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इसे फूटसे होगा कदाचित् ही भवनं कोई बचा, इसकी कृपासे कौरवों से पांडवों का रण मचा ।
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लड़ते यहां देखा गया है पुत्र अपने वापसे, व्याकुलं सदा रहते पितोजी मानसिक सन्तापसे। इस गृह-कलंहसें आज सत्यानाश जंगका हो रहां, हा! सद्गुणोंसे हाथ अपना शीघ्र भारतखों रहा।
दो बन्धुं भी आरामसे एकत्र रह सकते नहीं,
वे दुसरेका प्रेमसे उत्थान सह सकते नहीं। जितने मनुज हो गेहमें उतने यहां चूल्हे घने,
अभिमानमें आकर किसीको भी नहीं कुछवेगिने।
निज बंधुओं के साथ देखो शत्रुसा व्यवहार है,
अवलोक इस व्यवहारको जग दे रहा धिक्कार है । दो बैल भी आनन्दसे एकत्र खा सकते यहां, पर एक थाली में यहाँ दो बन्धु खा सकते कहां?
।। ६२ कोई कलहसे इस जगतमें मिष्ट फल क्या पायगा, 'लंकेशसा भी राज्य भूमें शीघ्र ही मिल जायगा ।