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जो आ गया निज चित्तमें तत्काल लिख डाला वहीं, कागज, कलम, मसिपात्र अपने हाथके, परके नहीं । फैला वितंडावाद इससे आज जैन समाजमें, हा, शान्ति भी तो रो रही है शान्तिताके राजमें ।
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उत्पन्न होते पत्र नूतन, जीर्ण तजते प्राणको, थोड़े दिवस जीकर यहां वे प्राप्त हों अवसान १ को । निष्पक्ष लिखना तो किसीने आजतक सीखा नहीं, निष्पक्षता बिन लोकमें यह सत्य भी देखा नहीं ।
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निजद्वेष दिखलाते हुये लिखते कभी नास्तिक जिन्हें, वे भी कड़े हो धर्म-ठेकेदार लिखते हैं उन्हें । इच्छा यही है तीव्रतर संसार में सन्मान हो, प्रियधर्मका अपमान हो या जातिका अवसान हो । सम्पादक ।
भाषा न आती शुद्ध लिखना पत्र सम्पादक बने, बस, पूर्णत: वे जातिमें संक्लेश उत्पादक बने ।
१ अन्त ।