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हम पूर्वजों के मार्गपर जबतक मुदित चलते रहे,
तबतक हमारे कार्य सब संसारमें फलते रहे । उनको सहज विसरा दिया पड़कर प्रबल आराममें, पड़ना न चाहें सौख्य तज सौजन्यताके काममें ।
जिनको गले पहिले लगाया आज हैं वे शूलसे,
जिनको सदा जगसे भगाया आज हैं वे फूलसे। वह सर्व तो मुखरूप सुन्दर धर्मका भी है कहाँ? जब हम गिरेतो धर्मकैसे हाय! टिक सकता कहां?
ईर्षा,कलहका आज घर घरवीज हा! बोया हुआ,
अज्ञानकी मदिरा पिये प्रत्येक नर सोया हुआ । निज बन्धुओं प्रति सर्वदारहता अधिक कलुषित हिया, करते मुदित वह कार्यजो उनकेनप्रतिपहिले किया।
२० हा ! जैन कहनेमें हमें आती अधिकतर लाज है,
ऐसी अवस्था कब हुई जैसी अवस्था आज है। यो जैन कहते हैं किसे ? पूछे कभी यदि दूसरा, घस! पण्डितों से पूछिये मुखसे निकलती है गिरा।