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करदी शिला कंचनमयी निज पगतलेकी धूलसे,
आचार्य श्रीशुभचन्द्रने चाहा न रसको भूलसे । कल्याण प्रद संसारको उनके अलौकिक कार्य थे, सिद्धान्त औ साहित्यके सम्पूर्णतः आचार्य थे। क्या मंत्रमें, क्या तंत्रमें, क्या छन्दमें संगीतमें,
क्या काव्यमें,इतिहासमें क्या चित्र विद्या,नीतिमें? तर्क, ज्योतिष विश्वके थे शास्त्र, हृदयागारमें,
उनसा न था विद्वान कोई एक दिन संसारमें। उनके विपुल पांडित्यकी नर कौन कह सकता कथा, वे शास्त्र विद्या पारगामी विश्वमें थे सर्वथा । अतिशय निपुण थेसर्वदावैद्यक तथा आख्यानमें,
अमृतवरसताथासहज उनके मृदुल व्याख्यानमें। वे वायु सम निःसंग थे सागर-सदृश गम्भीर थे,
शशितुल्य चित्तविशुद्धथे गिरिराज समवेधीर थे। पाषाण भी मृदु-मूर्ति लखकर स्तब्ध होता था अहो, निर्जीव होता मुग्ध जवस्तब्ध मानव क्यों न हो? उनके विरोधी भी अहो! उसकाल कहते थेयही, इनसा हुआ होगान साधू और अब होगा नहीं। अपने विरोधी प्रतियहां कितना सरल व्यवहार है, ये मर्त्य है या देव हैं, थल स्वर्ग या संसार है ।