सोला यहां जाता किया, पर शुद्धतापर तो सदाही ध्यान कम जाता दिया। मैलीकुचैली धोतियोंको अन्य यदि छ ले कहीं, तव तो रसोईके जरा भी कामकी रहती नहीं। भोजन-भवनकी धोतियोंमें मैल रहता है छवा, सोला बिना पर छुन सकती वे रसोईका तवा। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ ३१३ वे वन गीला पहिर करके काम कर सकती सभी, पर साफ धोतीको नहीं वे पहिर सकती हैं कभी। अह, पोंछती जाती उसी में हाथ आटा दालके, आया तथा घी लिप्त धुतिया काम आतीकालश्के। ३१४ हां,यदि अधिक उनसे कहो उत्तर यही देंगी हमें. हम नारियोंके काममें क्या बोलकर करना तुम्हें ! तुम भृष्ट हो छूते फिरो सब जातिको बाजारमें, यो चल नहीं सकती तुम्हारी भृष्टता आहारमें। तुम क्या मुझे समझा रहे हो शुद्धता मैं छोड़ दूं, आके तुम्हारे बातमें तोला प्रथा क्या तोड़ दूं। अपवित्र यह आहार अब मुझसे नखाया जायगा, बाजार में भी बीसियों २का भात तुमको भायगा। गृहिणी और गहने। होवे न रहनेके लिये चाहे निकट में झोंपड़ी, पर देवियोंको तो सदा आभूषणों की ही पड़ी। १ दूसरा दिन। २ यासा, अथवा होटल। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आभूषणों को ही अहो, वे आज भूषण मानतीं, हा, खेद है वे देवियां गुणसेन सजना जानती। नित चाहिये पगमे यहां तोड़े बड़े प्रिय पैजना, सूना दिखाता पांव तो भी पायजेवों के बिना । पतली कमरमें हो न जबतक सौ रुपेभर करधनी, रूठी रहे तबतक भवन में प्राण प्यारी भामिनी। ३१८ इन नारियों का आजकल तो मण्डनोंमें मान है, अपने सदनकी आयपर जाता न इनका ध्यान है। होंगे भवन भूषण अमित तो भी सदा ललचायेंगी. आभूषणों के हेत पतिसे नित्य कलह मचायेंगी। विधवाओंकी दुर्दशा। जबहत हृदय करता कभी वैधव्य दुखकी कल्पना, तब तोरहा जाता नहीं उससे कभी रोये विना । हा ! बाल अथवा वृद्ध लग्नों का यहांपर जोर है, अतएव विधवावृन्दका भी आतरव घनघोर है। पाषाण भी इनकी व्यथाको देखकर रोते अहो, तनधारियोंका चित्त क्या फिर दुःखसे व्याकुल न हो Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ३३२ जो कोकिलासे भी मधुरवाणी सुखद नित बोलती, जो कर्ण पुटमें प्रेमसे पीयूष मानों घोलती । मृदु- फूलकी माला सदृश कोमल मनोहर देह है, सर्वाङ्ग सुन्दरता भरा लावण्यताका गेह है । पुरुषोंकी मान्यता । साधन समझते हैं स्त्रियोंको निज विषयकी पूर्तिका, अपमान करते इस तरह हम देवियों की मूर्तिका । अब तो समझते हम उन्हें अपनी पुरानी जूतिय, पर देव हमको मानती हैं आज भी वे देवियां । हमारी भूल । जो हैं अशिक्षित नारियां इसमें हमारी भूल है, परिवार ही सारा यहांका ज्ञानके प्रतिकूल है । हम दोष दें किसको अधिक नहिं दैवकी हमपर कृपा, निज वालिकाओंके पढ़ानेमें हमें आती नपा १ । जैन समाज | हा, आज जैन समाज जगमें शव सहशही जी रहा, पीयूष तज करके सुखद अज्ञान धारा पी रहा। १ कजा । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन भेद हा, हा, पड़ रहा है आजकल दूना यहाँ, हा, हो रहा नन्दन विपिनही तो सुखद सूना यहां। अन्ध श्रद्धा। इस अन्ध श्रद्धाका ठिकाना भी हमारा है कहीं ? अपना हिताहित सोचलें इतनी रही मति भी नहीं। परिणामको ही सोच पूर्वज कार्य करते थे बड़े, पर हम यहांपर रूढ़ियों के बन गये पालक कड़े। अनमेल विवाह । विल्ली सदृश छोटी बहू बर-राज वृद्ध क्रमेल १ हैं, इस आधुनिक संसारको पाणि ग्रहण तो खेल है। परयोग्य गुणशुभहोंन हों,पर रिद्धि सिद्धि समृद्ध हो कन्या उसे मिलती भले वह सौ घरसका वृद्ध हो। कन्या-विक्रय । ऐसे नराधम भी यहां हैं वेचते जो बालिका, उस द्रव्यसे भरते सतत जो गर्त अपने पेटका । निज बालिकाका मूल्य ले कितने दिवसनर खायगा, अघके उदयसे नष्ट धनके साथ तन हो जायगा। १ऊंट। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तान विक्रता प्रथम उसके लिये देखें कुआ, क्या बालिकाका जन्म विक्रयके लिये भूपर हुआ। सन्तान विक्रता लनुज संसार भरमें नीच है, वह निद यी,राक्षस, नराधम, पाप रूपी कीच है। ३४० सम्पत्ति लिप्सासे सुताको जो मनुज दे वृद्धको, कोढ़ी,अपाहिज,नीच,लले दुर्गणी अतिऋद्धरको । इस लोकमें प्रत्यक्ष ही परिणाम मिलता है उन्हें, मरकर यहांसे शीघही यमधाम मिलता है उन्हें। बाल-विवाह। कैसा भयंकर देखिये यह आज पाल विवाह है, सन्तानको झट भस्म करनेके लिये यह दाह है। हम अर्धविकसित पुष्पकोहोकर अतिशय तोड़ते. असहाय एक गरीषपर क्यों भार जगका छोड़ते। १ फन्यां यच्छति वृद्धाय, नीचाय धन लिम्सया। कुरूपाय, मुगोलाय, समेतो जायते नरः ।। ( महात्मा स्कन्द) --सम्पत्ति वाला। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ Bagrane ३४२ पत्नी पतिके भावो भी जो समझ सकते नहीं, निर्दोष के बालक वधू युत देख लीजेगा यहीं । अल्पायुमें ही लोकसे अति रूग्ण हो होते विदा, आजन्म उनके नामको रोती रहे नारी तदा । वृद्ध-विवाह | । सब हो गये हैं केश काले शुभ्र सुन्दर तूलसे, पाणिग्रहणका नाम सुन वे वृद्ध फूलें फूलसे । बहु वीर्यवर्द्धक औषधि खाकर बनेंगे पुष्ट हा, सम्पत्तिके ही जोरपर पूरा करेंगे इष्ट हा । ३४४ सुकुमार कोमल बालिका अति यातना पावे कड़ी, पर वृद्ध पुरुषोको सदा ही निज प्रयोजनकी पड़ी। रहते हुये भी नातियों के व्याह के अपना करें, संशय रहित a नीच नित भण्डार पापों से भरें। ३४५ कहते हुए आती न लज्जा तन हुआ बूढ़ा सही, ar भांति कोमल चित्त अबतक तो हुआ बूढ़ा नहीं। हा छीन लेते द्रव्यके बलपर युवक अधिकारको, बतला रहे हैं सूर्खता अपनी सकल संसारको । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० - तेरइ ( मृतक भोज ) हा, एक ओर विलोकिये परिवारके जन से रहे, खाके वहीं मोदक मुदित हा! हाथ कोई धो रहे । इससे मृतक या गेह मालिकको मिली क्या सान्त्वना, केवल दुराशा मात्र है इससे प्रणयकी कल्पना | ३४७ ऐसे जिमानेसे कभी होता प्रगट क्या नेह है, हां, मित्रता भी अहो, पड़ता प्रबल सन्देह है । किस शास्त्रमें इसकी कथा यह कौनसा सत्कर्म है, भारी हमारी भूलसे अनरीति आज सुधर्म है । अन्तिम दान | जब द्रव्यको वे बांधकर ले जा न सकते साथमें, अन्तिम समय कुछ दान दे तब पुण्य लेते हाथमें । रहते हुये जीवन कभी देना न जाना दानको, वे नित्य अपनाते रहे अभिमानको अज्ञानको । देखा देखी । अब अनुकरण प्रिय हो रहे हैं हम अधिकतरही यहां, बस दुर्गुणों को सीखते सीखें न सुगुणों को यहाँ । भरपूर करते खर्च हम पाई बचायेंगे नहीं, प्रत्येक उत्सव मुदित गणिका नचायेंगे सही । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ "00000 अपव्यय। देखो अपव्ययका यहांपर रोग कैसा है अहा, धन तुच्छ कामोमें सदा पानी सहश जाता पहा । सौकी जगह हम चार सौ भी खर्च करते हैं वृथा, सत्कर्ममें तो द्रव्य देनेकी न करते हैं कथा । क्यों दूसरों से व्यर्थ व्यय थोड़ा यहां जावे किया, जैसे उसे प्रभुने दिया वैसे हम भी तो दिया । यदि त्रुटि शोभा वहां थी तोयहां होगी नहीं, घस नामहित निज गेह भी सानन्द वेचेंगे सही। मात्सर्य। 'अब तो हृदयमें ठसकरके भर लिया मात्सर्य है, होता कहाँ हमको सहन परका विपुल ऐश्वर्य है। तत्पर सदा रहते अहो ! परको गिरानेके लिये, हैं दक्ष सब ही द्वषको दूना करानेके लिये। स्वच्छन्दता। प्रतिदिन प्रगतिसे बढ़ रही है देख लो स्वच्छन्दता, हम धार्मिक सत्कार्योंको कह रहे हैं अन्धता। कहते पुराणोंको गपोड़े बात कितने शोककी, करते अवज्ञा ईशकी नहिं भीति है परलोककी। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ३५८ सबकी चली थी लेखनी नित शास्त्र के अनुकूल ही, पर आधुनिक लिख्खाड़ लिखते शास्त्र के प्रतिकूल ही कहते भला क्या नष्ट कर दे चित्तकी स्वाधीनता, हंसता सकल संसार अब अवलोक ज्ञान विहीनता । नशेबाजी । यो देखिये सर्वत्र घीड़ी आजकल आहारमें बाजार में, दूकान में दही घरोंमें भी कहीं बैठे निकालेंगे धुआं, तन सर्व रोग निवारिणी संचार बीड़ीका हुआ । ३५६ उन साहवों को देख करके चाय हम पीने लगे, आहारको तजकर अहो ! ऊपर अधिक जीने लगे । होता न कोई काम अब तो हाय ! लिप्टनही पिये. उनके सहारे आज हमसे काम जाते हैं किये । साहित्यकी अवनति । हम उच्च ग्रन्थों का कभी अध्ययन करते नहीं, सिद्धान्त अपने दूसरों के सामने धरते नहीं । अब तो हमारा ज्ञान साग ही परीक्षामें रहा. देखो परीक्षा याद वह फिर ग्रन्थ भाता है कहाँ ? संसार में, आगार में । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ HEAL भक्ति। हैं दूर ही तो आज हम अपने सदाके कृत्यसे, हम कौनसा सत्कर्म करते हैं जगतमें चित्तसे । प्रत्येक नरकी आजकल दुर्लक्ष्यमें अनुरक्ति है, निज ध्येयप्रति श्रद्धा नहींप्रभुमें कहाँ सद्भक्ति है? ३५६ पढ़ते सदा ही जोरसे हम तो प्रभुके संस्वतन, फिर भी नहीं विध्वंस होता है हमारा भवविपिन । सिरके पटकनेसे कभी होता नहीं कल्याण है, सद्भक्ति भावों से सदा होता प्रगट भगवान है । देखा जगत्पति मूर्तिको उपदेश भी बहुधा सुना, क्या कार्यवह उपदेश करताभक्ति भावोंके विना। भावों बिना होती नहीं है फलवती जगमें क्रिया, प्रभुभक्ति भी तोबन रही है अब दिखाक्टकी क्रिया। १ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि । नूनं न चेतसि मयाविधृतोसि भक्या ।। जातोऽस्मितेन जगवांधव । दुःखपात्र । यस्मानिन्याः पतिफलंति न भावशून्याः॥ -श्रीसूरिसिद्धसेन दिवाकर । ॐ वर्तमान खण्ड समास १६१ - -- Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकता भूधरतान। होते हुये इतना सभी हममें अभी कुछ श्वास है. हम कर सकेंगे सर्व-उन्नति यह अटल विश्वास है। सबसे प्रथम हमको जगतमें एक होना चाहिये, अपने परायेका हृदयसे भाव खोना चाहिये। अति निष्कपट सच्चा सदा रहता जहांपर प्रेम है, सब सिद्धियों के साथ ही रहती वहाँपर क्षेम है । अतएव प्रणयी बन्धुओ। तुमप्रेमका प्याला पियो, आनन्दमें हो मग्ननित चिरकाल तक सुखसे जियो। संचित हुये तृण तुच्छ ही यों बांधते गजराजको. दृढ़ एकता करती अलंकृत विश्व बीच समाजको । यों डेढ़ चावलको पृथक् खिचड़ी सदापकती जहां, उन्नति विचारी घोलिये किस भांति रह सकतीवहां जीवन सगरमें प्रेमही जयको तुम्हें दिलवायगा, आता हुआ संकटविकट डरकर स्वयं टलजायगा। पशु-पक्षि भी होते विमोहित प्रेमके सम्बन्धसे, होता नहीं क्यामुग्ध मधुलिह१ भी सुमनकी गंधसे? - भ्रमर। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्य-खण्ड। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मनोकामना। फिरसे प्रभो! यह धर्म तक मध्याह्नका मार्तडर हो. तेरी दयासे लोकका दुख दूर सव पाखंड हो । अज्ञान-तमके गर्तमें जो शीघ्र उचासीन हो, दुष्कर्मले सब हीन हो सत्कर्ममें मनलीन हों। अवलोक करके अड़चनें साहस कभी हारें नहीं. उपकार करनेमें कभी आलश तनिक धारें नहीं। 'सत्वेषु मैत्री' भत्रका सप्रेम आराधन करें. निश्चिन्त ही निष्काम सब नित धर्मका साधन करें। पीड़ित जनों पर चित्तसे होवे विपुल सच्ची दया, अघ कृत्य करनेमें हमें आती सदा ही हो दया ! यो साश्रुहर्पित ही अलौकिक गुरुजनोंमें भक्ति हो, पर कष्ट मोचनके लिये प्रगटित हमारी भक्ति हो। आये हमारी सम्पदा शुभ कृत्य जगके दानमें. जिहा विकट तल्लीनहोप्रभुके विपुलगुणगानमें। २ सूर्य। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOct देखा करें प्रतिमा नयन अविराम ही भगवानकी, चिन्ता हृदयमें हो कभी तो वह स्वपर उत्थानकी । सुनकर कठिन अपशब्द दुर्जनके न मनमें क्षोभहो, निज धर्म रक्षाके लिये नहिं देह तकका लोभ हो । निर्मल हृदय हो शशि सदृश सादा हमारा वेश हो, अतिशीघ्र ही धन धान्यसे परिपूर्ण प्यारा देश हो। उत्तेजन। होने लगा है रम्य प्रातःकाल निद्राको तजो, दुर्गुण जगतके छोड़के अनुपम गुणोंसे अब सजो। मनसे बचनसे कायसे अब रूढ़ियोंको छोड़ दो, फैला हुआ है जाल चारों ओर उसको तोड़ दो। हे बन्धुओं जो पूर्वज थे आज तुम भी हो वही, ऐसा करो सत्कार्य जिससे शीघ्र अपनाये महो। आलस्य या मद मोहमें कबतक रहोगे तुम पड़े, अघ तो हमारी उन्नतीके अङ्ग सारे ही सड़े। संसारमें सन्मार्ग ही अत्यन्त दुर्गम है सदा, उस मार्गमें चलते हुये आती अनेकों आपदा। १२ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ "Rames श्रेयांसि बहु विघ्नानि यह पूर्वजों की नीति है, केवल अचल विश्वाससे मिलती सदाही जीत है। जबतक मनुज जनभीतिसे आगे कभी आता नहीं, तबतक न अपने रूपको कोई कहीं पाता नहीं। आदित्य यदि तमभीतिसे संसारमें प्रगटित नहो, तो एक क्षणभरके लिये भी सान्द्रतम२ विघटितनहो वे वीरवर सानन्द सष उपसर्ग यदि सहते नहीं, तो आजतक उनके यहांपर नाम भी रहते नहीं । सुख दुःखतो सबकेजगतमें अभूसमचंचल अहा, इनकी न चिन्ता है जिसे वह ही कहाता है महा। स्वाधीनता। चारों तरफअभिन्यास हो फिरसे सुखद स्वाधीनता, छिपती फिरे अब जंगलोंमें हीनता, दुर्दीनता । परतंत्र रहकर दूध रोटी भी किसीको इष्ट क्या ? परतंत्रतामें शूरवीरों को नहीं है कष्ट क्या ? १सूर्य । २ सयन। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ परतंत्र होकर स्वप्नमें चाहो न सिंहासन कभी, स्वाधीन सुखमय है जगतमें दीन जीवनसी सभी। स्वाधीनताके हेत हम चिरकाल वन वनमें फिरें, रहते हुए निज प्राण नहिं परतंत्रता स्वीकृत करें। जिसका सदा परके सहारे पेट जाता है भरा, जीता हुआ भी लोकमें वह नर कहाता है मरा। स्वाधीनता बिन आजकल हम तो कहाते श्वानसे, हा ! हाथ धो बैठे कभीके उच्चतर सन्मानसे । भविष्य । आशा सदा करते युवक संसारमें शु भविष्यकी, बातें किया करते पुराने लोग बीते दृश्यकी । अवलोकके भीषण दशा कर्तव्य पालेंगे नहीं, तो है अवश्य पतन निकट मनकोसभालेंगे नहीं। स्त्रीशिक्षा। जबतक न महिला-जाति अनुपम सद्गुणों सम्पन्नहो, कैसे वहां बलवान भी सन्नान तब उत्पन्न हो । सबसे प्रथम उनको यहां विदुषी बनाना चाहिये, निज अङ्गके अनुरूप ही उनको बनाना चाहिये। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० २० इस विश्व नभखगके सदा स्त्री-पुरुष दो पंख हैं, अपने सुरक्षित पंखसे उड़ते विहग निशङ्क हैं । गार्हस्थ- गाड़ी के अहो ! स्त्री पुरुष हैं दो चके, बस ! समचकोंसे ही सदा निर्विघ्न गाड़ी चल सके। २१ जैसे सतत उनके हृदयपर आपका अधिकार है, ठीक उसी भांति उनका आप पर अधिकार है। समो कभी मत नारियोंको निज भवनकीस्वामिनी, किन्तु उनको मानिये बस निज हृदय अधिकारिणी । २२ गृहिणी गृहम् हि उच्यते न तु काष्ठसंग्रहको कहीं, शिक्षित प्रिया बिन लेश भी सन्तानकी उन्नति नहीं, शिक्षित बनाना नारिको अत्यन्त आवश्यक सदा, हा ! मूर्ख नारीसे सदनमें क्लेश बढ़ता सर्वदा । २३ शिक्षित यहां पर एक दिन सम्पूर्ण नारि समाज था, जगधीच श्रेष्ठ समाज यह हम मानवोंका ताज था । था अर्द्ध सिंहासन सदा पतिदेवका उनके लिये, ही उन देवियोंसे थे अधिक जाते किये। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Domaddy हम आज अपने अङ्गको बेकार रखना चाहते, आखों बिनाही लोकके सब दृश्य लखना चाहते । अवलोक उनकी मूर्खता मनको व्यथा होगी नहीं ? कर कष्टसे पीड़ित मनुज, सर्वाङ्ग क्या रोगी नहीं ? यह प्राणदात्रि-समाज अब फिरसे बने विद्यावती, सर्वत्र ही संसारमें इनकी कथा हो गूंजती । अकलङ्कसे धर्मिष्ट नर उनसे सतत उत्पन्न हों, वे वीर हो, गम्भीर हों, रणधीर और प्रसन्न हों। २६ कर प्राप्त विदुषी पालिका प्रत्येक नर कृत्कृत्य हो, उन नारियोंसे भूमिमें भी स्वर्ग सुखका नृत्य हो । गृह स्वामिनीके साथही फिरसे यने मन-स्वामिनी, वे शील-तस्करके लिये होवें भयंकर दामिनी। करने लगें वे मंत्रियों का काम पतिके काममें, वे सौख्यकी सरिता बहा दें शीघू दोनों धाममें। हो एक मन केवल कथनकेही लिये दो गात्र हों, हृदयेश्वरीके प्रेमके सम्पूर्णतः नर पात्र हों। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ २८ सन्तान पैदाका न उनको यंत्र जग जाना करे, अन्याय अत्याचार कोई भी नहीं ठाना करे । फिर सोच लीजे आपही परिणाम जैसा आयगा, संसारका त्रयताप सब क्षणमात्रमें मिट जायगा । स्थिति पालक । पीते रहोगे आप कबतक हाय खारे नीरको, पीटा करोगे आप कबतक निन्यवक लकीरको । हा ! धर्मके ही नाम पर कैसे कराते पाप हो, सत्कर्म में भी अघ दिखाकर क्यों डराते आपहो । ३० लड़ने लड़ानेसे किसीको भी मिला आराम क्या ? यों ईंट गारेके बिना जगमें बना है धाम क्या ? पारिस्परिक के द्वेषसे मिलता किसीको सुख नहीं, द्वेषानिसे ही कौरवोंका अन्तका जगमें नहीं ? ३१ कर लो हृदय कोमल कि जिससे दूर सारी भ्रांति हो, ऐसा करो सत्कार्य जिससे लोक भरमें शांति हो । आचार्य कृत शुभग्रन्थ पढ़कर काममें लाते नहीं, उनकी किसीको गूढ़ बातें आप बतलाते नहीं । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ PROON वह सार्वभौमिकता कहां है आज प्यारे धर्मकी, हत्या करो मत भूल करके सद्धर्मके शुभ ममकी। नैया तुम्हारे हाथ है उसको डुबा दोगे कहीं, मुख भी दिखाने योग्य फिर जगमें रहोगे तुम नहीं। सिद्धान्तको करते प्रगट होता तुम्हें संकोच है, सोचो विचारोआपही वह अन्यवत् कव पोच है ? उत्साहसे उनको कहो क्यों तेजमें लाते नहीं, तुम पूर्वजोंकी नीतिको क्यों आज बिसराते सही। हे विज्ञ! तुम संसार भरमें शास्त्रके विद्वान हो, फिर क्यों न तुमको जातिके हितका अहितका ज्ञानहो इस द्वेष तरुवरपर सदा ऐसे विषम फल आयेंगे, जिसको तुम्हारे धर्म-भाई खा स्वयं मर जायेंगे। सुधारक। सुधरो स्वयं निज बन्धुओंको आप शीघ्र सुधार दो. अभिमान अत्याचारको तुम खोजके संहार दो। निज बन्धुओंसे ही कभी कल्याण लड़नेने नही. संसारमें कुछ लाभ तुमको व्यर्थ अड़नेमें नहीं। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ 4 लिखते किसीको आप गाली वे तुम्हें लिख डालते, इस भांति दोनों ही अहो कर्तव्य कब निज पालते । यह वर्ण अवसर व्यर्थही देखो चला जो जायगा, तब हाय पछताना हमारे हाथमें रह जायगा । રહ नहिं नष्ट करना चाहिये भगवानके आदेशको. अपने करोंसे नहिं चढ़ाना चाहिये निज क्लेशको । जनक न काला मुख मरोगे दुःख ढ़ाई स्वार्थका, ततक न तुम उपदेश दोगे लेश वस्तु यथार्थका । ३८ जिन डालपर बैठे हुए उस टालको फाटो नहीं, तुम नीर जिसका पी रहे उस कृपको पाटो नहीं । क्या धर्म निन्दासे तुम्हारी उन्नती होगी कभी. इस चानको भी आपने मनमें विभाग देश भी । ३६ दुष्कर्म में देने मुदित हो आज शात्र प्रमाण तुम, हमसे जगना कर सकोगे ले ज्याकरण तुम । सापक, दिन रात यो मम पाप अपने ली । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे बंधुओ मिलकर परस्पर काम करना सीखिये, फिर आपही निज कार्यके परिणामको तो देखिये। दुष्कर न कोई कार्य है यह संघ शक्ति है जहां, नित हाथ जोड़ें ऋद्धियां या सिद्धियां आतीवहाँ। साहस। कर्तव्य करनेके लिये बनना पड़ेगा साहसी, ' निज कार्य पूरा कर सकें हैं लोकमें कब आलसी। सच्चे पुरुष हैं आज हम यह कार्यसे बतलाइये, खोये हुए निज उच्च पदको शीघ्र फिरसे पाइये । पुरुषार्थ बिन देखो हमारा देव भी फलता नहीं, यों वायु बिन वह तुच्छ पत्ता भी कभी हिलता नहीं। विधिके भरोसेपर अहो कबतक रहोगे तुम पड़े, अपने पगों के जोरपर क्या अब न होगे तुम खड़े। सब दैवही देता हमें यह बात बस कायर कहें, नर-वीर जगमें सर्वदा पुरुषार्थ पर अविचल रहें। अच्छा बुरा ही कृत्य मानवका कहाता दैव है, परिणाम अपने कृत्यके अनुसार प्राप्त सदैव है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सत्य । यह सत्य ही जगमें रहेगा नित्य जीता जागता, मिथ्यात्वका काला बदन निजसत्य सन्मुख भागता । शुभ सत्यके ही जोरपर तो टिक रही है यह मही, उसकी विपुल महिमान हमसे आज जाती है कही । ४५ लोकोक्ति कितनी रम्य है नित सांचको भी आंच क्या, मणिमोल बिक सकता जगतमें एकदिन भी कांचक्या ? अवलोकते हैं नेत्र सन्मुख दृश्य प्रतिदिन सत्यके, फिर क्यों न परिवर्तित करोगे भाव अपने चित्तके । ४६ नित सत्यकी ही जीत होती पूर्वजोंका वाक्य है, सबसे प्रथम सब मानवोंको सत्यही आराध्य है । जिसके हृदय में सत्य है सुमहत्व भी रहता नहीं, हां, काटकी हांड़ी न दूजी बार चढ़ती है कहीं । नवयुवको । मुरदार जीवनमें तनिक अब शक्तिको संचारदो, मद. मोह मत्सरको हृदयसे शीघ्र अवसंहार दो । दिखलाइये ढीली नसोंनें भी अभी कुछ रक्त है, सच्चा, हृदय उन वीर प्रभुकी वीरताका भक्त है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ ४८ निजातिके विश्वासपर ही अध विजय पाना तुम्हें, मन्मार्ग सपसे प्रथम निशङ्क भी जाना तुम्हें । उपकार करनेके लिये ही जन्म जगतीमें हुआ, निज पेटभर करके कहो नहि कौन इस भूमें मुआ ? ४६ तुम किनके भय दिखानेसे न डरना चाहिये, वसोत्साह जगमें नित्य करना चाहिये । घोजी तुम्हारे मार्ग में रोड़ा तनिक अटकायेंगे, मे आप ही उन पत्थरोंमें दैववश गिर जायेंगे । ५० हुआ संध्या समय आवे कहीं, ना भूला कहाना है कहीं । मोपे नहीं कहलायेंगे, पा हुआ मय पायेंगे। 1 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्रगण। छात्रो तुम्हीं पर धर्मकी उन्नति सदा निर्भर रही, भूली नहीं उपकार अवतक भीतुम्हारा यह मही। होसाहसी अति स्वावलम्बी छात्रगण जिस देशमें, क्या नामको भी रह सकेगी मूर्खता उस देशमें । तुमहो हमारे देशकी अनुपम अतुल प्रिय सम्पदा, उत्थान अव तुमही करो आशा हमारी सर्वदा। निज शक्तियोंको पुष्ट करनेके लिये ये दिनमिले, कंचन-सदृश यदि दिन तुम्हारे व्यर्थही जावेचले। फिर हाथमें केवल तुम्हारे सोच ही रह जायगा, कर अंजुलीगत नीरगत जीवन सहज वह जायगा। होती नहीं संसारमं शिक्षा इति श्री भी कभी, कोई मनुज आकाशका भी पार क्या पाता कभी। की चनो मन पुस्तकोंक बुद्धिको विकसिन कगे, यो गिरियो लोभसे याद जीयन मन करो। संमारमें नपकाल ना लक्ष्य नित माँग हो, कोमल हृदय मर्यग्रही दुर्भाय वर्जित स्वन्ध हो। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Msa अभ्यास तुमको सद्गुणोंका शीघ्र करना चाहिये, सहपाठियोंका यनले सन्ताप हरना चाहिये। जिस ओर अपने चित्तको इस काल तुम ले जाओगे, घस इस अवस्थासे सफलता शीघ्र आगे पाओगे। जातिच्युत। होके हमारे बन्धु ही हमसे अलग तुम हो गये, होते नहीं हैं भाव क्या हममें न मिलनेके नये। अब आरहे हैं स्वच्छ दिन हममें पुनः मिलजाओगे, निर्भीक धार्मिक कृत्य शुभ सर्वन करने पोओगे। सद्धर्मपर अधिकार तो सबका सदैव समान है, जो विघ्न करते धर्ममें उनका बड़ा अज्ञान है। क्या पापियोंने धर्मको संसारमें पाला नहीं, उनका हृदय यो सर्वदा ही तो रहा कालानहीं। मुखिया । मुखियो। हमारी जातिके सोचो विचारो आपअब, निज बन्धुओं प्रतिभूल करके मत करोयो पाप अथ। यो स्वार्थ साधनके लिये उनकोन अब तुमन्त्रास दो, जिससे तुम्हारी जातिका प्रतिदिन अधिकतर हासहो Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखो ! तुम्हारे दण्डसे होता न कोई शुद्ध है. अन्यायसे होके दुखी होता सदा वह कुद्ध है। कहते किसे स्थितिकरण यह आज सर्वभुला दिया, वात्सल्यताका तो अनादर ही यहां जाता किया। है आज उपगृहन कहाँ निन्दा छिपानेके लिये, सब ही हुए हैं दक्ष हा ! दुर्गुण बतानेके लिये। नारद बने हैं ! आज मुखिया ही लड़ानेके लिये, विद्वष और अनीतिकी पुस्तक पढ़ानेके लिये। अब तो खड़े हो वेगसे सारी कुरीतोंको हनो, न्यायी सदाचारी तथा निष्कामपर सेवी बनो। रक्खो सजग जगमें सदा मुखियापनेकी लाजको, तुम जान करके मत गिराओ जाति और समाजको। सबही सुधरते जा रहे यदि आप सुधरोगे नहीं, थोड़े दिवसमें देख लेना नाम भी होंगे नहीं। इस विश्वके अनुसारही तुमको पलटना चाहिये, निमल आग्रहपर कभी तुमको न डटना चाहिये। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयह न समझो चित्तमें सन्मुख नहीं आदर्श है, . उन वीर पुरुषोंसे कभी खाली न भारतवर्ष है। उन पूर्वजोंसा वीर मिलना तो सदा दुसाध्य है, सुन्दर प्रसूना भावमें अब गंध ही आराध्य है। जो जिस विषयमें नर यहांपर सर्वदा असमान्य है, इस लोकको वह उस विषय में सर्वदाही मान्य है। संमृति-जनों में सर्वदा गुण दोष दोनों हों सही, गुण विज्ञजन करते ग्रहण लवलेश दोषोंको नहीं। श्रीशान्तिसागरसे विपुल अब भी तपखी है यहां, श्रीमान् चम्पतरायसे उत्तम मनस्वी हैं यहां । पंडित गणेशीलाल न्यायाचार्य सेवक आज हैं, साहित्य-रत्न सदृश अहो निर्भीक लेखक आज हैं। श्रीदेवकीनन्दन सदृश विद्वान टीकाकार हैं, प्राचीन ग्रन्थोंका सहज ही कर रहे उद्धार हैं। विद्वान् हैं सिद्धान्तके श्रीमान माणिकचन्दसे, है दानके दाता यहां पर सेठ हुकमीचन्दसे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ટ जिनकी कलमसे गूढ नेकों ग्रन्थ अनुवादित हुए, तत्त्वार्थ वार्तिक और गोम्मटसार संपादित हुए । उन न्यायतीर्थ विशेष ज्ञानी श्रीगजाघरलालका, उपकार शुभ क्योंकर भुलाया जाय उन्नत भालका । विधवा सम्वोधन । बहिनो ! तुम्हें निज चित्तमें व्याकुल न होना चाहिये. प्राणेश स्मृति कर नई दुखसे न रोना चाहिये । परिणाम यह तुमको मिला है पूर्वके दुष्कर्मका, अब तो जरा पालन करो निश्चिन्त हो निज धर्मका । ७० है धर्म ही सबका सहायक सर्वदा दुख शोकमें, इन प्राणियोंके साथ भी जाता यही परलोकमें । जितने जगतमें जीव हैं यह धर्म उनका मित्र है, होता इससे जीव पापी भी सदैव पवित्र है । बहानेसे अधिक नी नहीं सनी था. करना सर्वा ही था। 왕 अद्भुत तुम्हारी श्रीनाका यह परीक्षा काल है, विकी कृपासे हो तुम्हारा रिक्त सहसा भाल है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६३ agar Ka प्रत्यूष-संध्याकाल सम सुख-दुख हुआ करते यहां, अप्राकृतिक सुख दुःखमें हर्षित मुदित होना कहां । सप्रेम उत्साहित सदा गृह कार्यमें तुम रत रहो, चिन्ता - चिता में व्यर्थ ही कोमल न इस तनको दहो । ७३ शोभा नहीं कुछ भी तुम्हारी व्यर्थके शृङ्गारमें, कोई नहीं अब तो रिझानेके लिये संसारमें । दुर्वासनाका दास हो रहना किसीको इष्ट कब, यस ! चाहिये सहना सदा वैधव्यका अति कष्ट अब । ७४ शुद्धाचरणमें ही तुम्हारा भगनियो ! कल्याण है, सचमुच अनाथोंका यहां पर नाथ वह भगवान् है । निर्भीक हो तुम तो हृदयसे लोक सेवा आदरो, उन्मार्ग में तुम भूल करके भी कभी मत पग धरो । ७५ उन्मार्ग में चलकर किसीको क्या जगतमें सुख मिला, गों अग्रिक संसर्गसे पोलो न किसका तन जला । मन्मार्गमें चलकर मनुज पाता सदा ही शान्ति है, सब शक्तियों के साथ ही यढ़ती हृदयकी कान्ति है। ' Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREE यह तो सभी ही जानते हैं विश्वमें दुख घोर है, पर दुःख सहनेके लिये भी चित्त वन कठोर है। जिस भांति अतिहँसते हुये जग-सौख्यको भोगा यहां उस भांति अघतोदुःखको भी चाहिये सहना यहां। तुम शीलके तस्कर-बदन पर दो तमाचा खींचके, जो जा वसे यमलोकमें अपने दृगों को मींचके। कर गुप्त पापों को बढ़ाओ मत कभी भूभारको, अन्तः करण मजबूत है दिखलाइये संसारको । ७८ क्या सौख्य मिलता है मनुजको तीब्र विषयाशक्तिसे, धोनान पड़ता हाथ उनको क्या अलौकिक शक्तिसे। सोचो विचारो आप ही जगकी दुखद दुर्वासना, त्रैलोक्यतीनों कालमें भी है न सुखकी साधना। वह नर नहीं है देव है इस लोकका आराध्य है, जिसका यहांपर सर्वदा परमार्थ-सुख ही साध्य है? निजधर्म साधनही तुम्हारारहगया अब कार्य है, माता-पितासे भी तुम्हारा कष्ट यह अनिवार्य है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ अब मानसे अपमानसे खेदित न होना चाहिये, यो व्यर्थ बातोंमें न अपना काल खोना चाहिये। अवसर मिला अतएव अब तो धर्मका साधन करो, पाई हुई पर्यायको शुभ कृत्य कर पावन करो। व्यर्थ-जीवन । जो है न विद्यावान नर धर्मी नहीं दानी नहीं, सत्कर्मका कर्ता नहीं गुणवान भी ज्ञानी नहीं। वह नर सदा संसारमें बस ! भूमिका ही भार है, नर रूपमें प्रगटित हुआ सुगका विकट अवतार है। शुभ शक्तिके रहते हुए उपकार नहिं जिसने किया, होते हुए भी सम्पदा नहिं दान दीनोंको दिया। सुन आतवाणी वन्धुकी जिसका नहीं पिघला हिया, सेवा न की यदि लोककी तो व्यर्थ वह जगमें जिया मैं कौन हूं ? गुण कौन मेरे और क्या अब प्राप्त है। किस कार्यहित मानव हुआमैं कौन मचा आप्त है, १ येषाम् न विद्या न तपो न दानम, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ते मृत्यु लोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ है विश्व सेवा वस्तु क्या जिसने विचार किया नहीं, होके मनुज भीलोकमें वह हाय हाय ! जिया नहीं। आहार या आराम ही जिसको सदा अतिइष्ट है, गौरव स्वयं ही हाथसे करता अहो वह नष्ट है। आये यहां जैसे अहो वैसे चले वे जायंगे, अपकीर्तिकी ही पोटरी निज शीशपर ले जायंगे। त्यागियो। यह वेश धरकरके तनिक उपकार निज परका करो, उपदेश देकर जातिकी अज्ञानताको तुम हरो। सर्मकी महिमा कृपाकर आप अब बतलाइये, सन्मार्ग विमुखोंको सहज सन्मार्ग में भी लाइये। अव नाम त्यागी हो न केवल भाव त्यागी हुजिये, निज साधुतासे शीघ्र ही कल्याण जगका कीजिये। जिस जातिका खाते जरा उस जातिकी रक्षा करो, यदि यह नहीं स्वीकारतो अपनी प्रथक मिक्षा करो। धर्म-धन। जय धर्ममें आसक्त थी सम्पूर्ण यह भारत मही. दुग्ध शोक कोई भूल करके भी न पाता था कभी। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ सत्कर्मको हम छोड़कर दुष्कर्ममें जथ पड़ गये, दुष्कर्मके ही गर्तमें तव अङ्ग सारे सड़ गये। आदेश। संसारमें आके तुम्हें सत्कर्म करना चाहिये, परकी व्यथा सप्रेम सादर शीघ्र हरना चाहिये। यह शुभ अशुभही कर्म तो रहता सदा है साथमें, परलोकमें जाता यही जाता न कुछ भी साथ में । प्रार्थना भगवान आदिनाथ। हेआदिप्रभुकरुणाकरो! करुणाकरो करुणाकरो! भववेदना सत्वर हमारी नाथ अघ आके हरो। सर्वाङ्ग अतिशय जल रहा है घोर भवआतापसे, तुम हो दयालू इसलिये करते विनय हम आपसे। श्री अजितनाथ । जो नर हृदय में आपके सद्गुण तनिक धारण करे, कलिमल उसे अवलोक करके दूरसे अतिशयडरे। प्रभु आपकी दिव्यध्वनी करती जगन भरको सुखी, करके श्रवण घनगर्जना होतान क्या केकी सुखी। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीसंभवनाथ । सुख प्राप्ति आशासे प्रभो ! मैं तो यहां फिरतारहा, बस ! ठोकरें खा पापकी दुख कूपमें गिरता रहा। करके कृपा अव लीजिये यह हाथ अपने हाथमें, यों छोड़कर तुमको कहो किसको बनाऊ नाथ मैं। __ श्रीअभिनन्दन । हे नाथ ! अभिनन्दन यही है कामना मेरी सदा, तुममें रहे अविचल अटल सद्भक्ति मेरी सर्वदा। जिसके हृदयमें आप होउनको न दुख होता कहीं, आदित्यके सन्मुख अंधेरा ठहर सकता ही नहीं। र सुमतिनाथ । जीता प्रभो तुमने सहज मदमोह काम क्रोधको, देते रहे संतप्त जनको आप ही सद्बोधको । हेसुमतिनाथ! जिनेन्द्र अव सबुद्धिदो!सद्धिदो! कर्तव्यनिष्ठा बल सुसाहसमें हमें तुम वृद्धिदो। श्रीपद्मप्रभु। हे आर्य : पद्मप्रभ ! जगतमें आप सर्वोत्तम सदा. लक्ष्मी अहो रहती तुम्हारे पाद-पंकजम सदा । मैं वन्दना करता तुम्हारी सर्वदा त्रययोगसे, अब मुक्तकर दीजे हमें हे नाथ ! ऐहिक रोगसे । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ 00000 हे नाथ! कहते हैं सभी ही धर्मकी प्रतिमा तुम्हें, हम सोचते मिलती नहीं जो आज दें उपमा तुम्हें। है, है, दयासिन्धो, कठिन हम यातना पाते यहाँ, उद्धार करनेके लिये स्वामी न क्यों आते यहाँ ? श्रीशान्तिनाथ। हे शान्तिनाथ,जिनेन्द्र तव अन्तःकरणमें शांतिथी, परपौद्गलिक इस देहमें भी तोअलौकिक कांतिथी। होते न थे दृगतृस जनके रूपको अवलोकके, प्रभु आपसे सुन्दर कहां थे सुर अहो । सुरलोकके । सबत्याग दीनी-सम्पदा फिर भी अतुल ऐश्वर्यथा, अवलोक करके दृश्य यह सबको बड़ा आश्चर्य था। त्रिपुरेश ! तुमतो बाह्य-अभ्यन्तर विभूतीयुक्त थे, आश्चर्य होता था यही तुम वस्नसे भी मुक्त थे। श्रीकुन्थुनाथ। हो! चक्रवर्ती आपने निर्भीक निज शासन किया, निज पुत्र सम सारी प्रजाको प्रेमसे पालन किया। नश्वर समझ कर राज्य वैभव प्रेमसे तुमने तजा, प्रस्तुत हुये उत्साहसे तब कर्मको देने सजा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ११५ जिस भांति पहले राज्य में विध्वंस रिपुओंका किया, अब कर्म रिपुओंका हृदयसे नाश वैसे ही किया । करते हुये भी कृत्य यह उनमें न राग द्वेष था, ममता न थी, चिन्ता न थी, नहिं कोप भी तो लेश था। श्रीचरनाथ । अरनाथ ! आप सदैव ही इस विश्वके नेता रहे, निज शक्तिसे ही लोकके मिथ्यात्वके जेता रहे । बस! आपका ही सर्वथा निज पर प्रकाशक ज्ञान था, तप राशि तेज निधान महिमाधान तू भगवान् हैं । ११७ नहिं खेद कुछ मनमें हुआ खर्गीय सुखको छोड़ते, सहजा ललित ललनाङ्गनाओ से बदनको मोड़ते । भवभोगको सुख मानता, समझे न वस्तु स्वरूपको, विष मानता नर भोगको जब जानता निज रूपको। श्रीमल्लिनाथ । हे मल्लिनाथ ! जिनेन्द्र जो करता तुम्हारी बन्दना, करना न पड़ता फिर उसे ऐहिक दुखों का सामना | प्रभु आपकी दिव्य ध्वनि पड़ जाय कानो में कहीं, मद, मोह, मत्सर चित्तमें पलमात्र रह सकते नहीं । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6000 निज वीरतासे मोहकी सष सैन्य दी तूने भगा, कल्याण करनेके लिये निशिदिन रहाप्रभुवर जगा। गुण सिन्ध,जगवान्धव,अकारण सर्वदा निष्पाप है, कृत्कृत्य जगसे हो चुके बाकी न कार्य कलाप है। श्रीमुनिसुव्रतनाथ। प्रभु! आपका यश फैलता है आज भी संसारमें, होती नहीं है कौन सी शुभ शक्ति भी उपकारमें। निज नाथ माना था जगतके पूज्य मुनियोंने तुम्हें, तबसे जगत कहने लगा अनगारका नायक तुम्हें। अविचल,अवाधित,जग दिवाकर आपही अम्लान हो, हो तत्त्वरूप, दयानिकेतन आप सर्व प्रमाण हो। चिन्तामणी चिन्मय तुम्हीं चारित्रके आगार हो, हो कष्टके हर्ता तुम्ही ही सर्वदा अविकार हो। श्रीनमिनाथ। नमिनाथ! निर्मल आपकी वाणी सदानिर्दोष है, तेरा हृदय ही लोकमें अनुपम गुणोंका कोष है। अपरागता प्रतिमा तुम्हारी ही स्वयं करता प्रगट, निर्भीक होक्योंकि नहीं है शस्त्रभीत्तय सन्निकट। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ गुणगान सुनकरके किसीसे तुम मुदित होते नहीं, निजवाच्यतासे भी कभी तुमतो दुखित होते नहीं। इन कर्म रिपुओं ने प्रभो स्वातंत्र्य मेरा हर लिया, रक्षा करो! रक्षा करो। इनसे अहित जाता किया। श्रीनमिनाथ । हे नेमिनाथ, पवित्र तुम सम्पूर्ण गर्व विहीन हो, संसारको सद्बोध देनेमें अतीव प्रवीन हो। अब तो तुम्हारी ओर ही यह झुक रहा अन्तःकरण, लाके दया अपने हृदयमें मेटियेगा भव-भ्रमण । १२५ जिससे न जगमें घूमना हो युक्ति वह पतलाइये, यह मोहका पर्दा हमारा आप शीघ्र हटाइये । होते हुये भी नेत्रके हम आज अन्धे बन रहे, सन्मार्गको हम छोड़कर उन्मार्ग हीमें चल रहे । श्रीपार्श्वनाथ । जिस शक्तिसे दैत्येन्द्रका उपसर्ग प्रभु तुमने सहा, फरफे दया यह शक्ति कुछ भी दीजिये हमको अहा! यह विश्वमें विख्यात है हम तो तुम्हारे दाम है, फिर भी अपार अनन्त भीपण साह रहे क्यों नास हैं? 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