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निजमान हित संसारमें क्या क्या नहीं करना पड़े, लेखक, कवि, कविराज, भी सेवक कभीबनना पड़े।
संस्थायें।
हैं जैन संस्थायें यहां पर पूर्वजों के भाग्यसे, मिलते नहीं हैं कार्यकर्ता योग्य हा, दुर्भाग्यसे । सौभाग्यसे यदि कार्य-वाहक योग्य मानव है जहां, वह क्या अकेला कर सकेगाद्रव्यकी कमतीवहां।
१५७ श्रीमान् लोगोंका न इनकी ओर किंचित् लक्ष्य है,
करता निरीक्षणतक नहीं जो कि बना अध्यक्ष है । घस, मुख्यकर्ताकी वहां चलती निरन्तर पोल है वाहर दिखावट देख लो, क्या रिक्तही यह ढोल है।
१५८ है द्रव्यकी कमती घड़ी अखबारमें छपवायेंगे, जनता समक्ष न कार्य करके भी कभी बतलायेंगे। क्या अभ्रभेदी विल्डिंगोंसे संस्थाका नाम है, प्रिय है न कृत्रिमता तनिक प्यारा जगतको काम है।