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मिथ्यात्वको कब मानते थे हम किसी भी क्लेशसे कब पूजते थे हम कुदेवों को कुगुरुओं को अहा, सबके हृदयमें सत्यका ही ध्यान रहता था महा।
उपगृहन। निज धर्मकी निन्दा हमारे कान सुनते थे नहीं,
उत्तर हमी देना कभी भी चूक सकते थे नहीं। करना प्रगट अवगुण किसीका धर्म करता है मने,
करते रहो उपकार जगमें आपसे जितना बने । थे। एक दिन दो मुनि मन्दिरके दालानमें एक झरोखे ( गवाक्ष } के निकट बैठे हुये थे। कविवर उस बगीचे, और झरोखेके समीप खड़े हो गये। जब किसी मुनिकी दृष्टि उनकी ओर आती थी, तब वे अंगुली दिखाके उसे चिढ़ाते थे। वे भक्तजनोंकी ओर मुंह करके बोले, देखो तो वागमें कोई कूकर ऊधम मचा रहा है । लोगोंने देखकर मुनियोंसे कहा. महाराज! वहा और तो कोई नहीं था, हमारे यहाके सुप्रतिष्ठित पण्डित वनारसीदासजी थे, यह जानकर कि यह कोई विद्वान परीक्षक था, मुनियोंको चिन्ता हुई, और दो चार दिन रहकर वे अन्यत्र विहार कर गये। कहते हैं कि कविवर परीक्षा कर चुकतेपर फिर मुनियोंके दर्शनोंको नहीं गये।
(वनारसी विलास)