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बन-फुटसे तो पेटको मिलती जरासी शान्ति है, गृह-फूटसे तो लोकमें मचती सदैव अशांति है।
गृह-स्वामी। आश्चर्यकारी आजकल गृह-स्वामियों का हाल है, निज प्रेयसी अनुसारही सम्पूर्ण उनकी चाल है। सहवासियोंको वे समझते गर्ववश निज दासही,' परिवार पालन रीतिको वे जान सकते हैं नही।
वे अपहरण करते सहज ही बन्धुके अधिकारको,
हा! त्रास देने में नहीं वे चूकते परिवारको । सब लोग जावें भाङमें बस, स्वार्थसे ही काम है, मुख धाम अब ऐसे नरों से बन रहा दुख-धाम है।
' मूर्खता। सर्वन ही कैसी समाई आज यह अज्ञानता,
यों खोजनेपर भीन मिलता हाय! विद्याका पता। अज्ञानताका.राज्य ही दिखता यहां चहुं ओर है, प्रासाद या बनकी कुदी कोई न खाली ठोर है।