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दीक्षा तथा शिक्षा हमें देते सदा आचार्य थे,
वे विश्व भरके सद्गुणों से सर्वथा ही आर्य थे। दुखसे बचाते थे हमें उपदेश दे आदेशसे,
कहते न थे निष्ठुर बचन वे तो किसीसे द्वेषसे। वे मोहके वशवत्ति होकरते न थे लौकिक क्रिया,
सन्मार्ग-पर्वतसे कभी भी च्युतन होता था हिया। सेवा न अपनी दूसरों से वे कराना चाहते,
वे शत्रुकी निन्दा न करते, मित्रको न सराहते। है वृत्ति-भिक्षाकी तथापि वे न करते याचना,
देवेशके साम्राज्यकी भी है न मनमें कामना । विधिसहित यदि लोकने मुनिराज पड़गाहन किया,
तृष्णा-रहित होके खड़े आहार किंचित् ले लिया। वह भी लिया निज हाथमें यदि दोषकुछ आया कहीं, उपवास करनेसे हृदय उनका न अकुलाया कहीं।
उपाध्याय। पढ़ना, पढ़ाना शिष्यको ही मुख्य जिनका काम है, निग्रन्थ जो मुनितुल्य हैं पाठक उन्हींका नाम है। थे पूर्वमें ऐसे यहां जो चित्त संशय हर सकें, जो शास्त्र, तर्क,प्रमाणसे मुख चन्द परका कर सकें।