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स्याद्धादकी वे मूर्ति थे प्रतिमा गहन सिद्धान्तकी,
जिनके उदयसे शीघ्र हटती थी घटा एकान्तकी। व्याख्यान करते तत्त्वका मानों सुमन भूपर गिरे, जिनके वचन सुनकर प्रवल मिथ्यात्वियों के मन फिरें
मुनिराज। तिलतुष बराबर भी परिग्रह नित्य उनको पापथा,
सहते उपद्रव घे कठिन मनमें न पर सन्ताप था। संमार भोगों से कभी उनको न कोई काम था, प्रिय-राज मन्दिर त्यागकर बनको बनायाधामथा। निस्पृह अहो ! मुनिराज वे उपकार करते थे सदा, रिपु, मित्र, कचन, कांचमें ममभाव रखते थेसदा। पीड़ा न हो मुझसे किसीको ध्यान रहता थायही,
आग्य उनके आज तक पद पूजती सारी मही। जिनके हृदय जागृत रही कल्याणकी ही भावना, इन व्यर्थक ऐहिक मुग्वोंकी थी न उनको चाहना। अपने महशी प्राणियों के प्राण वेधे मानते, उपकार करते लोकका उपकार अपना मानते। पाठकानोग्य था उनकोजगनके त्यागमें, उससाक्षांश भी रुग्वधान-अनुराग