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पन्नग तथा मृगराजसे भी वे कभी डरते न थे।
अपने हृदयमें व्यर्थकी शंका कभी करते न थे। दैत्येन्द्रसे करते समर होते न थे भयवान वै.
करते रहे नित दीन दुखियों का अधिकतरत्राण थे। उनके अलौतिक पूर्ण बलका कौन पानाथा पता?
यह देश पाकर वीर नरको भाग्यथा निज मानता। लंकेशने कैलाशको कैसे अहो! विचलित किया,? सचीरता कहते किसे यह भीमने वाला दिया। श्रीनेमि प्रभुकी कृष्ण भी अंगुलिन टेढ़ी कर सके,
अभिमन्युके विकराल सरसे द्रोण कैसे थे छके ! लव और कुशकी देखकर रणमें प्रवल यों वीरता,
क्या तुच्छ लगती थी नहीं सौमित्रको निजशूरना। जिस युद्ध में वे नर गये उनको जय-नीने वरा,
उनकी अलौकिक वीरतापर मुग्ध होता दूसरा। रणमें मरेंगे पायेंगे स्वर्गीय सुख सिद्धान्त था,
बस: बीर भावोंसे भरा रहता सदाहीस्वान्न था। उनके परम वीरत्वमें किंचित् नहीं थी करता,
संग्रानमें थी शत्रुता पन्नात् थी प्रिय मित्रता । छलसे किसीको जीतना उनने कभी जाना नहीं. विध्वंस करके न्यायका, संग्रामको मना नहीं।