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१५६ आता प्रचुर रोना हमें विद्यालयों के काम पर, होते दुखीवहुछात्र हा, आजीविका पिन धामपर। पंडित निकलते जा रहे पर है जगह खाली कहां, निजपेट भरना भी उन्हें हा! हो रहा मुश्किल महा।
ब्रह्मचर्याश्रम । अब आश्रमोंकी भी दशाकोआपकुछ अवलोकिये,
धनवान पुत्रोंकी नहीं सत्ता वहां पर देखिये। वह पूर्व-शिक्षा पूर्णतः दुर्भाग्यमें मिलती नहीं, मुरझी हुई मनकी कली उनकी कभी खिलती नहीं।
हैं आज भी दो चार यों तो ब्रह्मचर्याश्रम यहां, पर छात्र पढ़ने के लिये पूरे अहो ! मिलते कहां । सन्तान केवल रह गई है अब सगाईके लिये, हम भेज सकते आश्रमों में कर पढ़ाई के लिये।
प्रिय ब्रह्मचर्या भावमें कितनी कठिनता प्राप्त है,
१ प्रचार्या भावसे, कैसा हुमा कुरा गाथ । मक्खियां फैसे उन्हें १ उठते नहीं हैं हाथ ।।
-मैथिलीशरण गुप्त।